पहले भी सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या की जाती थी. इनकी हत्या में सत्ताधारी सांसद और पुलिस अधिकारी भी शामिल होते थे. लेकिन पहले यह सब चुपचाप होता था. अब नया राजनीतिक माहौल ऐसा है कि अपराधी अपनी मंशाएं खुलेआम ज़ाहिर कर सकते हैं.
अभी भाजपा के सांसद परेश रावल ने कहा है कि अरुंधति राय को सेना की जीप के सामने बांध कर पत्थरबाज़ी करने वाले लोगों के सामने कर देना चाहिए.
इससे पहले गाड़ियां बेचने वाले एक शो रूम के उद्घाटन में छत्तीसगढ़ में सुकमा के पुलिस अधीक्षक ने भाषण देते हुए कहा था कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गाड़ियों के नीचे कुचल देना चाहिए.
इससे पहले सोनी सोरी की प्रताड़ना करने वाले पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार दिया गया था. और लेधा नामक आदिवासी महिला के साथ बलात्कार के आरोपी पुलिस अधिकारी कल्लूरी को भी राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार दिया गया था.
यह नए विकास की चकाचौंध के लिए ज़रूरी एक नए तरह का राजनैतिक माहौल है. क्योंकि यह विकास मानवाधिकारों को कुचले बिना किया ही नहीं जा सकता है.
पहले भी सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या की जाती थी.
सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या में सत्ताधारी सांसद और पुलिस अधिकारी भी शामिल होते थे.
लेकिन पहले यह सब चुपचाप होता था.
अब नया राजनैतिक माहौल ऐसा है कि अपराधी अपनी मंशाएं खुलेआम ज़ाहिर कर सकते हैं. अपराधियों को अब सत्ता का अभयदान है कि आप हमारी नीतियों का विरोध करने वालों को चाहे जिस तरह से खामोश कर सकते हैं. क्योंकि जनता ने हमें इन्हीं नीतियों के लिए समर्थन दिया है.
इसे ही लोकतंत्र माना जा रहा है. सत्ता का विरोध देशद्रोह घोषित किया जा चुका है.
सबसे भयानक बात यह है कि न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग, चुनाव आयोग और अन्य संस्थाएं जो सत्ता के निरंकुश होने पर रोक लगाने के लिए बनाई गई हैं वे इस नई सत्ता के सामने आत्मसमर्पण कर चुकी हैं.
लेकिन यह सिर्फ भारत की समस्या नहीं है. अमेरिका समेत विश्व के कई देश इस तरह के माहौल में जी रहे हैं.
असल में समाजवाद के समय पूंजीवाद एक चोर की तरह शर्माते हुए काम करता था. लेकिन समाजवाद के पतन के बाद पूंजीवाद ने घोषणा करी कि उसके अलावा अब समाज के पास कोई विकल्प ही नहीं है. इसलिए अब पूंजीवादी विकास के लिए नई सत्ताएं बेशर्मी के साथ अपने आलोचकों पर टूट पड़ी हैं.
सत्ताओं को लग रहा है कि समाज के पास उनको चुनने के अलावा कोई चारा ही नहीं है. आप भाजपा के ट्रोल की जो आक्रामकता देखते हैं वह असल में इसी विकल्पहीनता के अहंकार से निकली हुई दादागिरी है. लेकिन इस हालत में भी ज़्यादा निराश होने के भी ज़रूरत नहीं है.
इस व्यवस्था के विनाश के बोझ इसी के पेट के भीतर हैं. लोकतांत्रिक सोच के लोगों को वैकल्पिक संसार बनाने के लिए चिंतन और कोशिशें करते रहनी चाहिए.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)