स्थानीय सीपीआई नेता को पुलिस ने 15 दिन तक कोर्ट में पेश नहीं किया, पत्नी ने हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका लगाई तो पुलिस याचिका वापस लेने का दबाव बना रही है.
छत्तीसगढ़ पुलिस पर आरोप लगा है कि उसने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बस्तर की ज़िला समिति के सदस्य व चिंतागुफा के भूतपूर्व सरपंच पोडियम पंडा को क़रीब 15 दिनों से ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से अपनी हिरासत में रखा हुआ है. बस्तर की सुकमा पुलिस ने पोडियम पंडा को 3 मई को पकड़ा था.
हालांकि, पुलिस के मुताबिक, पांडा ने 7 मई को पुलिस के सामने सरेंडर किया. मीडिया में भी यही ख़बरें छपीं कि ‘सुकमा हमले में शामिल पोडियम पंडा ने पुलिस के सामने सरेंडर कर दिया है. पांडा की पत्नी पोडियम मुइए वर्तमान में चिंतागुफा की सरपंच हैं.
पुलिस का आरोप है कि पंडा नक्सली हिंसा की 19 घटनाओं में शामिल रहे हैं. इनमें से सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का 2012 में नक्सलियों द्वारा अपहरण, 2010 में नक्सली हमले में 76 जवानों की हत्या और हाल ही में जवानों पर सुकमा में हुए नक्सली हमले में 25 जवानों की मौत की घटनाएं शामिल हैं.
पोडियम पंडा आदिवासियों के गांव जलाने और आदिवासी महिलाओं की प्रताड़ना और बलात्कार से संबंधित कई मामलों को मानवाधिकार आयोग और कोर्ट तक ले जाने का काम भी कर चुके हैं.
बस्तर संयुक्त संघर्ष समिति, छत्तीसगढ़ की ओर से जारी एक प्रेस रिलीज में कहा गया है कि ‘बस्तर की सुकमा पुलिस ने 3 मई, 2017 से पोडियम पंडा को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से अपनी हिरासत में रखा है.
उनके परिवार के लोगों को न ही इस बारे में कोई सूचना दी गई, न ही उनसे मिलने दिया गया. परिवार के लगातार ढूंढने के बाद जब लगभग दस दिनों तक पंडा की कोई जानकारी नहीं मिली, तब पंडा की पत्नी ने 13 मई को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाख़िल की. इसके बाद से पुलिस याचिकाकर्ता पर केस वापस लेने का दबाव बना रही है.’
पंडा के परिवार को दावा है कि पांडा 3 मई को मछली मारने मिनपा गए थे, वहीं उन्हें सुरक्षाबलों ने पकड़ लिया. पंडा की पत्नी पोडियम मुइए को गांव वालों ने बताया कि पकड़ने के बाद उनकी बुरी तरह पिटाई की गई और उन्हें हेलीकॉप्टर से कहीं ले गए.
दूसरे दिन अखबारों में ख़बर छपी कि एक बड़े नक्सली लीडर को गिरफ़्तार किया गया है. उस पर 100 से ज़्यादा केस दर्ज हैं. हालांकि, मीडिया से डीआइजी सुंदराजन ने कहा की उसे अभी गिरफ़्तार नहीं किया गया है.
प्रेस रिलीज में कहा गया है, ‘पंडा के दो भाइयों को पुलिस की मौजूदगी में पंडा से अलग-अलग समय पर मिलवाया गया. उनके भाइयों का कहना है कि उनके पैर में गंभीर चोट है. उनकी एड़ी में सूजन है और चोट के कारण काली पड़ गई है, जिससे वह सही से चल नहीं पा रहे हैं.’
आरोप है कि ‘याचिका दाखिल होने के अगले दिन पंडा के भाई कोमल जैसे ही बिलासपुर से सुकमा पहुंचे, पुलिस ने उनको भी ग़ैरक़ानूनी ढंग से उठा लिया और एसपी आॅफिस ले गई. उनके साथ मारपीट भी की गई. कुछ देर पंडा को भी वहीं लाया गया.
फिर दो पुलिसकर्मी जाकर कोमल के घर से उनका फोन लेकर आए. उस समय पंडा के परिजन विलासपुर में थे. पुलिस ने दबाव बनाकर घरवालों से कहलवाया कि पंडा और कोमल दोनों घर पर हैं, तुम सब विलासपुर से वापस आ जाओ. कोई केस नहीं करना है.’
प्रेस रिलीज में आरोप लगाया गया है कि ‘देर रात कोमल को छोड़ने से पहले पुलिस ने उससे कई काग़ज़ों पर हस्ताक्षर भी करवाया और उन काग़ज़ों में क्या लिखा था यह पढ़ने नहीं दिया.’ कोमल ने यह सारी बातें अपने वकील से बताईं, जिसे याचिका के साथ जोड़ दिया गया है. चिंतागुफा की सरपंच व पंडा की पत्नी मुइए पर पुलिस लगातार केस वापस लेने का दबाव बना रही है.
आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनीष कुंजाम का कहना है कि पोडियम पंडा पर लगाए जा रहे सभी आरोप निराधार हैं व उसका नक्सलियों से कोई लेना देना नहीं है.
पोडियम पंडा सुकमा में काफ़ी लोकप्रिय हैं और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं. वे 15 साल तक सरपंच रह चुके हैं. उनकी पत्नी पोडियम मुइए भी पिछले 7 साल से सरपंच हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि पंडा पुलिस और प्रशासन को लगातार सहयोग देते रहे हैं. इनके संबंध पूर्व ग्रहमंत्री ननकी राम कंवर से भी रहे हैं.
कलेक्टर एलेक्स मेनन का 2012 में नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था. इस घटना के बाद पूरे देश में हड़कंप मच गया था. उस समय पोडियम पंडा ने ही मेनन को छुड़ाने में मदद की थी. उन्हीं की मदद से नक्सलियों से बातचीत संभव हो पाई थी. पंडा के कई बड़े नेताओं से संपर्क हैं. वे सीआरपीएफ कैंप निर्माण, स्कूल निर्माण, राशन बंटवाने, स्वास्थ्य सेवाओं में प्रशासन की मदद करते रहे हैं.
उनकी गिरफ़्तारी के बाद मीडिया में छपी ख़बरों में कहा गया कि ‘पंडा नक्सलियों और नेता, मानवाधिकार आयोग व व्यापारियों के बीच अहम कड़ी की भूमिका निभाते रहे हैं.’
प्रेस रिलीज में कहा गया है कि ‘जब 2005 में सात सिपाहियों का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था, तब पंडा ख़ुद से ही पुलिसकर्मियों को नक्सलियों से छुड़ाकर लाए थे. 2010 में सीपीआई के लोगों को पुलिस गिरफ़्तार करने लगी तो पुलिस ने पंडा से फ़रार हो जाने को कहा था. जिसके बाद पंडा घर छोड़कर दूसरी जगह रहने लगे थे.
2011 में ताड़मेटला में आग लगाने की घटना हुई तब भी पंडा ने सीबीआई से लेकर मीडिया तक को सूचित किया और गांव वालों की मदद की. इन घटनाओं से साबित होता है कि पंडा की हर तरफ स्वीकार्यता है.’
2016 में पंडा, उनकी पत्नी मुइए और उनके भाई कोमल को नक्सली उठाकर जन अदालत में ले गए और उनके साथ मारपीट की थी. इसके अलावा पुलिस ने भी पंडा की पत्नी मुइए की पिटाई की थी. इस तरह पुलिस और नक्सली, दोनों की तरफ से पंडा और उनके परिवार को परेशान किया जाता रहा है. यह परिवार दोनों तरफ से लगातार प्रताड़ित किया गया है.
संयुक्त बस्तर संघर्ष समिति ने अपने बयान में कहा कि ‘पंडा के परिवार की मांग है कि याचिका दाख़िल किए एक हफ़्ता हो गया है. लेेकिन अभी तक पंडा को उनके परिवार से मिलने नहीं दिया गया है. सबसे पहले परिवार व उनकी पत्नी मुइए को पंडा से मिलने दिया जाए.
पुलिस का कहना है कि पंडा स्वतंत्र है, तो ऐसे में पंडा को अविलंब रिहा भी किया जाए. परिवार की उक्त मांगों को संयुक्त बस्तर संघर्ष समिति, छत्तीसगढ़ पूरा समर्थन देती है.’
समिति ने सवाल उठाया है कि माननीय हाईकोर्ट ने भी प्रशासन से पूछा है कि पुलिस ने किस क़ानून के तहत पंडा को इतने दिनों तक अपनी गिरफ़्त में रखा है. इससे साफ़ पता चलता है कि आत्मसमर्पण नीतियों का दुरुपयोग करते हुए फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण कराया जा रहा है.
