ऐतिहासिक नज़रिये से देखें, तो इस्लाम और हिंदू धर्म का आमना-सामना दोनों के लिए फायदेमंद ही रहा है.
यह तीन लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग है. पहला भाग यहां पढ़ा जा सकता है.
किसी आस्था पद्धति को सिर्फ अपना लेना काफी नहीं है, बल्कि उसे जीवन में उतारना जरूरी है- मज़हब का यह विचार सिर्फ हिंदू मत, बौद्ध मत या दूसरे रहस्यवादी मज़हबों तक ही सीमित नहीं है.
इस्लाम और ईसाई मजहबों के भीतर भी यह प्रभाव देखा जा सकता है. 11वीं और 12वीं शताब्दी में इस विचार को दक्षिणी फ्रांस और स्पेन के ईसाई संप्रदाय काथर्स के यहां ठिकाना मिला और सीरिया, इराक, तुर्की में शिया इस्लाम की अलावियों जैसी शाखाओं में भी इसका प्रचलन देखा गया.
कोई हैरत की बात नहीं है कि दोनों ही संप्रदायों के साथ रूढ़िवादी ईसाई मत और इस्लाम द्वारा विधर्मी और धर्मभ्रष्ट जैसा बर्ताव किया गया है.
1200 ईस्वी में पोप इनोसेंट तृतीय ने काथर्स के खिलाफ कम चर्चित चौथे धर्मयुद्ध की शुरुआत की और इसमें शामिल होनेवाले सामंतों और नवाबों को सामने आनेवाले हर व्यक्ति की हत्या बिना दया दिखाए करने का निर्देश दिया और सच्चे आस्थावानों और विधर्मियों के बीच भेद करने का काम भगवान पर छोड़ देने के लिए कहा.
जहां तक अलावियों की बात है कि उन पर होनेवाले अनगिनत हमलों में सबसे हाल का हाल का हमला सीरिया में अब तक जारी है.लेकिन इसके बिल्कुल उलट भारत में इस्लाम और धर्म के बीच का टकराव शांतिपूर्ण रहा है.
इस्लाम के साथ धर्म का पहला संपर्क तब हुआ जब अरब व्यापारी गुजरात आए और उन्होंने 8वीं और 9वीं शताब्दी में वहां मस्जिदों का निर्माण करवाया.
इसने न केवल धार्मिक संघर्ष को जन्म नहीं दिया, बल्कि जैसा कि समकालीन जैन अभिलेखों ने दर्ज किया है, दो शताब्दी बाद जब महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, तब उसे बचाने की कोशिश में वहां पीढ़ियों से रह रहे अरब कारोबारी भी शामिल थे.
सोमनाथ के हिंदू मंदिर होने का तथ्य उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था. उनके हिसाब से इसकी रक्षा की जानी चाहिए थी क्योंकि यह उन हिंदुओं के लिए महत्वपूर्ण था, जिनके बीच वे रह रहे थे.
धर्म और इस्लाम के बीच दूसरा ज्यादा लंबा समय तक चलनेवाली टकराहट दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद हुई. यह वह दौर है, जिसे आरएसएस भले इतिहास से न सही, सामूहिक स्मृति से अवश्य मिटाना चाहेगा.
इसी ने मोदी सरकार को औरंगजेब रोड का नाम बदलकर एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग करने के लिए प्रेरित किया. भाजपा शासित दूसरे राज्यों में भी ऐसे कई बदलाव किए गए.
लेकिन इस दौर में कला, संगीत और साहित्य में अभूतपूर्व तरक्की हुई. यह अमीर खुसरो का वक्त है, यह वह वक्त है जब ख्याल गायकी और कथक नृत्य का जन्म हुआ, जब रेखाचित्रों वाली फारसी मिनियेचर पेंटिंग का हिंदू कला के चटक रंगों के साथ संयोग हुआ और मुगल, राजपूत, कांगड़ा, बसोहली मिनियेचर पेंटिंग्स की शैली का जन्म हुआ.
यही वह वक्त है, जब भारत-इस्लामी वास्तुकला का जन्म हुआ, जो हुमायूं के मकबरे, ताजमहल, और पूरे उत्तर भारत में बने स्मारकों में जो अपने उत्कर्ष पर पहुंची.
