शिवकुटी लाल वर्मा: फैक्ट्रियों, मिलों की इमारतों के बीच किसी झोपड़पट्टी की ख़ाली ज़मीन हूं मैं

शिवकुटी लाल वर्मा ने अपनी कविता में वह सब महसूस किया, जिसे देश की दलित, पीड़ित व शोषित जनता आज तक महसूस करती आई है. उन्होंने न केवल इसे महसूस किया बल्कि इसे लेकर लगातार सवाल भी किए.

शिवकुटी लाल वर्मा ने अपनी कविता में वह सब महसूस किया, जिसे देश की दलित, पीड़ित व शोषित जनता आज तक महसूस करती आई है. उन्होंने न केवल इसे महसूस किया बल्कि इसे लेकर लगातार सवाल भी किए.

Shivkuti Lal Verma Pehleebar wordpress com
शिवकुटी लाल वर्मा [जन्म: 1 जुलाई 1937- अवसान: 18 जुलाई 2011] (फोटो साभार: pahleebar.wordpress.com)

किसे खलेगा मेरा अभाव
एक ऐसा पाठ हूं मैं
जिसे शब्द-स्फीत पाठ्यक्रम से हटा दिया गया

मैं वह स्वतंत्रता हूं
गुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थी
लेकिन मिलते ही जिसका आशय झुठला दिया गया

वह रचना-बोध
जिसे रचना का स्वांग रचने वालों ने ही मिटा दिया
फैक्ट्रियों, मिलों और उद्योगपतियों की इमारतों के बीच
किसी झोपड़-पट्टी की खाली जमीन हूं मैं

आपाधापी और महत्वाकांक्षाओं के बीच
मैं वह निःसंग आत्मीयता हूं
जिसे एक अधूरी पंक्ति-सा बार-बार काटा गया

पर हर बार काटे जाने के साथ
वह परिवेश में कटी हुई अदृश्य उंगलियों-सी आज भी
तैरती है.

1937 की पहली जुलाई को इलाहाबाद के चाहचंद मुहल्ले में पैदा हुए हिन्दी की नई कविता के सर्वथा अलग तरह के कवि शिवकुटी लाल वर्मा के रहते उनसे उनकी ‘अभाव’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां सुनाने का बारम्बार आग्रह करने वालों को भी इस स्थिति का शायद ही आभास रहा हो.

18 जुलाई, 2013 को अपने 79वें वर्ष में कूल्हे की हड्डी टूटने के बाद गंभीर हुई अस्वस्थता से त्रस्त होकर उन्हें इस संसार से विदा हुए महज छह साल ही हुए हैं और उनकी ये पंक्तियां उनकी विस्मृति को ‘सार्थक’ करने लगी हैं!

उनके इस प्रश्न के सामने कि ‘किसे खलेगा मेरा अभाव’, समूचा हिन्दी संसार निरुत्तर होकर रह गया है. प्रसंगवश, यह स्थिति इस कारण कुछ ज्यादा ही त्रासद है कि खुद के ही शब्दों में ‘बेचैन सच की उम्र’ बन-बनकर जीने वाले शिवकुटी लाल वर्मा का इस संसार से जाना राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हिन्दी की ऐतिहासिक साहित्यिक संस्था ‘परिमल’ के इलाहाबाद के आखिरी सदस्य का चला जाना था.

उनके निजी जीवन की बात करें तो वे लंबे समय तक इलाहाबाद में ही महालेखा परीक्षक के कार्यालय में कार्यरत रहे. 1994 में सुपरवाइजर पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे शहर के चकमिरातुल स्थित जगमल के हाते में रहने लगे थे.

उनके अन्यतम मित्र उमाकांत मालवीय के पुत्र युवा कवि यश मालवीय, जो बाद में उनके सहकर्मी भी बने, बताते हैं कि युवावस्था में ही एक गंभीर बीमारी के शिकार हो जाने के बाद भरसक चिकित्सा के बावजूद शिवकुटी लाल जी उससे मुक्त नहीं हो पाए. लेकिन उनकी जिजीविषा इतनी उद्दाम थी कि उसने बीमारी को कभी भी उन पर हावी नहीं होने दिया.

यह जिजीविषा ही थी, जिसके बूते सामान्य परिवार में जन्मे शिवकुटी लाल अपने प्रगतिशील जीवन मूल्यों से समझौता किए बिना आखिरी समय तक सृजनरत रह पाए.

उनकी पहली कविता 1956 में ‘परिमल’ के उनके साथी साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘निकष-2’ में प्रकाशित की और लंबे अंतराल के बाद उनका चौथा काव्य संग्रह ‘सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते’ छपकर आया तो वे अस्पताल में भर्ती होकर उसके आखिरी होने की मुनादी-सी कर रहे थे.

इससे पहले अशोक वाजपेयी अपनी बहुचर्चित ‘पहचान’ श्रृंखला के अंतर्गत उनका पहला ‘कविताएं’ शीर्षक काव्य संग्रह प्रकाशित कर चुके थे. आगे चलकर समय के साथ शिवकुटी लाल जी ने हिन्दी जगत को अपनी तरह के दो अनूठे और बहुचर्चित काव्य संग्रह ‘हार नहीं मानूंगा’ और ‘समय आने दो’ तो दिए ही, अपने गद्य लेखन का भी लोहा मनवाया.

