ख़य्याम ने जितनी फिल्मों के लिए काम किया उससे कहीं ज़्यादा फिल्मों को मना किया. एक-एक गाने के लिए वो अपनी दुनिया में यूं डूबे कि जब ‘रज़िया सुल्तान’ की धुन बनाई तो समकालीन इतिहास में तुर्कों को ढूंढा और और ‘उमराव जान’ के लिए उसकी दुनिया में जाकर अपने साज़ को आवाज़ दी.
बात गीत-संगीत की हो तो मैं कहूंगा; नई दुनिया के हंगामे और बेमतलब के तमाशे हमारी कमाई हैं, इसलिए एकांत की शहनाई भी अक्सर सुनाई नहीं पड़ती. यूं हम अपने समय की आहट और रंज-ओ-ग़म से रिश्ता बहाल नहीं कर पा रहे.
फिर कोई अच्छी सी मौसिक़ी, कोई साज़ या कोई मीठा-सा गीत कहीं नज़र आ भी जाए तो काली धूप से उसे कौन बचाए… ये और बात है कि अतीत की गलियां कदम रोक लेती हैं. जी, उस वक्त के शोर में हंगामा नहीं है. दर्द में शिद्दत बहुत है, लेकिन शाम-ए-ग़म की तन्हाई अपनी सी तहज़ीब के साथ हमें रुलाकर सुला देती है.
शाम-ए-ग़म की ये तहज़ीब खत्म नहीं हुई, शायद इसलिए संगीत-प्रेमियों के पास अब भी पुराने वक्तों की डायरी सलामत है. डायरी के उन्हीं पन्नों में कहीं ख़य्याम जैसे संगीतकार भी हैं, जो एहसास दिलाते हैं कि मियां हर शायरी, शायराना हो ज़रूरी कहां है.
मैं नहीं जानता किसी राग में कितनी रागिनियां होती हैं, लेकिन ख़य्याम जैसों की मौजूदगी में यक़ीन हो जाता है कि आज की मौसिक़ी नज़रें ज़्यादा चुराती है बातें कम करती है. हां, जब ख़य्याम थे उनका संगीत था, साज़ था, वो नहीं हैं तब भी उनकी मौसिक़ी है… लेकिन अब उनके होने का एहसास ज़्यादा हो चला है.
खुदा जाने हम कहां आ बसे हैं, अपनी दुनिया से ऐसे आजिज़ और बेज़ार कि उनकी रागिनी में हंसना-रोना सब हो जाता है.
इन सबके बीच हैरान हूं कि एक ऐसे दौर में जब अनिल बिस्वास को ‘किंग ऑफ मेलोडी’ कहा गया हो, ‘आठवां सुर’ वाले नौशाद साहब की तूती बोलती हो और एक से बढ़कर एक संगीत रचने वाले मौजूद हों, उस ज़माने में कुछ सोचकर ही फ़ैज़ साहब ने ख़य्याम को ‘पोएट ऑफ मेलोडी’ कहा होगा.
मैं फ़ैज़ के कहे पर सिर धुनता हूं तो साहिर का कहा सामने आ जाता है, जिन्होंने अपनी नज़्म ‘फ़नकार’ की कम्पोज़िशन सुनकर कहा था, ‘बहुत लोगों ने इस नज़्म को गाया, धुनें बनाईं लेकिन आपको सुनकर लगा जैसे ये नज़्म लिखी भी आपने है.’
और फिर ऐसे ख़ुश हुए कि दोहराने लगे, ‘ये नज़्म साहिर ने नहीं लिखी ख़य्याम ने लिखी है, ख़य्याम ने लिखी है…’ ये भी ख़ूब है कि जब हर तरफ़ सिर्फ नौशाद साहब थे, उस वक्त चंदूलाल शाह जैसे फिल्मसाज़ ख़य्याम को ही अपना नौशाद कहने लगे थे.
ख़य्याम की इस पहचान से इतर उनके जीवन में झांकें तो हमारी मुलाक़ात एक ऐसे लड़के से होती है जिसके दादा मस्जिद के इमाम हैं और अब्बा मुअज़्ज़िन. पंजाब के इस मज़हबी घराने में सिर्फ तालीम को अहमियत हासिल है, घर में किताबों का ऐसा ज़ख़ीरा है कि लोग नायाब किताबों के लिए उधर का रुख़ ज़रूर करते हैं.
दालान में साहित्य और शायरी का चर्चा है और 5 वीं जमात के छात्र मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी के सामने अल्लामा इक़बाल जैसे शायर की किताबें; बाल-ए-जिब्रील और बांग-ए-दरां की व्याख्या ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ अपनी बग़ावत को जोश देने के संदर्भ में की जा रही है.
ये लड़का अपनी हैरानी में इक़बाल के पन्ने पलट कर सोच रहा है; ये लोग क्या बातें करते हैं, आख़िर इन किताबों में ऐसा क्या है. फिर बड़े भाई की हौसला-अफज़ाई में ख़य्याम, इक़बाल की शायरी को अपनी स्मृति से बांध लेते हैं. यूं कि उनको आगे चलकर इसको साकार भी करना था, ख़ास तौर से ये दो शेर कि:
ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
जिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही
§
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
वहीं दूसरी तरफ़ अब्बा हैं, जो भगत सिंह की शहादत का किस्सा सुना रहे हैं और इन सबके बीच सहगल, मलिका पुखराज और बेगम अख़्तर के रिकॉर्ड सुने जा रहे हैं, लेकिन ख़य्याम की नज़रें कुछ और ढूंढ रही हैं.
दरअसल, ख़य्याम पढ़ने-लिखने से हद दर्जा बेज़ार हैं और सिनेमा का शौक़ ऐसा कि छुप-छुपाकर फिल्में देख रहे हैं. नौबत ये कि पैसे नहीं हैं तो सिनेमाघर के दरवाज़े की दरारों में आंख लगा कर खड़े हैं. और जब इसमें भी नाकाम हुए तो कान लगाकर कल्पना कर रहे हैं कि पर्दे पर क्या हो रहा होगा.
एक मज़हबी घराने में बचपन से ही आवाज़ों के पीछे भागने वाले ख़य्याम को उनके जुर्म की सज़ा सुनाई गई और घर के दरवाज़े बंद कर दिए गए.
अब फिल्मों के आशिक़ ख़य्याम हैं और पीछे बंद दरवाज़ा. मगर उनकी दस्तक किसी और दरवाज़े पर थी, जिसकी थाप पर जिंदगी को रक्स करना था. सो वे केएल सहगल बनने की धुन में मौसिक़ी की तालीम लेने चल पड़े.
यहां ये याद रखना भी ज़रूरी है कि आगे चलकर मज़हबी उलझनों से आज़ाद ख़य्याम ने जहां अपने वक्त की मशहूर गायिका जगजीत कौर से शादी की, वहीं अपने बेटे प्रदीप को हिंदू धर्म अपनाने की आज़ादी भी दी.
पांच बरस दिल्ली में महान संगीतकारों हुस्न लाल-भगत राम की शागिर्दी और चंद महीने पंजाबी फिल्मों के मशहूर संगीतकार बाबा चिश्ती (ग़ुलाम अहमद चिश्ती) से लाहौर में संगीत की बारीकियों से वाक़िफ़ होने के बाद मायानगरी की ओर रुख किया- वो शहर जहां धक्के हैं, नाउम्मीदी और इनकार है, लेकिन नौजवान की ज़िद अपनी जगह क़ायम है.
किस्सा मुख़्तसर ये कि मुल्क की आज़ादी वाले साल और विभाजन की त्रासदी में करिअर की शुरुआत होती है. उस्ताद दूरअंदेशी से काम लेकर उनको शर्माजी का नाम देते हैं और ख़य्याम अपने दूसरे साथी रहमान के साथ शर्माजी-वर्माजी के रूप में 5 साल तक संगीत रचते हैं.