अतः बस्तर संयुक्त संघर्ष समिति ने आरोप लगाया है कि छत्तीसगढ़ राज्य सरकार की नक्सलियों के आत्मसमर्पण की नीतियों का दुरुपयोग किया जा रहा है. अब तक मात्र 3 प्रतिशत ही सही आत्मसमर्पण हुए हैं.
पुलिस ज़्यादातर फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण की कहानी गढ़ती है. सरकार को इसके लिए कड़े कदम उठाने चाहिए, जिससे फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण के मामलों पर पर रोक लगे. समिति की मांग है कि फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण कराने वाले अधिकारियों पर कड़ी कार्यवाई की जानी चाहिए.
बस्तर संयुक्त संघर्ष समिति, छत्तीसगढ़ की ओर से जो प्रेस रिलीज जारी की गई है, उसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सीआर बक्शी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संजय पराते, आम आदमी पार्टी के संकेत ठाकुर, मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के डॉ. लाखन सिंह, पोडियम मुइए और पोडियम कोमल सिंह के नाम हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने फेसबुक पर लिखी एक लंबी पोस्ट में दावा किया है कि ‘पोडियम पंडा को मैं तब से जानता हूं जब हम लोग छत्तीसगढ़ में रहते थे. सुकमा जिले में जिन गावों को पुलिस ने जला दिया था हम लोग उन बर्बाद हो चुके गावों को दुबारा बसा रहे थे, हमारे इस काम में संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ भी साथ में काम करती थी. हम लोगों की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम को जांच करने छत्तीसगढ़ भेजा था, उस समय पंडा भी अपने इलाक़े से आदिवासियों को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने आए थे, उससे पुलिस पंडा से चिढ़ गई और एक दिन उन्हें बाज़ार से उठाकर नदी किनारे ले गई. पुलिस उनका एनकाउंटर करना चाहती थी. लेकिन गांव वालों ने यह बात सीपीआई के नेता मनीष कुंजाम को बताई. कुंजाम के एसपी को फोन करने के बाद तुरंत पुलिस की दूसरी टीम गई और पंडा को छुड़ाकर लाई.’
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छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक काम करने वाले हिमांशु कुमार का आरोप है कि पंडा मीडिया और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सूचना देते थे इससे पुलिस उनसे बुरी तरह चिढ़ चुकी थी. उनपर पुलिस ने फ़र्ज़ी मामले बनाने शुरू कर दिए और कुल मिलाकर उनके ख़िलाफ़ 123 केस दर्ज किए. पुलिस ने उनको पकड़ा तो उनको अदालत में पेश करके मुक़दमा चलाना चाहिए था लेकिन पुलिस उनको थाने में बंद करके पीट रही है. कोर्ट में पुलिस ने झूठ बोला है कि पंडा ने आत्मसमर्पण किया है और अपनी मर्ज़ी से थाने में रह रहे हैं. यह बहुत ख़तरनाक है. यह तो संविधान पर पुलिस का हमला है.
डीयू की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर अपने एक लेख में लिखती हैं, ‘एक समय था, जब 2006-07 के पहले सलवा जुडूम ने इस इलाक़े को तहस-नहस कर दिया था. आज वहां पर रोड हैं, तीन साप्ताहिक बाज़ार हैं, स्कूल हैं, राशन बंटने की दुकानें हैं, स्वास्थय केंद्र हैं, और इसका श्रेय निश्चित तौर पर पूर्व सरपंच पोडियम पंडा को जाता है.’
प्रो. सुंदर के मुताबिक, ‘यहां तक कि वहां पर सीआरपीएफ कैंप की मौजूदगी भी पंडा की मदद से बना. उन्होंने सीआरपीएफ के लिए हेलीपैड बनवाने में मदद की. जवानों का राशन पहुंचने में देर हुई तो उन्होंने अपने स्टॉक से जवानों के लिए राशन मुहैया कराया. माओवादियों ने एक बार सात जवानों का अपहरण कर लिया तो उन्होंने ख़ुद को ख़तरे में डालकर सारी रात माओवादियों से वार्ता की और अंतत: जवानों को छुड़ाया. उन्होंने सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन को माओवादियों से छुड़ाने में मदद की. मैं पंडा को 15 साल से जानती हूं और जैसा कि मैंने अपनी किताब ‘द बर्निंग फॉरेस्ट’ में लिखा है कि पंडा ऐसे व्यक्ति हैं कि उनको जो जानता है, वही उनकी इज़्ज़त करता है, चाहे माओवादी हों, पुलिस हो या ग्रामीण हों.’