कुत्तों की मौत और घायल इंसानियत

उत्तराखंड के देहरादून में एक सैन्य अधिकारी पर तीन कुत्तों को जान से मारने और दो अन्य को गंभीर रूप से घायल करने का आरोप है

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उत्तराखंड के देहरादून में एक सैन्य अधिकारी पर तीन कुत्तों को जान से मारने और दो अन्य को गंभीर रूप से घायल करने का आरोप है.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

खबर है कि 11 मई को देहरादून की गढ़ी सैन्य छावनी में सेना के एक मेजर मनीष थापा रात को सैर पर निकले तो उन्होंने देखा कि एक लेफ्टिनेंट कर्नल सड़क के कुत्तों को कुछ खिला-पिला रहा है. उन्हें इस पर गुस्सा आया. जाहिर है कि उन्हें आवारा कहे जाने वाले सड़क के कुत्तों को इस तरह बढ़ावा देना ठीक नहीं लगा.

उस सैन्य अधिकारी से उनकी थोड़ी सी झड़प भी शायद हुई. कनिष्ठ अधिकारी ने सैन्य अनुशासन का पालन करते हुए अपने वरिष्ठ के सामने थोड़ी देर बाद चुप रहना बेहतर समझा होगा या उनकी बेहद गुस्सेभरी मुद्रा को भांपकर वह आगे बढ़ गया होगा.

इसके बाद जो हुआ बताते हैं, उससे लगता है कि जैसे मेजर साहब के सिर पर सड़क के कुत्त्तों के खिलाफ खून सवार हो गया था. वे इन्हें मारने दौड़े. मेजर थापा पता नहीं कहां से लोहे की छड़ ले आए और उन्होंने कथित रूप से तीन कुत्तों को तो उसी समय मार डाला और बाकी दो कुत्तों को बुरी तरह घायल कर दिया.

उनके गुस्से का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कुत्ते जैसे चपल जानवर को- एक नहीं तीन कुत्तों को- मारने में ‘सफलता’ हासिल की. एक को अधमरा कर दिया और दूसरे को बुरी तरह घायल कर दिया.

जाहिर है कि उन्होंने जब कुत्तों को मारने की कोशिश की होगी तो कुत्ते भी कोई गाय या बकरी तो होते नहीं कि उन्होंने जान बचाने के क्रम में मेजर साहब पर हमला करने की कोशिश नहीं की होगी. फिर भी उन्होंने छड़ से कैसे इतने कुत्तों पर वार किया होगा?

बाद में संभवतः उन्हें समझ में आया कि उन्होंने यह क्या कर डाला है. इस कारण वह फंस सकते हैं.

रिपोर्ट है कि रातोंरात उन तीन कुत्तों की लाशें कहीं ठिकाने लगा दी. बाकी दो घायल कुत्तों को वहीं तड़पते हुए पड़ा रहने दिया. इस दृश्य को जाहिर है कि आसपास के कई लोगों ने देखा मगर वे इस क्रूरता के विरुद्ध चुप रहे.

अगले दिन सुबह खबर पाकर एक जीव रक्षा संगठन की पूजा बहुखंडी वहां पहुंचीं तो इनमें से एक कुत्ता उन्हें बेहोश हालत में मिला और दूसरा घायल था. वे इन्हें इलाज के लिए अपने साथ ले गईं.

एक रिपोर्ट के अनुसार पूजा बहुखंडी ने मेजर थापा से इस बारे में बात भी की. थापा साहब को ऐसा कुछ करने का कोई अफसोस नहीं था. उन्होंने यह सब आत्मरक्षा में किया,ऐसा बताया.

बताते हैं कि वे अपने पालतू कुत्ते या कुत्तों को लेकर जब बाहर निकला करते थे तो ये सड़क के कुत्ते उनके कुत्ते (या कुत्तों) पर भौंकने लगते थे. बहरहाल देहरादून में यह बात फैलने और मामला बढ़ने पर थापा साहब के छुट्टी पर जाने की खबर है.

इस मामले में सेना तथा पुलिस दोनों ने जांच शुरू कर दी है. दो हजार से ज्यादा लोगों ने मेजर थापा पर कार्रवाई की मांग फेसबुक के जरिये की है.

वह भी सैन्य अधिकारी ही था, जो इन कुत्तों की परवाह कर रहा था और वह भी सैन्य अधिकारी था, जिसने यह देखकर अपना गुस्सा उन पांच कुत्तों पर निकाला. जो भयानक गुस्से में उबल रहा था, वह भी वरिष्ठ अधिकारी था और जो इन कुत्तों से प्रेम जतला रहा था, वह भी अधिकारी था मगर कनिष्ठ था.

एक तरह से दोनों सैन्य अधिकारी सड़क के कुत्तों के बारे में प्रचलित दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. ये दोनों दृष्टियां इस समय सक्रिय हैं बल्कि समाज में, राजनीति में आजकल जो हो रहा है, उसके असर से दूसरी दृष्टि पहली पर लगातार हावी होती जा रही है.

पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक याचिका दायर करते हुए मुंबई नगर निगम ने कहा था कि विगत बीस सालों में इतने लोग कुत्तों के काटने से मरे हैं, जितने कि 1993 के विस्फोटों और 2008 के आतंकी हमले में भी नहीं मरे हैं.

इस नजरिये की हास्यास्पदता जगजाहिर है. क्या इसका अर्थ यह निकलता है कि आतंकवाद से बड़ी प्राथमिकता कुत्तों का सफाया करना होनी चाहिए? दूसरी तरह के तमाम आंकड़े पेश करके यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि एक करोड़ तीस लाख की आबादी के शहर में इतना लंबी अवधि में महज 434 लोगों का मरना कोई बड़ी समस्या नहीं है.

दरअसल यह वही दृष्टि है, जो देहरादून की तरह के जघन्य कामों को अंजाम देने में सहायक बनती है. केरल में भी सड़क के कुत्तों के विरुद्ध लगभग वैसा ही जुनून पाया जाता है, जैसा आजकल गायों को लेकर खासतौर पर उत्तर भारत मे पैदा कर दिया गया है.

कई तरह के कथित स्वयंसेवक समूह वहां बन चुके हैं, जो वहां रियायती दामों पर एयरगन बांट रहे थे, सड़क के कुत्तों को मारने के लिए पुरस्कृत करने तक को प्रोत्साहित कर रहे थे.

सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल जनवरी में कई याचिकाओं पर विचार किया,जिनमें कुछ तो इन कुत्तों के पूर्ण सफाये करने की मांग को लेकर थी, हालांकि उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि सड़क के कुत्तों को भी जीने का हक है.

यह एक आम दृश्य है कि सड़क के कुत्ते किसी अजनबी कुत्ते को देखकर भौंकने लगते हैं. उन्हें शायद यह डर सताता है कि अगर कोई और कुत्ता यहां आकर जम गया तो उन्हें यहां मिल रहे खाने पीने की चीजों में वह हिस्सा बंटायेगा, जिस कारण उनका अंश घट जाएगा, जो वैसे भी अक्सर उनके लिए पर्याप्त नहीं होता.

पालतू कुत्तों को देखकर भी उनमें यही प्रतिक्रिया होती है क्योंकि वे क्या जानें कि ये पालतू हैं. उनके खाने की तरफ देखेंगे भी नहीं और देखेंगे तो उनका मालिक उन्हें खाने नहीं देगा.

लेकिन यह भी देखा गया है कि अगर कोई व्यक्ति अपने पालतू कुत्ते को लेकर रोज एक ही जगह आता है तो सड़क के कुत्ते भी इतने समझदार होते हैं कि धीरे-धीरे उसकी ओर से उदासीन हो जाते हैं, भौंकना बंद कर देते है कि यह तो अपने मालिक के साथ वापिस चला जायेगा. पालतू कुत्ते भी इनके भौंकने के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि वे भी इनकी परवाह नहीं करते.

ऐसा अनुभव मेजर साहब का क्यों नहीं रहा तो इसका कारण शायद यह हो कि संभवतः वह अपने विदेशी (देशी नस्ल का कुत्ता शायद ही उन जैसा वरिष्ठ सैन्य अधिकारी पालता होगा) कुत्ते के प्रति जरूरत से ज्यादा सतर्क रहते होंगे और सड़क के कुत्तों को जरूरत से ज्यादा आक्रामक ढंग से डराते होंगे या उनका कुत्ता भी उतना ही आक्रामक होगा,जिसकी प्रतिक्रिया में ये भी सामूहिक रूप से भौंकते कार्रवाई करते होंगे.

जब अनुमान ही लगा रहे हैं तो यह भी हो सकता है कि मेजर साहब किसी और निराशा-हताशा-असफलता के शिकार हों और उसने आक्रामकता की यह शक्ल ले ली हो.

यह भी असंभव नहीं है कि उन्हें दूसरे तमाम ताकतवरों की तरह सड़क के कुत्तों से बेइंतहा नफरत रही हो, जिसने अपने ही एक कनिष्ठ के लाड़ दुलार दिखाने के कारण बेहद हिंसक रूप ले लिया हो.