उस वक्त मुल्क के हालात ऐसे हैं कि उस्ताद उनको ये कहना नहीं भूलते कि अगर कोई तुम्हारे बारे में पूछे तो ये बताओ कि हम हुस्न लाल-भगत राम के बेटे हैं और उन्हीं के शिष्य हैं…
उसी ज़माने में ख़य्याम नर्गिस आर्ट की फिल्म रोमियो-जूलियट के लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का कलाम ‘दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के’ ज़ोहरा बाई अंबालेवाली के साथ इस अंदाज़ से गाते हैं कि अपने ज़माने की मशहूर फ़नकारा और नर्गिस की मां जद्दनबाई ख़य्याम को बुलाकर उनसे ग़ज़लें सुनती हैं और हौसला बढ़ाती हैं.
इस तरह ख़य्याम पहली बार पार्श्वगायक के तौर पर सामने आते हैं. पार्श्वगायक के छोटे से करिअर के साथ ही संगीतकार ख़य्याम की अनंत यात्रा उन्हीं दिनों शुरू होती है. ‘ शाम-ए-ग़म की क़सम’ और ‘वो सुबह कभी तो आएगी…’ इसी दौर के यादगार नगमे हैं.
इस तरह फिल्म हीर-रांझा से शुरू करें तो बीवी, फुटपाथ, फिर सुबह होगी, लाला-रुख़, शोला और शबनम, शगुन, आख़िरी ख़त, कभी-कभी, नूरी, बाज़ार, रज़िया सुल्तान, अंजुमन, उमराव जान जैसी फिल्मों की यादगार धुनें उनके नाम पर दर्ज हैं.
उन गानों को दर्ज करने की कोशिश करें तो, फिर छिड़ी रात, न जाने क्या हुआ, दिखाई दिए यूं, बहारों मेरा जीवन संवारो, कब याद में तेरा साथ नहीं, कभी कभी मेरे दिल में, आप यूं फ़ासलों से गुज़रते, देख लो आज हमको, ये क्या जगह है दोस्तो, हज़ार राहें मुड़ के, प्यार का दर्द है, करोगे याद तो, हरियाली बन्ना आया रे, ऐ दिल-ए-नादां, इन आंखों की मस्ती के, मेरे घर आई एक नन्ही परी…एक ऐसी लिस्ट बनती चली जाएगी जिस पर ख़य्याम के अनमोल दस्तख़त हैं.
ख़य्याम ने संगीत की इस यात्रा में देश भर के गीत-संगीत से ख़ूब फायदा उठाया, तो अरब देश और पश्चिमी दुनिया के संगीत से भी अनजान नहीं रहे. दरअसल अपना साज़ दुरुस्त करने से पहले वो संदर्भ के लिए जहां भूगोल को समझते वहीं इतिहास का पन्ना भी ज़रूर पलटते थे.
शायद यही वजह है कि अपनी कला को लेकर ख़य्याम ने बड़े दावे किए कि उनकी धुनों को गानों से अलग रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता, वो गानों का अभिन्न अंग हैं और उनमें कहानी का मुकम्मल किरदार है.
यूं ख़य्याम उन संगीतकारों में रहे जो मानते हैं कि गीत पहले लिखें जाएं धुन बाद में तैयार हो. यहां इन बातों को मिला कर सोचें तो हम आज की मौसिक़ी में वीरानी का नज़ारा कर सकते हैं. इसी बात को कैफ़ी आज़मी ने यूं कहा था-‘अजीब चलन है कि पहले क़ब्र खोद ली जाती है फिर नाप का कफ़न तलाश किया जाता है.’ गीतों की मिठास शायद इसी चलन में कहीं गुम गई.
ख़ैर ख़य्याम तकनीकी दुनिया के संगीतकार नहीं थे. उनका नज़रिया ज़रा मौलिक था, इसलिए नया भी था. शायद इसलिए वो धुन बनाने के क्रम में गाने वालों के बारे में नहीं सोचते थे; फलां साहब किस सुर पर गाते हैं, उनके लिहाज़ से मौसिक़ी कैसी होगी, ये उनके लिए बेकार के सवाल थे.