हिंदुत्व की पक्षपाती स्मृति
हिंदुत्व इन सबको नजरअंदाज करता है और राजपूतों की पराजय, मंदिरों के ध्वंस और इस दौर में बड़ी संख्या में हिंदुओं के धर्म परिवर्तन की ज्यादा बात करता है. लेकिन यहां भी इसकी स्मृति एकांगी और विकृत है. राजपूत, जिनका उस समय उत्तर भारत के अधिकांश भाग पर शासन था, उन्हें राजस्थान के निर्जन प्रदेश में धकेल दिया गया.
लेकिन इन पराजयों का कारण हमलावरों की बेहतर सैन्य तकनीक जैसे हाथियों के ऊपर रिसाले या घुड़सवार फौज, और पैदल सेना के ऊपर धनुर्धर का हाथ था. इसका कारण यह नहीं था कि मुस्लिम लड़ाके किसी तरह से हिंदुओं से श्रेष्ठ थे. इसके विपरीत विजेताओं ने राजपूतों की वीरता को पहचाना और उन्हें और जल्दी ही अपनी सेनाओं में शामिल कर लिया.
हिंदुत्व के पक्षधर अंतहीन तरह से हिंदू राजव्यवस्था और समाज को मुस्लिम आक्रमणकारियों से होनेवाले नुकसान की बात करते नहीं थकते हैं, लेकिन वे इस तथ्य को सुविधानजक ढंग से नजरअंदाज कर देते हैं कि मुस्लिम राजवंशों ने मध्य युग के सबसे बड़े अभिशाप- मंगोल आक्रमणों से बचाने का काम किया, जिसने यूरोप को रौंद डाला.
एशियाई स्टेपीज (घास के मैदान) के दूसरे गरीब समूहों की तरह मंगोलों ने पहले भारत पर आक्रमण करने की कोशिश की. 1243 में इनके पहले सैन्य हमले ने दिल्ली सल्तनत को सकते में डाल दिया और आक्रमणकारी लाहौर तक पहुंच गए और वहां आराम फरमाया.
लेकिन यह आखिरी मौका था, जब आक्रमणकारी भारत के मैदान में कदम रख पाए. भारत के शासक बलवन ने भारत में पहली बार एक स्थायी सेना का गठन किया, सरहद के साथ-साथ कई किले बनवाए और बाद के सभी आक्रमणरियों को गंगा के मैदान में भीतर तक दाखिल होने से रोक दिया.
उसकी मृत्यु के बाद अलाउद्दीन खिलजी ने उन्हें लगातार दो बार 1304 और 1305 में हराया. इतनी करारी शिकस्त झेलने के बाद वे यूरोप की तरफ मुड़ गए और फिर कभी नहीं लौटे. इस बात से इनकार नहीं है कि मंदिरों का ध्वंस किया गया और मूल्यवान कलाएं, मूर्तियां और वास्तुकला फिर से हासिल न किए जाने के हद तक खो गई, लेकिन आक्रमणकारियों का मकसद लूटपाट था, न कि इस्लाम में धर्मांतरण.
अगले 400 सालों में होनेवाले सभी धर्मांतरणों में कुछ को छोड़कर बाकी सभी स्वैच्छिक थे. धर्मांतरण करानेवाले लोग निचली जातियों के थे. उन्होंने धर्मांतरण इसलिए किया, क्योंकि इस्लाम जाति की असमानताओं से बच निकलने का रास्ता देता था- काफी हद तक उसी तरह से जिस तरह से बौद्ध धर्म ने दो हजार साल पहले किया था और दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन मुस्लिमों के आने से काफी पहले से कर रहा था.
आक्रमणकारियों पर कोई धब्बा होने की जगह, धर्मांतरण वास्तव में ब्राह्मणवादी और मंदिर केंद्रित हिंदू धर्म के खिलाफ एक विद्रोह था, जिससे उन्हें योजनाबद्ध तरीके से बाहर रखा गया था.
हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच मेलजोल
उत्तर भारत में, इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच आपसी टकराव दोनों के लिए महत्वपूर्ण तरीके से लाभकारी साबित हुआ, जिसे संघ परिवार याद नहीं रखना चाहता.