इनमें ‘हार नहीं मानूंगा’ में छपी उनकी आपातकाल के दौर की कविताएं उनकी जनपक्षधरता व जीवनधर्मिता का पता देतीं तो उनके शिल्प के उस अनूठेपन की भी ताईद करती थीं, जिसके लिए वे खासतौर पर जाने जाते थे.

कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने शमशेर बहादुर सिंह की तर्ज पर कुछ गजलें भी रची हैं, जिनमें से एक की यह पंक्ति वे खुद के संदर्भ बार बार दोहराते रहते थे- मैं उसी बेचैन सच की उम्र बन-बनकर जिया हूं.

कहते हैं कि उनकी काव्य प्रतिभा इतनी अनूठी थी कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल करने तक उन्होंने नई कविता आंदोलन से जुड़कर हिन्दी की तत्कालीन महाविभूतियों धर्मवीर भारती, हरिवंशराय बच्चन, जगदीश गुप्त और विजयदेव नारायण साही जैसे अग्रजों का भरपूर स्नेह पा लिया था.

बाद में भोपाल में हुए विश्व कविता समारोह में उन्होंने इलाहाबाद के प्रतिनिधि हस्ताक्षर के रूप में भाग लिया. छंदबंधनहीन नई कविता के वे जितने अच्छे सर्जक थे, उतने ही अच्छे अनुवादक भी. वंशी माहेश्वरी द्वारा संपादित लघु पत्रिका ‘तनाव’ की अनुवाद पुस्तिकाओं की श्रृंखला के लिए उन्होंने कई विदेशी कवियों की रचनाओं के बेहद अच्छे अनुवाद किए थे.

सौभाग्य से उन्हें लक्ष्मीकांत वर्मा, दूधनाथ सिंह, मलयज और श्रीराम वर्मा जैसे आलोचक व समीक्षक मिले, जिन्होंने समय-समय पर उनके कविकर्म का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कर उनके साहित्यिक अवदान को रेखांकित किया. उस पीड़ा को भी जिससे सराबोर होकर उन्होंने अपनी एक कविता में वह सब महसूस किया, जिसे देश की दलित, पीड़ित व शोषित जनता आज तक महसूस करती आती है:

मेरे इस देश में आहों के सिवा कुछ भी नहीं
कटी बांहों, कटी टांगों, कटी राहों के सिवा कुछ भी नहीं

मेरे इस देश में कातिल तो बहुत मिलते हैं
मगर इस देश को सरसब्ज बनाने के लिए कुछ भी नहीं,
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!

और महसूस किया तो सिर्फ महसूस करके नहीं रह गए. बहुतों के लिए असुविधाजनक यह प्रश्न भी बार-बार पूछा:

बेहतर क्या है आज के समय में
कवि होना या एक बिच्छू, एक सांप, एक भेड़िया
या एक बर्बर समूह बन जाना?

बताओ कवि! बिच्छू, सांप, भेड़िये व बर्बर समूह
तुम्हारी कविताओं के भीतर तो मरते हैं
पर क्यों नहीं मरते तुम्हारी कविताओं के बाहर
कवि तुम मौन क्यों हो?

उनका नाम शिवकुटी लाल रखे जाने की भी एक बड़ी रोचक दास्तान है. कहते हैं कि जिस दिन वे पैदा हुए, पास में ही स्थित शिवकुटी का मेला था. सो, उनके माता-पिता ने सर्वसम्मति से उनका नाम शिवकुटी रख दिया. वे चाहचंद मुहल्ले में रहते थे तो उनके कई मित्र यह कहकर उन्हें चिढ़ाया करते थे कि उनका नाम तो किसी मोहल्ले के नाम जैसा लगता है जबकि उनके मोहल्ले का नाम किसी व्यक्ति के नाम जैसा है.

कई बार उन्हें पत्र आते तो पते की जगह उनपर लिखा होता- श्री चाहचंद वर्मा, 1, शिवकुटी, इलाहाबाद. वे देखते तो खुद भी बालसुलभ अंदाज में इसका मजा लेते. कई बार वे बच्चों की तरह लोगों को अपनी कविताएं सुनाते और चिहुंक जाते या फिर नुकीले दांत वाली हंसी के साथ खिलखिला उठते.

हां, वे अपने आखिरी वक्त तक इस विश्वास से भरे हुए थे कि अंततः धर्मांधता को दूर कहीं वीराने में सिर छुपाना पड़ेगा और अपने निर्वासन के दिन खत्म कर चुकी इंसानियत को सिसकने और मुंह ढकने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. इसकी गवाह है उनकी ‘खरापन बालिग हो गया है’ शीर्षक यह कविता:

धर्मांधता!
जाओ दूर कहीं वीराने में अपना सिर छुपाओ
तुम्हारी सांस से बदबू आती है
बेहद जरूरी है
कि इस विस्तृत घास के मैदान में
बीमारों को ताजा हवा मिल सके

सांप्रदायिकता!
बराय-मेहरबानी इस अहाते को खाली कर दो
मकान की आबो-हवा बदलने के लिए
मुझे यहां अभी अनेक पेड़
और कई रंग के खुशबूदार फूल उगाने हैं
झूठी सद्भावनाओं!
अब कहीं और जा कर खातिरदारी कराओ
खरापन बालिग हो गया है

इंसानियत!
सिसको नहीं
मुंह ढंकने की कोई जरूरत नहीं
तुम्हारे निर्वासन के दिन खत्म हो चुके हैं
अंदर आओ.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)