मिया कविता, मिया समुदाय की अस्मिता की लड़ाई है, अपनी भाषा-संस्कृति, अपनी पहचान की लड़ाई है. वे अपनी कविताओं के माध्यम से इस भूखंड पर अपनी पहचान, अपने अस्तित्व और अपने हक़ की मांग कर रहे हैं.
किसी भी समाज, संस्कृति और स्थानीयता की पहचान उसकी मातृभाषा से होती है. किसी बात को हम अपनी मातृभाषा में जिस तरह से व्यक्त कर सकते हैं उसे उसी रूप में किसी अन्य भाषा में व्यक्त करना मुश्किल होता है, साथ ही अन्य भाषा में व्यक्त करने पर उसमें वह भाव नहीं, जो स्थानीय भाषा या मातृभाषा के माध्यम से प्रकट किया जा सकता है.
जिस तरह हमारा देश विविधताओं से भरा है, यहां सबकी अपनी-अपनी भाषिक-संस्कृति, खान-पान और अपनी वेशभूषा है. हम सभी अपनी संवेदनाओं, दुख-दर्द और खुशियों को सबसे पहले अपनी मातृभाषा में सहज रूप से प्रकट करते हैं.
वास्तव में तो सभी समुदायों को अपनी भावनाओं को अपनी भाषा में अभिव्यक्त करने का अधिकार है. कोई भी समाज साहित्य विहीन नहीं होता है या तो वो लिखित रूप में मौजूद होता है या मौखिक रूप में.
पिछले कुछ समय से असम के ‘मिया’ (बंगाली मुस्लिम) लोगों द्वारा लिखी गयी ‘मिया कविता’ को लेकर विवाद चल रहा है, कोई इसके विषय-वस्तु पर तो कोई इसकी भाषा पर आरोप लगा रहा है. कुछ लोग इस भाषा को ही कृत्रिम भाषा घोषित कर रहे हैं.
इसलिए सबसे पहले तो यह जानने की आवश्यकता है कि- मिया कौन लोग हैं, वह किस भाषा में और क्यों लिख रहे हैं? मिया कविता की यह नयी लहर जो शुरू हुई वह कुछ ही समय में कैसे लोकप्रिय बन गई, इसके पीछे क्या कारण हैं?
मिया, वे लोग हैं जो 1971 से पहले या कह सकते हैं कि पूर्वी पाकिस्तान के एक नए अलग राष्ट्र (बांग्लादेश) बनने से पहले वहां से आकर असम में बस गए थे. इनमें ज्यादातर लोग बंगाली मुस्लिम या बंगाली हिंदू थे, उसके बाद वे यहां स्थानीय रूप से निवास करने लगे. इनमें से अधिकांश लोग मैमनसिंह या सिलहट से आये हुए थे.
असम में अब तक इनकी दो-तीन पीढ़ियों के असमिया और बाकी समुदाय के साथ रहने के चलते इनके बीच एक मिली-जुली संस्कृति का विकास हो गया है और इनकी भाषा ने भी एक मिला-जुला रूप ले लिया.
निचले असम (लोअर असम) में ब्रह्मपुत्र के सारे छोटे-मोटे द्वीपों के साथ-साथ नदी किनारे के इलाकों में ये भाषा प्रचलित है, यह उनकी ज़बानी भाषा है, उनकी मातृभाषा हैं, लेकिन उनकी लिखाई-पढ़ाई और काम-काज की भाषा असमिया ही है.
इन्होंने असमिया संस्कृति के साथ-साथ असमिया भाषा को सहज रूप में अपनाया है और साथ ही अपनी मातृभाषा को भी ज़िन्दा रखा है. यहां पर हमें एक बात सोचने की ज़रूरत है कि बांग्लादेश के गठन होने से पूर्व ही ये भारत आ गए थे, फिर भी उन्हें बांग्लादेशी ही कहा और समझा जाता है.
यह एक तरह का अंधापन है, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक उन्माद है जिसे भिन्न-भिन्न राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का लाभ लेने के लिए जान बूझकर फैलाया जाता रहा है, भारतीय होने के बावजूद उन्हें ‘बांग्लादेशी’ कहकर चिढ़ाया जाता है, उनकी राष्ट्रीयता और देशभक्ति को शक की निगाहों से देखा जाता है जो इनके लिए बेहद अपमानजनक और पीड़ादायक होता है.
