अपराध जितना भी जघन्य हो आरोपी को सज़ा देना क़ानून का काम है न कि समाज और भीड़ का. उसमें चाहे जितना समय लगे या गलतियां भी हों, जनता द्वारा क़ानून हाथ में लेने को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता.
तबरेज़ अंसारी मॉब लिंचिंग मामले में झारखंड पुलिस ने चार्जशीट में सभी 11 आरोपियों पर से हत्या का मामला वापस ले लिया है. पुलिस का कहना है कि इस केस में आरोपियों पर हत्या का मामला नहीं बनता.
पुलिस के मुताबिक क्योंकि घटनास्थल पर मौत नहीं हुई इसलिए इसे हत्या का मामला नहीं माना जा सकता. पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए पुलिस ने दावा किया है कि तबरेज़ की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई है.
ज्ञात हो कि इसी साल जून में झारखंड के सरायकेला खरसावां जिले में चोरी के आरोप में तबरेज़ को बिजली के खंबे से बांधकर बुरी तरह से पीटा था. बताया जाता है कि लोगों ने तबरेज़ को पकड़कर जय श्री राम और जय हनुमान के नारे भी लगवाए थे.
दिलचस्प बात ये है कि घटना के बाद तबरेज़ को चोरी के आरोप में गिररफ्तार कर जेल भेज दिया गया था. घटना के चार दिन बाद हालत बिगड़ने पर जिसे एक स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया जहां उनकी मौत हो गयी थी.
इस बीच राज्य में बच्चा चोरी, गोरक्षा, बलात्कार और दूसरे मामलों के नाम पर हो रहे मॉब लिंचिंग सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है. पिछले सप्ताह बृहस्पतिवार देर रात झारखंड के धनबाद जिले के एक गांव में बच्चा चोरी के शक में ग्रामीणों ने एक अधेड़ की जमकर पिटाई कर दी, जिसकी शुक्रवार को मौत हो गयी.
इससे पहले मंगलवार को झारखंड के ही कोडरमा जिले में छह लोगों पर बच्चा चोर होने के शक में भीड़ ने बुरी तरह हमला किया गया. ठीक उसी दिन राज्य के रामगढ़ जिले से भी मॉब लिंचिंग के घटना की खबर आयी.
झारखंड में पिछले तीन सालों में ऐसी 20 घटनाएं हो चुकी हैं जिसमे दर्जन भर लोगों की जान जा चुकी है. लेकिन ये मामला सिर्फ झारखंड तक सीमित नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान,मध्य प्रदेश और दिल्ली में भी ऐसी घटनाएं होती रही हैं.
दक्षिण भारत भी इस से अछूता नहीं है. तेलंगाना,कर्नाटक और केरल में भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं. ये तब हो रहा है जब कई राज्यों में इसके खिलाफ बाक़ायदा कानून बन चुका है और इस बारे में सुप्रीम कोर्ट भी दखल दे चुका है.
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार क्यों जारी है मॉब लिंचिंग का ये सिलसिला और इसका हल क्या हो सकता है? क्यों कानून कारगर साबित नहीं हो रहा? इसको समझने के लिए हमें इन घटनाओं के पीछे के मनोविज्ञान को समझना होगा.
लिंचिंग में शामिल होने वाला क्या सोचकर इस तरह के अपराध में शामिल होता है? गौर करने पर इसके दो बुनियादी पहलू सामने आते हैं. पहला, न्याय को लेकर हमारी अवधारणा और दूसरा जिन लोगों ने अपराध किया है उनके साथ पुलिस, समाज और न्यायलय का रवैया.
इन घटनाओं के बढ़ती तादाद के पीछे एक बड़ी वजह यह है कि हमारे समाज में कथित त्वरित न्याय को बहुत पसंद किया जाता है. यानी अगर किसी पर सिर्फ ये आरोप है कि उसने बच्चा चोरी किया, बलात्कार किया या गोहत्या की है, तो फिर हम उसको पीट-पीटकर मार देने या अधमरा कर देने को गलत न समझकर अपना परम कर्तव्य समझते हैं. फिर भले ही वो आरोप गलत हो या अफवाह भर हो.
इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसा करना कानूनन अपराध है. इसके पीछे कहीं न कहीं ये सोच भी काम कर रही होती है कि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो ये कथित अपराधी भाग जाएगा या फिर कानून को चकमा देकर छूट जाएगा, जो किसी हद सही भी हो सकता है. लेकिन ऐसा सिर्फ आम लोग नहीं सोचते बल्कि वो भी मानते है जिनके ऊपर कानून का राज स्थापित करने की ज़िम्मेदारी है.
कॉमन कॉज और सीएसडीएस द्वारा प्रकाशित एक हालिया सर्वे के अनुसार 35 प्रतिशत पुलिसकर्मी का मानना है कि गोहत्या के ‘अपराधी’ का भीड़ द्वारा सजा दिया जाना स्वाभाविक है. इसी तरह बलात्कार के मामले में 43 प्रतिशत पुलिसकर्मी भीड़तंत्र के ‘न्याय’ को सही मानते हैं.
जब कानून के रखवाले ही मॉब लिंचिंग की गलत नहीं मानते तो ऐसे में कानून अपना काम कैसे करेगा? यही वजह कि मॉब लिंचिंग के आरोपी या तो बरी हो जाते हैं तो या अगर उनको सजा भी हो गयी तो उसको कोई नेता या तो जमानत दिलवाने पहुंच जाता है या फिर माला पहनाने पहुंच जाता है.
इसका मतलब क़तई ये नहीं है कि जिन पर मॉब लिंचिंग का आरोप है उनका मुकदमा नहीं लड़ा जाना चाहिए, उनको जमानत नहीं मिलनी चाहिए, बल्कि कहने का अर्थ ये है कि जिस तरह से मॉब लिंचिंग के आरोपी को ज़िंदा रहने, ज़मानत पाने और अपना पक्ष रखने का हक है, ठीक उसी तरह से गोहत्या, बलात्कार और बच्चा चोरी के आरोपी को भी इसका हक है और ये हक उसे संविधान देता है.
समाज, पुलिस या किसी अदालत को इसका कोई अधिकार नहीं बनता कि वो आरोपी का पक्ष सुने बिना उसके खिलाफ सजा सुना दे, वो भी एक ऐसी सजा जिसको पलटा नहीं जा सकता. इसीलिए जब तक हम कानून को अपना काम सही से नहीं करने देंगे तब तक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला.
इस संदर्भ में जो बात सबसे पहले समझनी पड़ेगी और जिस पर अमल करना होगा वो ये है कि अपराध जितना भी जघन्य हो आरोपी को सजा देना कानून और अदालत का काम है न कि समाज और भीड़ का. उसमे चाहे जितना समय गए या जिस भी तरह की गलतियां हों. कानून को अपने हाथ में लेना जनता का काम नहीं है.
जब तक इस पर अमल नहीं करेंगे और मