भाजपा जातिगत राजनीति के अंत की बात करती है, लेकिन अंदरखाने उसे साधने में लगी रहती है

लोकसभा चुनाव में मिली जीत को भाजपा जातिवादी राजनीति की हार के तौर पर भी प्रचारित करती रही है. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को जातीय समीकरणों को साधने की ज़रूरत नज़र आने लगी.

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योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीटीआई)

लोकसभा चुनाव में मिली जीत को भाजपा जातिवादी राजनीति की हार के तौर पर भी प्रचारित करती रही है. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को जातीय समीकरणों को साधने की ज़रूरत नज़र आने लगी.

योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीटीआई)
योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीटीआई)

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश विधानसभा की 11 सीटों के उपचुनाव से ऐन पहले भारतीय जनता पार्टी के लिए राजनीतिक रूप से लाभकारी जातीय समीकरण सुनिश्चित करने के मकसद से संसद की शक्ति और संवैधानिक प्रावधानों के अतिक्रमण से भी गुरेज नहीं किया.

योगी सरकार ने आनन-फानन में प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में रखने का फैसला कर डाला, लेकिन चूंकि एक अन्य प्रसंग के हवाले से यह मामला पहले से ही इलाहाबाद न्यायालय में विचाराधीन था, तो समझा गया कि वह न्यायालय के निर्णय के आधार पर ही अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचेगा.

दरअसल, राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार के वक्त भी इन जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने का लगभग ऐसा ही फैसला किया गया था और तब भी केंद्र उससे सहमत नहीं था, जिसके चलते मामला उच्च न्यायालय गया और अभी अंतिम निर्णय तक नहीं पहुंचा है.

इस चक्कर में निषाद, बिंद, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, मांझी, तुरहा और गौड़ आदि नामों से जानी जाने वाली ये जातियां राजनीतिक पार्टियों की शटल काॅक-सी बनकर रह गई हैं.

ऐसे में सतर्क केंद्र सरकार ने इस बार भी न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा किए बिना योगी सरकार के फैसले को उसके ही गले में लटकाते हुए असंवैधानिक करार दे डाला तो भी शायद ही किसी को ताज्जुब हुआ हो.

कारण यह कि योगी सरकार के फैसले से भाजपा को जो भी राजनीतिक लाभ मिलना था, उत्तर प्रदेश में ही मिलना था, जबकि केंद्र ने इस दिक्कत को भी खासी शिद्दत से महसूस किया कि इस फैसले को किसी भी तरह ‘वैधता’ मिल गई तो अन्य दलों द्वारा शासित राज्यों की सरकारें भी योगी की राह पर चल पड़ेंगी और तब भाजपा को लाभ से ज्यादा हानि पहुंचने का अंदेशा हो जाएगा.

हालांकि अभी देश के 19 राज्यों में भाजपा ही सत्तारूढ़ है लेकिन इस स्थिति के हमेशा बने रहने की गारंटी कोई भी नहीं दे सकता.

दूसरे पहलू पर जाएं तो इस सिलसिले में ताज्जुब की सबसे बड़ी बात यह है कि योगी सरकार को इन 17 जातियों के मार्फत भाजपा के लिए मुफीद राजनीतिक समीकरण की आवश्यकता लोकसभा चुनाव के फौरन बाद ही क्यों अनुभव होने लगी?

खासकर, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा की अजेयता का मिथक एक बार फिर से मजबूती से स्थापित हो गया है?

लोकसभा चुनाव में ऐसे किसी जातीय समीकरण के बगैर भी देश के 17 राज्यों में भाजपा कुल पड़े मतों का आधे से ज्यादा अपने पक्ष में करने में सफल रही थी.

तभी तो वह लोकसभा चुनाव में अपनी जीत को व्याख्यायित करते हुए खासा जोर देकर बारम्बार कहती रहती है कि उसके द्वारा जातिवादी सपा-बसपा व रालोद के गठबंधन को मुंह की खिला देने के साथ ही जाति की राजनीति का अंत हो गया है और मोदी जी के नए भारत में उसके पांव फिर से नहीं जमने वाले.

