बीते मई में विदेशी न्यायाधिकरण आदेश में हुए संशोधन ने विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए देश भर में ऐसे न्यायाधिकरण खोले जाने की संभावना के बारे में बहस की शुरुआत की, जिसके बाद इसे लेकर गृह मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया. जानिए क्या हैं विदेशी न्यायाधिकरण और इससे जुड़े नियम.
नई दिल्ली: 30 मई को गृह मंत्रालय ने विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश, 1964 के कुछ प्रावधानों में संशोधन करने संबंधी एक अधिसूचना जारी की. सुर्खियों में रही इस खबर ने सीमा के आर-पार प्रवासी और ‘विदेशी’ करार दिए गए व्यक्ति को देश से बाहर करने की प्रक्रिया (डिपोर्ट) को लेकर सवालों को जन्म दिया है.
1964 के आदेश में क्या कहा गया था और यह हालिया संशोधन उसमें कैसे बदलाव लाता है और लोगों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? द वायर ने इसका विश्लेषण किया है.
केंद्र सरकार ने विदेशी अधिनियम, 1946 की धारा तीन में दिए गए अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए ने विदेशी (न्याधिकरण) आदेश, 1964 की घोषणा की थी. हालांकि, 23 सितंबर, 1964 को गृह मंत्रालय की तरफ से जारी किया गया यह आदेश पूरे देश में लागू होता था, लेकिन यह वास्तव में असम राज्य को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था.
1961 की जनगणना पर भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने यह कहा था कि पूर्वी पाकिस्तान से 2,20,691 घुसपैठिये असम में दाखिल हो गए हैं. इस तथ्य की तस्दीक खुफिया रिपोर्ट्स द्वारा भी की गई थी.
यह देखते हुए इस सीमावर्ती राज्य में ऐसे घुसपैठियों की पहचान करने और उन्हें देश से बाहर करने के लिए 1962 में एक पुलिस अभियान की शुरुआत की गई, जिससे हंगामा खड़ा हो गया. राज्य के मुस्लिम समुदाय के कई प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि इस प्रक्रिया में कई वैध नगारिकों को भी डिपोर्ट किया जा रहा है.
असम सरकार द्वारा विदेशियों के मामले में 2012 में जारी किए गए एक श्वेत पत्र के मुताबिक उस समय पाकिस्तान सरकार ने इस मसले पर संयुक्त राष्ट्र जाने की धमकी दी थी. 1965 की जंग से पहले उस समय दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ रहा था.
इस हालात को देखते हुए केंद्र सरकार ने व्यवस्था दी कि ऐसे व्यक्ति को डिपोर्ट करने से पहले न्यायिक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ेगा. इस तरह से न्यायाधिकरण आदेश अस्तित्व में आया.
इस आदेश के बाद असम में चार न्यायाधिकरणों यानी ट्रिब्यूनलों की स्थापना की गई. 1968 तक ऐसे न्यायाधिकरणों की संख्या बढ़कर 9 तक पहुंच गई. जब इंदिरा गांधी की सरकार 1983 में अवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारित) अधिनियम- जिसे आईएमडीटी एक्ट के नाम से भी जाना जाता है- लेकर आई, उसके बाद और ज्यादा न्यायाधिकरणों की स्थापना की गई.
2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया और न्यायाधिकरणों को दोबारा विदेशी अधिनियम के तहत ला दिया. 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से न्यायाधिकरणों की संख्या को 36 से बढ़ाकर 100 करने का निर्देश दिया.
हाल ही में केंद्र सरकार ने न्यायाधिकरणों की संख्या बढ़ाकर 1000 तक करने की बात की. ऐसा संभवतः 31 जुलाई को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के अंतिम प्रारूप के प्रकाशन के बाद अपीलों में बढ़ोतरी की संभावना को देखते हुए किया जाएगा.
30 मई के संशोधन से 1964 के आदेश में क्या बदलाव किया गया है?
विदेशी (न्यायाधिकरण) संशोधन आदेश, 2019 के तहत किए गए बदलाव मुख्य तौर उस प्रक्रिया के बारे में ब्यौरेवार ढंग से बताता है, जिसका पालन विदेशी न्यायाधिकरणों में किसी मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता और प्रतिवादी दोनों द्वारा किया जाना जरूरी है.
सबसे पहले, तो इसने 1964 के आदेश के उप-अनुच्छेद(1) में वर्णित केंद्र सरकार’ को ‘केंद्र सरकार या राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रशासन या जिलाधिकारी या जिला न्यायाधीश’ से बदल दिया है.