ऊपर से सभ्य-सुस्कृत लगने वाले वर्ग के कुछ लोगों के अंदर हिंसा का लावा लगातार बहता रहता है, जो अपने से कमजोर और जिन्हें वे हीन समझते हैं, वे पशु हों या इनसान उनके विरुद्ध अचानक कभी भी फूट पड़ सकता है, फिर वे अपनी सारी संभ्रातता का आवरण फाड़कर एकदम नंगेपन पर उतर आते हैं और अपने काम का हिंसक भाषा में बचाव भी करते हैं, जिसके समर्थक उसी वर्ग में बहुत से मिल जाते हैं.

वैसे हिंदी में गरीब वर्गों के लिए एक गाली भी प्रचलित है- सड़क का कुत्ता.

Stray dogs play on a deserted street during a strike in Srinagar July 29, 2010. Shops, businesses, offices and schools remained closed and traffic remained skeletal on the roads for 30th day on Thursday to protest the deaths of 17 people blamed on Indian security forces during weeks of violent anti-India demonstrations in Indian Kashmir. REUTERS/Fayaz Kabli (INDIAN-ADMINISTERD KASHMIR - Tags: CIVIL UNREST POLITICS ANIMALS IMAGES OF THE DAY) - RTR2GU4M
(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

आंकड़े यह बताते हैं कि इस कारण हर साल भारत में करीब बीस हजार लोग रैबीज से मर जाते हैं. दुनिया में रैबीज से मरने वालों की तादाद भारत में सबसे ज्यादा है. लेकिन यह खतरा अकेले कुत्तों से ही नहीं होता, हालांकि सबसे अधिक उनसे होता है.

यह खतरा वैसे सड़क के कुत्तों से ही नहीं होता, पालतू कुत्तों से भी हो सकता है, अगर उन्हें समय-समय पर रैबीज के टीके न लगवाए जाएं.

जाहिर है कि कुत्ते खुद इस मामले में कुछ कर नहीं सकते, यह जिम्मेदारी सरकारों और स्थानीय निकायों की है कि उन्हें इस तरह के टीके लगवाये और अगर किसी को कुत्ते ने काटा हो तो उसे आसानी से सस्ते दामों पर ये टीके मिलें.

अगर ये टीके महंगे हैं और स्थानीय निकाय इस कारण इस काम को अंजाम नहीं दे पा रहे हों, तो उन्हें सस्ते टीके उपलब्ध करवाने या उन्हें आर्थिक सहायता देने की जिम्मेदारी सरकारों की है.

अगर इस मामले में संबंद्ध पक्ष लापरवाही दिखाते हैं तो इसके गुनहगार कम से कम कुत्ते तो नहीं ही हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 तक दक्षिण पूर्व एशिया को रैबीज से मुक्त करने का लक्ष्य दिया है, क्या अगले तीन सालों में इसके पूरे होने के आसार हैं?

इस तरफ किसी सरकार का ध्यान है? तो दोषी कौन है? जयपुर में एक समय कुत्तों की आबादी की बढ़त रोकने तथा रैबीजरोधी टीके लगाने का अभियान सफलतापूर्वक चलाया गया, जिसके अच्छे नतीजे सामने आए. सिक्किम भी इस समस्या से करीब करीब मुक्त है.

अनुभव बताता है कि सड़क के कुत्तों का हजारों सालों से इतना समाजीकरण हो चुका है कि वे मनुष्यों के साथ रहना-जीना अच्छी तरह सीख गये हैं और वे इतने दोस्ताना होते हैं कि किसी असाधारण स्थिति में ही उनके काटने का खतरा होता है.

अपने लगभग साढ़े छह दशक के जीवन में सड़कों पर खूब घूमते रहने के अभ्यास के बावजूद एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि सड़क के किसी कुत्ते ने काटा हो.

केरल में भी एक अस्पताल का सर्वे बताता है कि कुत्तों के काटने की तीन चौथाई घटनाओं का संबंध पालतू कुत्तों से होता है, सड़क के कुत्ते इसके लिए एक चौथाई हद तक जिम्मेदार हैं.

2013 में तमिलनाडु के 13 स्कूलों का एक सर्वे भी बताता है कि बच्चों को काटने की आधी से अधिक घटनाओं का संबंध पालतू कुत्तों से है.

जाहिर है कि विदेशी नस्ल के कुत्तों का कई जातियां स्वभाव से अधिक आक्रामक होती हैं और आक्रामकता के लिए उन्हें प्रशिक्षित भी किया जाता है. कुत्तों के पागल होने की बातें भी सुनी जाती हैं तो क्या यह पागलपन आदमियों में पाये जाने वाले पागलपन से अधिक है?

देहरादून के ताजा उदाहरण को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं तो क्या हम कह सकते हैं कि आदमी से ज्यादा हिंसक कुत्ते कभी हो सकते हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)