वह लोकसभा चुनाव में मिली इस जीत को वंशवाद की राजनीति के पतन और परिवारवाद की राजनीति की हार के तौर पर भी लेती रही है. उसके समर्थक विश्लेषक और पत्रकार उसकी जीत को जातीय समीकरणों पर नए भारत, विकास और राष्ट्रवाद की जीत बताते हैं.

फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि अभी उस जीत के 100 दिन भी नहीं बीते और देश के सबसे बड़े राज्य की भाजपा सरकार को जातीय समीकरणों को साधने की जरूरत नजर आने लगी?

इतना ही नहीं, उन्हें साधने में न तो संसद की शक्तियों के अतिक्रमण से परहेज रहा, न ही संविधान के उल्लंघन से? योगी सरकार ने इस तथ्य का भी संज्ञान नहीं लिया कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत संसद की मंजूरी से ही अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचियों में बदलाव किया जा सकता है. इनकी सूचियों में बदलाव का अधिकार योगी सरकार तो क्या भारत के राष्ट्रपति के पास भी नहीं है.

क्या ऐसे आचरण से यह सिद्ध नहीं होता कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के शोर में जिस जातिवाद की समाप्ति का दावा किया जा रहा था, अब उसकी पोल खुलने लगी है?

अन्यथा जातिवाद का सफाया हो जाने और मतदाताओं के विकास के नाम पर वोट देने लग जाने के बावजूद क्यों योगी सरकार को लगता कि 11 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में जातीय समीकरण को नए सिरे से ‘सही’ किए बगैर वह अपना पुराना प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी?

गौरतलब है कि इन 17 जातियों की आबादी प्रदेश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है और सामाजिक स्थिति दलितों जैसी ही है.

विधानसभा उपचुनाव से पहले 14 प्रतिशत आबादी को ‘पटाने’ की योगी सरकार की शातिर कोशिश से पहले ही बुरे दिनों का सामना कर रहे विपक्षी दलों की नींद उड़नी ही थी, जो उड़ गई.

इसलिए और भी कि लोकसभा चुनाव में भाजपा के पैंतरे गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों को सपा-बसपा गठबंधन से अलग करने के सफल रहे थे. अब, जब सपा-बसपा गठबंधन टूट गया है और दोनों की राहें अलग हो चुकी हैं, स्वाभाविक ही ये दोनों पार्टियां फिर से जातीय समीकरणों के सहारे उपचुनाव जीतने की कोशिश करेंगी.

ऐसे में योगी सरकार ने अति पिछड़ी जातियों के बीच भाजपा का झंडा बुलंद करने की अपनी चाल में कामयाबी भले ही नहीं पाई, प्रमाणित कर दिया है कि भाजपा विकास और राष्ट्रवाद के भरोसे ही नहीं बैठी रहने वाली.

वह दावा भले ही करती रही है कि उसने विकास व राष्ट्रवाद के बूते जातिवाद को खत्म कर दिया है, जातिवादी हथकंडों को अभी भी अपरिहार्य मानती आ रही है.

बहरहाल, योगी सरकार के समक्ष अपने इस फैसले को वापस ले लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है, लेकिन प्रेक्षकों की मानें तो वर्तमान हालात में राजनीति में जाति की कुटिल चालें, कम से कम उत्तर प्रदेश में, न वापस हो पाएंगी और न उनकी गति पर ही नियंत्रण हो पाएगा.

कारण यह कि इस लिहाज से भाजपा, सपा, बसपा व रालोद, ऊपर-ऊपर से कुछ भी कहें, अंदरखाने सभी भाई-भाई ही हैं.

अलबत्ता, बसपा यह कहती हुई बाकियों से थोड़ी अलग दिखती है कि इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शामिल किया जाना चाहिए और उनके आनुपातिक आधार पर अनुसूचित जातियों का कोटा भी बढ़ाया जाना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)