इसलिए अगर आप इन संशोधनों के बाद उप-अनुच्छेद (1) पढ़ेंगे, तो यह इस तरह से होगा :
केंद्र सरकार या राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन या जिलाधिकारी या जिला न्यायाधीश(मजिस्ट्रेट), आदेश के द्वारा किसी व्यक्ति के विदेशी अधिनियम 1946 की परिभाषा के अनुसार के विदेशी होने या न होने के मसले को इस मकसद से बनाए गए न्यायाधिकरण के पास उसकी राय के लिए भेज सकता है.
इसका मतलब यह हुआ कि गृह मंत्रालय ने किसी संदिग्ध विदेशी के मामले को इस मकसद से बनाए गए न्यायाधिकरण को संदर्भित करने की शक्ति राज्य प्रशासन को भी दे दी है. विदेशी अधिनियम के तहत अब तक इस सवाल पर कार्रवाई करने की शक्ति सिर्फ केंद्र सरकार के पास थी.
हालांकि, कोई राज्य 1964 के आदेश के आधार पर, जिसके दायरे में पूरा देश आता था, ऐसे न्यायाधिकरणों के गठन के लिए केंद्र सरकार की इजाजत ले सकता था. लेकिन व्यवहार में राज्य सरकारें ऐसे मामलों को स्थानीय अदालतों के पास भेजती रही हैं, क्योंकि ऐसे न्यायाधिकरणों की स्थापना के लिए अतिरिक्त फंड की दरकार होती.
असम में ऐसे न्यायाधिकरणों की स्थापना के लिए फंड खुद गृह मंत्रालय ने मुहैया कराया. असम का मामला एक और तरीके से अलग था. 1961 और 1962 में जारी किए गए कार्यपालिका आदेश से केंद्र सरकार ने इस अधिनियम के तहत अपनी शक्तियों को असम के पुलिस महाधीक्षकों (एसपी) और जिला कमिश्नरों (पुलिस के इंचार्ज) को सौंप दिया था.
इस तरह से हर जिले के एसपी को संदिग्ध विदेशी का ‘पता लगाने’ का अधिकार दे दिया गया. इस तरह देखें, तो कथित घुसपैठियों का पता लगाने और उन्हें डिपोर्ट करने का अधिकार असम में 1964 के आदेश से पहले से ही था. 1964 के आदेश ने सिर्फ न्यायाधिकरणों के गठन का रास्ता तैयार किया, जिसके तहत संदिग्ध विदेशी को न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता.
काफी पहले, 1962 में पुलिस की सीमावर्ती इकाइयों का गठन ‘एक सुरक्षा कवच’ बनाने के लिए किया गया था, जिसका काम मुख्य तौर पर सीमा के पास कथित घुसपैठियों के अप्रवासी समुदाय के भीतर शरण लेने पर अंकुश लगाना था.
क्या 30 मई की अधिसूचना द्वारा 1964 के आदेश में और कोई बदलाव किया गया है?
1964 के आदेश में तीन और बदलाव किए गए हैं, जिन्हें भारत के गजट में अधिसूचित भी कर दिया गया है. दूसरे बदलाव का संबंध भी शब्द प्रयोग से है, जिसके द्वारा उप-अनुच्छेद 1 ए में वर्णित ‘नागरिकता नियम, 1956 के नियम 16एफ’ को ‘नागरिकता नियम, 2009 के नियम 19’ से बदल दिया गया है.
यह बदलाव सिर्फ नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6ए से संबंधित है. इसलिए व्यावाहारिक तौर पर यह बदलाव सिर्फ असम के लिए शामिल किया गया है.
अधिनियम की उपधारा 6ए असम संधि से संबंधित है, जिसमें राज्य के लिए एक खास नागरिकता कट-ऑफ डेट की व्यवस्था की गई थी. ऐसा भारत के किसी भी दूसरे हिस्से में नहीं है. इसलिए यह बदलाव सभी राज्यों और उनके प्रशासन पर पर लागू नहीं होता है. इस तथ्य के बावजूद कि 1964 का आदेश पूरे देश पर लागू होता है.
क्या हैं दो और बदलाव?
1964 के आदेश की धारा 3 में दो नई उप-धाराएं शामिल की गई हैं, जिसके कारण उपधारा 3ए अब उपधारा 3सी की जगह आ गई है. ये दो नए प्रावधान न्यायाधिकरणों में किसी मामले की सुनवाई करने की पूरी प्रक्रिया का खाका पेश करते हैं.