हिंदू धर्म में इसने मंदिरों को संरक्षण के एकमात्र सबसे बड़े स्रोत को बंद कर देने से धर्म और राजसत्ता के बीच का संबंध कमजोर हुआ. सरकारी संरक्षण में कमी आने से पहले पीठों और मठों में भरे रहनेवाले ब्राह्मण गांवों में रहने पर मजबूर हुए और वहां रहकर उन्होंने गांववालों की आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा करने का काम किया.
पहले जहां मंदिरों के विस्तृत कर्मकांडों का नेतृत्व करते थे, वहीं अब वे अब गांववालों की रोजाना के मसलों में मार्गदर्शन करने लगे. इसलिए हिंदू धर्म में अनुष्ठानों का महत्व कम हुआ और धर्म का महत्व बढ़ गया.
भक्ति आंदोलन उत्तर भारत तक फैल गया और सूफी इस्लाम की चुनौती का सामना तुलसीदास, सूरदास, कबीर, रहीम, मीराबाई, तुकाराम, चोखामेला और कई कम ज्ञात कवियों, भाटों और गवैयों के साहित्य, कविता और गानों के जरिए धर्म के मूलतत्व का प्रसार करके किया.
दोनों के बीच संपर्क ने हिंदू धर्म को पहुंच के ज्यादा भीतर बनाया और इस्लाम को उस बिंदु तक नरम बनाने का काम किया, जहां धार्मिक ग्रंथ के अलावा दोनों को एक-दूसरे से बांटनेवाली चीज काफी कम रह गई. बचपन में कबीर का यह दोहा मैंने पढ़ा था और मेरी जानकारी में कोई भी और दोहा इस बात को इतने अच्छे तरीके से बयां नहीं करता :
मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में;
न मैं मंदिर, न मैं मस्जिद, क काबा, कैलाश में.
हिंदू धर्म और सूफी इस्लाम में यह गहरा मेलजोल संभवतः सबसे अच्छी तरह से गुरुनानक और सिख धर्म के दूसरे गुरुओं के लेखन में दिखाई देता है. और यह गांवों तक ही सीमित नहीं था. इसका संहिताकरण अकबर जैसे महान व्यक्ति और उनके सलाहकारों ने मुगल साम्राज्य की बुलंदियों पर पर दीन-ए-इलाही, खुदा/ईश्वर का धर्म के तौर पर इबादतखाने में किया.
कुछ अंग्रेजी इतिहासकारों ने इसकी व्याख्या वैश्विक सहिष्णुता पर आधारित एक नए धर्म की तलाश की कोशिश के तौर पर की है. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका इसे धर्म मानने से इनकार करता है, जिसके कभी भी 19 से ज्यादा अनुयायी नहीं थे. लेकिन वास्तविकता यह है कि अकबर का ऐसा कोई इरादा भी नहीं था.
दीन-ए-इलाही, कॉरपोरेट जगत के शब्दों में कहें तो भारत की विविधता भरी जनसंख्या के ‘वर्तमान सर्वश्रेष्ठ व्यवहारों’ का निचोड़ था. इसने सुलह-ए-कुल (विश्व शांति) का संदेश दिया और राज्य के दस गुण माने. इनमें शामिल थेः उदारता या पक्षपातहीनता और परोपकार की भावना, बुरे कामों से परहेज, क्रोध का जवाब कोमलता से; सांसारिक इच्छाओं का त्याग, अपने कर्मों के नतीजों को लेकर सतत चिंतन और ‘भाइयों के साथ अच्छा संबंध ताकि उनकी इच्छा को अपनी इच्छा के ऊपर तरजीह दी जा सके’, संक्षेप में कहें तो अपने से ज्यादा अपने भाइयों का सोचना.
अशोक के उलट अकबर ने आदेशपत्र या फरमान जारी नहीं किए. न ही उसने मजहब का पालन किया जा रहा है या नहीं, यह देखने के लिए किसी धार्मिक दस्ते का गठन किया. दीन-ए-इलाही का महत्व उस चीज में है, जिसका संदेश इसने नहीं दिया.