मिया कविता इसी परायेपन का एहसास कराए जाने के प्रतिरोध में लिखी गई कविताएं हैं, जो उसे अपने भारतीय होने और उसे गर्व के साथ अभिव्यक्त करने का आंदोलन है, मैं इसे एक नयी आंदोलित कविता की शुरुआत कहना चाहूंगी.
अब चलिए देखते हैं कि इन कविताओं में ऐसा क्या लिखा गया है… मिया कविता की शुरुआत करीबन 2 साल पहले हो चुकी है.
यह शुरुआत असम के प्रसिद्ध साहित्यकार हफीज़ अहमद की कविता ‘लिखो, लिखो कि मैं मिया हूं’ से मानी जाती है, जिसे साल 2016 में लिखा गया था. इस कविता का शीर्षक और शिल्प महमूद दरवेश की कविता ‘लिखो, लिखो कि मैं अरब हूं’ से लिया गया है.
उसके बाद कई सारे कवियों द्वारा मिया कविता लिखी गई, जो अपनी मिया पहचान को साथ लेकर चलती रही. ये कविता मिया, असमिया, अंग्रेजी, हिंदी सभी भाषाओं में लिखी जाने लगीं, लेकिन लेखकों का जोर इन कविताओं को मिया भाषा ही में लिखने पर है.
इन कविताओं में मिया समुदाय के संघर्षशील इतिहास, कठिन वर्तमान के साथ-साथ एक अच्छे भविष्य की उम्मीद भी देखने को मिलती है. हफीज़ अहमद अपनी कविता ‘लिखो, लिखो कि मैं मिया हूं’ में लिखते हैं-
‘लिखो,
लिखो कि मैं मिया हूं
मेरा सीरियल नंबर हैं एनआरसी 20543
मेरे दो बच्चे हैं
और एक होने वाला है
अगली गर्मियों में
क्या तुम उसे भी नफरत करोगे
जैसे तुम मुझसे नफरत करते हो.’
एनआरसी के मुद्दे ने पूरे असम को झिंझोड़कर रखा हुआ है. पूरे असमवासियों को अपने भारतीय होने का प्रमाण देना पड़ रहा है, जिससे लोग निराश और हताश हैं. एनआरसी का उद्देश्य विदेशी लोगों की शिनाख्त करना है.
ऐसा मानना है कि 1971 के बाद भी बांग्लादेश से लोगों का पलायन भारत की सीमा में होता रहा, जो अवैध रूप से यहां आकर बस गए हैं. इस वजह से पहले से यहां रह रहे लाखों लोगों को परेशानी झेलनी पड़ रही है. और इस बात के लेकर खासकर बंगाली मुस्लिम को आए दिन ‘टारगेट’ किया जाता है.
इस मानसिक प्रताड़ना के चलते वहां रह रहे कई लोग आत्महत्या भी कर चुके हैं. लोग अपना रोज़गार छोड़, दिन-रात कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं, डिटेंशन सेंटर में लोगों को बंदी बनाकर रखा जा रहा हैं.
इससे ज्यादा दुख की बात और क्या हो सकती है कि इस देश का नागरिक होने के बावजूद उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है. काज़ी नील अपनी कविता में इस गुस्से को जाहिर करते हुए लिखते हैं-
‘एक डी वोटर का बेटा
ज्यादा से ज्यादा एक कविता लिख सकता है
या फिर दुख दर्द में कह सकता है-
यह देश मेरा है, मैं इस देश का नहीं’
रेहाना सुल्ताना अपना हक मांगती हुई अपनी कविता में कहती हैं- मेरे पिता, दादा, परदादा की तरह मैं भी इस देश में पैदा हुई फिर ये देश मुझे क्यों नहीं अपनाता?