उप-धारा 3ए में जोड़े गए 17 बिंदुओं में यह बताया गया है कि किसी अपील पर फैसला सुनाने के लिए किन कसौटियों का ध्यान रखा जाना चाहिए. इससे पहले की उपधारा 3ए (जो कि अब उप-धारा 3सी है) में सिर्फ संदिग्ध विदेशी के मामले की सुनवाई के लिए बुनियादी प्रक्रिया का उल्लेख किया गया था.
इन जोड़े गए प्रावधानों ने जिलाधिकारियों को उनके विवक से किसी संदिग्ध विदेशी के मामले को या ऐसे लोगों के मामलों में जिनकी नागरिकता सवालों के घेरे में है और जिन्होंने उनके खिलाफ मामला दर्ज किए जाने के 2 महीने के बाद भी न्यायाधिकरण में अपील नहीं दायर नहीं की है, न्यायाधिकरण के पास भेजने की शक्ति दे दी है
यह बाद वाला प्रावधान नागरिकता (नागरिकों का पंजीयन और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना) नियम, 2003 के अनुरूप है. अगर फिर से असम के मामले पर विचार करें, तो अब तक सिर्फ एसपी (सीमावर्ती) ही ऐसे मामलों को न्यायाधिकरणों के पास भेज सकते थे.
अब नए बदलाव के तहत जिलाधिकारियों को भी यह अधिकार दिया गया है. भारत का चुनाव आयोग भी संदिग्ध वोटरों के मामले को स्थानीय एसपी के पास भेज सकता है, जो नागरिकता की जांच करने के लिए इसे आगे किसी न्यायाधिकरण में भेज सकता है.
चुनाव आयोग की संदिग्ध वोटरों की श्रेणी या डी श्रेणी, जिसमें मतदाता सूची को अपडेट करते वक्त लोगों को जोड़ा सकता है, भी खासतौर पर असम के लिए है. इसकी शुरुआत 1997 में की गई थी.
30 मई को जोड़ी गई धारा 3 भी यह कहती है कि जिलाधिकारी सभी आधिकारिक दस्तावेजों के संरक्षक हैं और उनके पास न्यायाधिकरण की मांग पर जरूरी दस्तावेजों को सौंपने का अधिकार है. इसका मतलब है कि जैसा कि एनआरसी 1951 के मामले में था, संशोधित एनआरसी को एनआरसी अधिकारियों द्वारा संबंधित जिलाधिकारियों के कार्यालयों में जमा करना होगा.
इस तरह से जिलाधिकारी एनआरसी का संरक्षक है. जिलाधिकारियों को किसी संदिग्ध मामले को न्यायाधिकरणों में भेजने का अधिकार देने की वजह यह भी हो सकती है. न्यायाधिकरणों की स्थापना के बाद, एनआरसी 1951 से जुड़े हुए दस्तावेज धीरे-धीरे जिलाधिकारायों के दफ्तरों से जिला पुलिस स्टेशनों में भेज दिए गए.
ऐसा करने के पीछे तर्क यह था कि सीमावर्ती पुलिस को संदिग्ध विदेशियों के मामलों की जांच करते वक्त इसकी जरूरत पड़ सकती है. विदेशी अधिनियम के अलावा, एनआरसी 1951 लंबे समय तक महत्वपूर्ण दस्तावेज बना रहा, क्योंकि नागरिकता अधिनियम 1955 में ही जाकर अस्तित्व में आ सका.
इन बदलावों का अर्थ क्या है?
ये बदलाव बुनियादी तौर पर उन लोगों के मामलों का निपटारा करने के लिए अपनाई जानेवाली प्रक्रिया को लिखित रूप देते हैं जो 31 जुलाई प्रकाशित होनेवाले एनआरसी में जगह नहीं बना पाएंगे. उपधारा 3ए में 120 दिन की एक निश्चित मियाद तय की गई है, जिसके भीतर न्यायाधिकरणों को किसी अपील पर अपना फैसला सुना देना होगा.
ये संशोधन 24 मार्च, 1971 से पहले असम के निवासियों को निर्धारित करने के दो आधिकारिक प्रयासों- एनआरसी और विदेशी न्यायाधिकरण को आपस में जोड़ने की दिशा में भी एक कदम है. जो लोग एनआरसी के बाहर रह जाएंगे, उन्हें न्यायाधिकरणों में जाना पड़ेगा. इनको ध्यान में रखते हुए ही ये संशोधन किए गए हैं.