इसने इस्लाम की प्रमुखता या श्रेष्ठता की बात नहीं की, न ही इसने राज्य की संरचना में मुस्लिम धर्मगुरु को कोई खास स्थान दिया, इसकी जगह इसने यह जोर देकर कहा कि कि – ‘वह (सम्राट, यानी राज्य) [मजहबों] के बीच कोई भेदभाव नहीं करेगा, उसका मकसद सभी लोगों को शांति के साझे डोर में बांधना है.’’ इस तरह से देखें तो यह पूरा दस्तावेज ही धर्म का ही अपने समय के हिसाब से नयी प्रस्तुति था.
हिंदू मत में ‘धर्म’
हिंदू मत में ‘धर्म’ के अभ्यास को जाति से जुड़ी आनुष्ठानिक पवित्रता और अशुद्धता की भावना की मान्यता ने आज तक ग्रस्त रखा है. लेकिन इसका केंद्रीय विचार कि सच्चा मजहब वह नहीं है, जिसका हम उपदेश देते हैं, बल्कि वह है जो हम जीवन में उतारते हैं, बुद्ध से लेकर आज तक हुए और हो रहे धार्मिक आंदोलनों की जड़ में रहा है.
इसी विचार से स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो की धर्म संसद में यह कह कर सबको अपना मुरीद बना लिया था कि हिंदू धर्म दुनिया के सभी महान धर्मों को सिर्फ सहता मात्र नहीं है, बल्कि स्वीकार करता है, क्योंकि वे सब एक ही पर्वत तक जाने के अलग-अलग रास्ते की तरह या एक ही सागर में जाकर मिल जानेवाली अलग-अलग नदियों की तरह हैं.
पाकिस्तान में इसी नजरिये ने दाराशिकोह- शाहजहां का सबसे बड़े बेटे और उनके उत्तराधिकारी माने जानेवाले, संस्कृत के विद्वान और भागवद गीता के अनुवादक, जो दीन-ए-इलाही की स्थापना करना चाहते थे, लेकिन जिसे औरंगजेब ने मौत की नींद सुला दिया- के लेखन पर लगातार अध्ययन हो रहे हैं.
2010 में प्रसिद्ध नाटककार शाहिद नदीम ने दारा नामक एक नाटक लिखा, जिसमें बंटवारे के बाद पाकिस्तान पर बरपने वाली अनियंत्रित इस्लामी सांप्रदायिकता, जो उस समय भी उसे दोफाड़ कर रही थी, के प्रतिरोध के तौर पर उनके समन्यवाद को उभारा गया था.
तीन साल बाद जीसी यूनिवर्सिटी, फैसलाबाद के तीन पाकिस्तानी इतिहासकारों ने इंटरनेशनल जर्नल ऑफ हिस्ट्री एंड रिसर्च में ‘दारा शिकोह : मिस्टिकल एंड फिलॉसफिकल डिस्कोर्स’ शीर्षक से एक पर्चा प्रकाशित कराया, जिसमें इस विचार को रेखांकित किया गया था कि ‘हिंदू धर्म और इस्लाम की रहस्यवादी परंपराएं एक ही सत्य की बात करती हैं.’
13वीं शताब्दी के फ्रांस में रोमन कैथोलिकवाद ने काथर्स को कोई जगह नहीं दी गई और उन्हें मिटा दिया गया. सीरिया में बशर असाद के धर्मनिरपेक्ष शासन पर हमले से दो साल पहले से वहाबी और सलाफी मुल्लों का निरंतर विरोध प्रदर्शन कचल रहा था.
पाकिस्तान में सलाफी कट्टरपंथ उस बंटवारे से पहले के समन्वयवाद की हत्या करने के काफी करीब पहुंच चुका है. लेकिन भारत में वही समन्वयवाद आज भी सांसे ले रहा है. यही वह चीज है, जिसने भारतीय मुसलमानों को इस्लामिक स्टेट इन सीरिया एंड इराक (आईएसआईएस) के आकर्षण से मुक्त रखा.
आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं: 27,000 से 31,000 यूरोपियों की तुलना में सिर्फ 106 भारतीय मुस्लिम इसमें शामिल हुए. इनमें से सिर्फ तीन सीधे भारत से गए. बाकियों को तब शामिल किया गया, जब वे खाड़ी में प्रवासी मजदूरों के तौर पर काम कर रहे थे. धर्म के इसी आश्चर्य में डाल देनेवाला समन्वयवाद को हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के पैरोकार नष्ट कर देने पर आमादा हैं.
(प्रेमशंकर झा वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.