वे असम को मां संबोधित करते, अपने समुदाय की ओर इशारा करते हुए कहती है कि मैं लुंगी पहनता हूं, मैंने दाढ़ी बढ़ा ली, तो क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं रहा? अपनी अलग भाषा- संस्कृति और पहनावे के कारण होने वाले भेदभाव पर वे लिखती हैं-
‘हां, मुझे तुम्हारी गोद में डाला गया एक अभिशप्त मिया की तरह
मेरी मां तुम मुझ पर विश्वास नहीं करतीं
क्योंकि किसी तरह मैंने ये दाढ़ी बढ़ा ली है
मैं थक गया हूं
थक गया हूं, अपना परिचय देते-देते’
नेली नरसंहार असम के इतिहास का एक दर्दनाक हादसा है, जब हजारों बंगाली मुसलमान को बांग्लादेशी घुसपैठिया कहकर उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी थी. इस घटना को वे चाहकर भी नहीं भूल सकते, जब भी वे उस दिन को याद करते हैं, उनकी रूह कांप उठती है. अब्दुल कलाम आज़ाद 1983 की 18 फरवरी को याद करते हुए लिखते हैं-
‘अमावस्या के अंधेरे में मैंने देखा
मेरे कैलेंडर के सारे दिन खून से लथपथ हैं
मन को समझाया मैंने-
ज़िंदगी भर तो देखा तूने खून
फिर क्यों डरता है?’
लंबे समय से एक जगह पर रहने के बाद, उस जगह की नागरिकता हासिल करने के बाद, उस जगह को अपना देश, अपनी मातृभूमि मान लेने के बाद जब उनकी नागरिकता पर सवाल उठाया जाएं, तो इस तरह के स्वर सामने आना लाज़मी है.
कुछ लोग इस स्वर से आशंकित हैं मगर इन काव्यात्मक प्रतिवादों से किसी भी लोकतांत्रिक समाज को परेशान होने की ज़रूरत नहीं हैं बल्कि उनके साथ खड़े होकर उनको ये आश्वासन देने की ज़रूरत है कि ये देश उतना ही उनका है, जितना बाकियों का है.
ये कविता किसी जाति, भाषा के खिलाफ नहीं बल्कि अपने साथ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ हैं. इसके अलावा भी कई सारे मुद्दों पर मिया कविताएं लिखी गयी हैं जैसे- स्त्री शिक्षा, स्त्री अधिकार, बाढ़ पीड़ित लोगों की ज़िंदगी, प्रेम कविता, प्राकृतिक सौंदर्य आदि.
काज़ी नील देहात के अनपढ़ लोगों की प्रगतिशील सोच को दिखाते हैं कि वे मार्क्सवादी सिद्धांत नहीं जानते लेकिन ये समझते हैं कि ये सिद्धांत समानता की बात करता है, शोषण के खिलाफ लड़ता है. अपनी एक कविता ‘कॉमरेड’ में वे लिखते हैं-
‘हुसैन मिया को नहीं पता किसे कहते हैं क्रांति,
कौन हैं मार्क्स,
किसकी बात करते हैं लेनिन
किस देश के हैं हो-चि-मिन्ह
द्वंदात्मक भौतिकवाद खाते है या सिर पे लगाते हैं, उसे नहीं पता
हुसैन मिया सिर्फ जानते थे लाल पार्टी गरीबों की पार्टी है’
मैं यह बात जोर देकर कहना चाहूंगी कि मिया कविता, मिया समुदाय की अस्मिता की लड़ाई है, अपनी भाषा-संस्कृति, अपनी पहचान की लड़ाई है. वे अपनी कविताओं के माध्यम से इस भूखंड पर अपनी पहचान, अपने अस्तित्व, अपने हक और अधिकार की मांग कर रहे हैं.
असम के बाकी समुदायों की तरह मिया समुदाय भी अपनी अस्मिता की तलाश के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जब आपकी पहचान किसी के लिए गाली हो, जब आपकी वैध उपस्थिति किसी को भाती न हो, जब आपको अपने होने के सबूत देने हों और ऐसी स्थिति में आप बेबस और लाचार हों, तो कलम उठाने से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता है.
हमें कहनी है अपनी कहानी, चाहे कोई सुने या न सुने. हां हम हैं मिया, रहे हैं इसी मिट्टी में, जिये हैं इस मिट्टी में और जायेंगे भी इसी मिट्टी में. अंत में असम के पत्रकार और समाज सेवक पराग कुमार दास की एक पंक्ति ध्यान देने योग्य है, जो इसी विचार की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है-
‘अगर किसी ने सोचा है कि
बंदूक या शारीरिक अत्याचार के डर से
हम कलम छोड़ देंगे
तो वह मूर्खों के स्वर्ग में निवास कर रहे हैं.’
(वहीदा परवेज़ जामिया मिलिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं.)