किसी का नाम एनआरसी में नहीं आने पर वह स्वतः विदेशी नहीं हो जाएगा. न्यायाधिकरणों को, जो कि अर्ध-न्यायिक [Quasi-Judicial] इकाइयां हैं, इस मामले में आखिरी फैसला लेना होगा.
अगर किसी याचिकाकर्ता को न्यायाधिकरण द्वारा विदेशी घोषित कर दिया गया है, तो उसके पास उच्च न्यायालय और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का अधिकार होगा.
क्या अब असम के बाहर भी न्यायाधिकरणों की स्थापना का रास्ता खुल गया है?
जैसा कि ऊपर बताया गया है, 1964 का आदेश सिर्फ असम के लिए न होकर पूरे देश के लिए था. यानी इसका मतलब यह हुआ कि आदेश में किया जाने वाला कोई भी बदलाव अपने आप पूरे देश पर लागू होता है, जबकि न्यायाधिकरणों की स्थापना सिर्फ असम में की गई थी.
11 जून को मीडिया में संशोधन के द्वारा न्यायाधिकरणों के दायरे को असम के बाहर विस्तार देने संबंधी खबरों पर गृह मंत्रालय के स्पष्टीकरण में भी कहा गया,‘चूंकि इस आदेश के तहत विदेशी न्यायाधिकरण असम के अलावा देश के किसी अन्य राज्य में स्थापित नहीं किए गए हैं, इसलिए व्यवहार में यह संशोधन सिर्फ असम के लिए ही प्रासंगिक है.’
क्या 30 मई से पहले भी 1964 के आदेश में संशोधन किया गया था?
10 दिसंबर, 2013 को यूपीए-2 सरकार विदेशी न्यायाधिकरणा आदेश, 1964 में संशोधन लेकर आई. इस संशोधन के मुताबिक, जिसे विदेशी न्यायाधिकरण संशोधन आदेश, 1964 कहा जाता है, अनुच्छेद तीन में बदलाव करके किसी मामले का निपटारा करते वक्त न्यायाधिकरण द्वारा अपनाई जानेवाली प्रक्रिया का ब्यौरा दिया गया था.
क्या 1951 का एनआरसी खासतौर पर असम के लिए था?
1951 के एनआरसी की कवायद खासतौर पर असम के लिए थी. अब इसे सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में अपडेट किया जा रहा है. 6 दिसंबर, 2013 को गृह मंत्रालय द्वारा संशोधन का काम शुरू करने की प्रक्रिया शुरू करने को लेकर जारी की गई अधिसूचना खासतौर पर इस बात का उल्लेख करती है कि यह संशोधन भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा सिर्फ असम में किया जाएगा.
जनगणना के विपरीत जो कि घर-घर जाकर किया जाता है, एनआरसी में संशोधन आवेदन के जरिए किया जाता है. इसका मतलब है कि अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे राज्य का स्थायी निवासी है और असम में थोड़े समय के लिए निवास कर रहा है, उसे इस प्रक्रिया में शामिल नहीं होना होगा.
इस समर्पित कवायद के अलावा, भारत के रजिस्ट्रार जनरल का दफ्तर 2010 से नेशनल रजिस्टर फॉर पॉपुलेशन या जनसंख्या के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर (एनपीआर) का निर्माण कर रहा है. एनपीआर में किसी व्यक्ति के बारे में आधार कार्ड से ज्यादा जानकारी दर्ज की जाती है.
अवैध प्रवासियों की पहचान करने और वैध निवासियों का एक रजिस्टर तैयार करने के लिए एनपीआर के लिए आंकड़े 2011 की जनगणना के दौरान एकत्र किए किए गए थे. इस तरह से जब एनपीआर बनकर तैयार हो जाएगा, तो वह वास्तव में नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर होगा.
एनपीआर को 2015 में संशोधित किया गया और फिलहाल इसके डिजिटलीकरण का काम चल रहा है. एनपीआर की वेबसाइट पर कहा गया है कि भारत के हर ‘सामान्य निवासी’ के लिए एनपीआर में अपना नाम दर्ज कराना जरूरी है.
इसका प्रकट तौर पर लक्ष्य निवासियों को एक विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना है. जिन याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय में आधार और लोगों की निजता के हनन की संभावना के खिलाफ दलील दी थी, उन्होंने एनपीआर डेटा के भी संभावित दुरुपयोग को लेकर चिंता जताई है.
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