वो उस कहानी और किरदार को समझने की ज़्यादा कोशिश करते थे जिस पर गाने को फिल्माया जाना है. इस तरह गायक को ख़य्याम के सुरों में गाना पड़ता था. गोया मोहम्मद रफ़ी हों, किशोर कुमार या आशा भोंसले सबको उनके कम्फर्ट जोन से बाहर निकाल कर गाना रिकॉर्ड करने वाले जुनून का नाम ही ख़य्याम है.
उमराव जान की रिकॉर्डिंग के दौरान तो आशा भोंसले अपनी ही आवाज़ सुनकर हैरान रह गई थीं. और शायद ये ख़य्याम ही कर सकते थे कि 1948 से साथ काम करने के बावजूद उन्होंने कहानी और किरदार को अहमियत दी और आशा को उनके सुर से डेढ़ सुर नीचे गाने को मजबूर कर दिया.
इस मामले में ख़य्याम ज़िद्दी थे, हालांकि अपने ज़माने के तमाम गाने वालों और शायरों के चहेते थे, लेकिन बात फ़न की हो तो वो लेखक और निर्माता की बात भी काट देते थे. इसकी एक मिसाल अपने समय की मशहूर कथाकार इस्मत चुग़ताई और उनके पति शाहिद लतीफ़ की फिल्म लाला-रुख़ है, इस फिल्म के सारे गाने कैफ़ी आज़मी ने लिखे थे.
तो किस्सा ये है कि कैफ़ी का कलाम सुनकर इस्मत आपा बोलीं, ‘कैफ़ी हम फिल्म आम लोगों के लिए बना रहे हैं और तुमने किताबी शायरी की है, कुछ और लिखो जो ख़ास-ओ-आम के मुंह पर आए.’
कैफ़ी चुप, सब चुप, तब ख़य्याम ने कहा आपा कलाम तो अच्छा है, आप मुझे धुन बनाने दीजिए. इस्मत बोलीं नहीं ख़य्याम हमें भूखों नहीं मरना, रहने दो. लेकिन ख़य्याम भी कहां मानने वाले थे, एक मासूम-सी ज़िद के बाद उन्होंने ऐसी धुन बनाई कि सब निहाल हो गए.
असल में ख़य्याम शायरी के लिए वैसी ही आज़ादी चाहते थे जैसी अपनी धुन के लिए. शायद वो किसी फिल्म के लिए भी कला को ‘निर्देश’ मिलते नहीं देख सकते थे. यूं वो बाज़ार में थे लेकिन बाज़ारी नहीं थे.
ख़ैर उस वक्त उनकी धुनों को सुनकर साहिर और जां निसार अख़्तर ने भी दाद दी थी और इस्मत की इसी महफ़िल में पहली बार साहिर और ख़य्याम की बाक़ायदा मुलाक़ात हुई, जहां ख़य्याम ने साहिर को बताया कि उन्होंने उनकी किताब ‘तल्ख़ियां’ की धुन भी बनाई है… पूरी किताब की.
इस पर साहिर हैरान हुए, बोले जी…? ख़य्याम ने कहा जी. फिर उनकी नज़्म ‘फ़नकार’ वाला किस्सा पेश आया, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है. साहिर ने ख़य्याम से इसी महफ़िल में कहा था कि हम जल्द ही इकट्ठे काम करेंगे. फिर ख़य्याम और साहिर ने जो किया वो गुज़रे वक्त की बात नहीं बल्कि हमारे कानों अपनी गवाही है.
अब ये ख़य्याम की ज़िद थी या अपनी शर्तों पर काम करने की धुन, जो चाहे कह लें. इश्क़ तो वही है जो लगाए न लगे और बुझाए न बने. ख़य्याम के इस इश्क़ में फिल्म ‘आख़िरी ख़त’ भी शामिल है.
राजेश खन्ना अभिनीत इस फिल्म को देव आनंद के बड़े भाई चेतन आनंद ने बनाया था. ये ऐसी फिल्म थी जिसमें डायलॉग्स से ज़्यादा ख़ामोशी थी और बैकग्राउंड म्यूज़िक ख़य्याम को देना था. हालांकि ये उनके लिए बहुत मुश्किल इसलिए नहीं था कि वो कहानी को अपनी धुनों में बहाल करने के लिए ही जाने जाते थे.
मगर चेतन आनंद डरे हुए थे बोले, ‘ख़य्याम साहब बैकग्राउंड म्यूज़िक हॉलीवुड से ज़रा भी कम हुआ तो फिल्म नहीं चलेगी. इसमें इतना साइलेंस है कि आपको पूरी कहानी बैकग्राउंड म्यूज़िक के ज़रिए सुनानी है. फिर ख़य्याम ने साइलेंस को ऐसी ज़बान दी कि ख़ामोशी को परिभाषित ही कर दिया.
ख़य्याम ने सिर्फ इस नज़रिये से काम किया कि मुझे स्तरीय काम ही करना है. असल में वो सिर्फ कहानी या अच्छी शायरी के क़ायल नहीं थे, सही मानों में वो मक़सद वाली शायरी, उसकी मौसिकियत और फिल्मों में निहित अर्थों के संगीतकार थे. उनको अपनी कला पर भरोसा था इसलिए वो ये बात बहुत खुलकर कहते रहे कि मेरी धुनों पर किसी की परछाईं नहीं है.
लोक-धुनों को अलग करके उनका दावा रहा कि उन पर इल्ज़ाम नहीं धरा जा सकता और ये नहीं कहा जा सकता कि ख़य्याम ने यहां वहां से धुनें उठाई हैं. बड़ी बात ये है कि ख़य्याम वेस्टर्न म्यूज़िक को भी अच्छा मानते थे और उससे रोशनी हासिल करने को ऐब नहीं समझते थे.
ख़य्याम ने हमेशा अपनी धुनों से सबको हैरान किया। फिल्म ‘फुटपाथ’ जिसमें पहली बार ज़िया सरहदी के कहने पर उन्होंने अपना स्क्रीन नेम ख़य्याम रखा था, उसकी धुन सुनकर म्यूज़िक इंडस्ट्री ने भी माना कि ऐसा म्यूज़िक पहले कभी नहीं आया, ये संगीत की दुनिया में इंक़लाब है.
ख़य्याम मानते रहे कि फिल्मों में कहानी के लिए संगीत बनाया जाए और उसका ट्रीटमेंट भी कहानी की तरह ही हो. शायद इसलिए आज के गानों से उनको ये शिकायत रही कि अब पर्दे पर अचानक ही कोई गाना आ जाता है जिसका फिल्म से कोई रिश्ता नहीं होता.
बात शायद वही है कि संगीत उनके लिए बाज़ार की चीज़ नहीं थी, इसलिए जितना काम किया उससे कहीं ज़्यादा फिल्मों को मना कर दिया. एक-एक गाने के लिए वो अपनी दुनिया में डूबे, यूं कि जब ‘रज़िया सुल्तान’ और ‘उमराव जान’ की धुन बनाई तो समकालीन इतिहास में तुर्कों को ढूंढा, उमराव की दुनिया में गए फिर अपने साज़ को आवाज़ दी.
कहते हैं ‘पाकीज़ा’ की मौजूदगी में उमराव जान का संगीत देना ख़य्याम के लिए आसान नहीं था. वो ये सोचकर डर गए थे कि पहले ही इसमें अवध के संगीत को निचोड़ लिया गया है, दोनों के विषय एक जैसे हैं.
ख़य्याम उपन्यास भी पढ़ चुके थे और ये जानते थे कि वहां संगीत के लिए संदर्भ नहीं है. लेकिन ख़य्याम ने एक बार फिर इतिहास के पन्नों में पनाह ली और ये कल्पना करने में कामयाब हुए कि उमराव की मौसिक़ी कैसी होगी, गायकी का अंदाज़ क्या होगा और अलाप कैसा होगा.
आशा जो वेस्टर्न बीट के लिए मशहूर रहीं, उनसे कैसे गवाया जाएगा. इन बातों को ध्यान में रख कर उन्होंने वो किया जो शायद कोई और नहीं कर पाता. तभी शायद रज़िया सुल्तान के समय ‘ऐ दिल-ए-नादां…’ का रिकॉर्ड सुनने के लिए अमिताभ बच्चन इतने बेचैन हुए कि रात के दो बजे जया बच्चन को ख़य्याम के दरवाज़े पर दस्तक देनी पड़ी.
इस तरह की उपलब्धियों के बीच ही यश चोपड़ा और साहिर की शायराना फिल्म ‘कभी-कभी’ सामने से ख़य्याम को मिली और इस फिल्म ने पहली बार ख़य्याम को जुबली, गोल्डन जुबली और डायमंड जुबली वाला संगीतकार बना दिया.
कहते हैं बदले हुए ज़माने के संगीत की शुरुआत इसी फिल्म से हुई थी. इस तरह 14 सालों तक हाईएस्ट-पेड संगीतकार रहे ख़य्याम ने फिल्में कम कीं और जब भी उनको पसंद की फिल्में नहीं मिलीं वो नॉन-फिल्मी एलबम को अपनी मौसिक़ी से सजाने में मसरूफ़ हो गए.
फिल्मों के अलावा भी उनके यहां नज़्मों, ग़ज़लों, भजन और नात का दिलकश सिलसिला नज़र आता है. ये भी मात्र संयोग नहीं कि ख़य्याम ने गीतकारों से ज़्यादा शायरों के कलाम को अपनी धुनों से सजाया. यूं कहिए कि ख़य्याम ने अक्सर उस शायरी को ज़बान दी जो गाए जाने के लिए लिखी नहीं गई.
नॉन फिल्मी एलबम की बात करें तो मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी का एलबम भी उनमें से एक है. इस एलबम में जहां मीना कुमारी का कलाम था, वहीं उनकी अपनी आवाज़ ने दिल की वीरानियों को बड़ी ख़ूबी से पेश किया.
इस तरह ख़य्याम के कामों पर निगाह कीजिए तो ग़ालिब, दाग़, मजरूह, वली, नक्श लायलपुरी, निदा फ़ाज़ली, बशर नवाज़, मीर, क़ुली क़ुतुब शाह, शहरयार, मिर्ज़ा शौक़ और मख़दूम आदि के कलाम उनकी धुनों की वजह से ही आम लोगों की ज़बान पर आ सके.
ख़य्याम साहित्य की गोद में पले, साफ़-सुथरी उर्दू बोलते थे. खुद को उर्दू वाला कहते रहे और कई बार ये कहा कि इंडस्ट्री में उनकी इज्ज़त इसलिए भी थी कि वो उर्दू के साथ हिंदी भी जानते हैं और ज़बान की नज़ाकत से वाक़िफ हैं.
शायद इसलिए साहित्य के इस प्रेमी ने उर्दू की ऐसी मसनवी (नज़्म की एक विधा) जो अक्सर अकादमिक चर्चा में ही जगह पाती रही उसको भी अपनी कम्पोज़िशन से अवाम तक पहुंचा दिया.
बात हो रही है मिर्ज़ा शौक़ की मसनवी ज़हर-ए-इश्क़ की जिसे एक बार पारसी थियेटर कंपनी ने स्टेज पर पेश किया, तो एक लड़की ने आत्महत्या कर ली और कई प्रेमी जोड़ों ने जान देने की कोशिश की. बाद में सरकार ने इस किताब को बैन कर दिया. सालों बाद जुलाई 1919 में पाबंदी हटाई गई.
इसी किताब से संदर्भ लेकर उन्होंने फिल्म बाज़ार में ‘देख लो आज हमको…’ जैसे कलाम को ऐसा लिरिकल बना दिया कि इसकी मौसिक़ी आंसुओं का पर्यायवाची बन गई. यही ख़य्याम की पहचान थी.
यूं समय और इतिहास की यात्रा में अपनी धुनें तलाश करने वाले ख़य्याम ने 2016 तक फिल्म के लिए काम किया. लेकिन इस यात्रा की अनंत सीमाओं को लाघंने के बाद भी वो शायद नई दुनिया की इंडस्ट्री में जगह नहीं बना सके और न ही किसी ऐसे संगीतकार की सरपरस्ती कर सके जो शब्दों के लिए मौसिक़ी बनता हो.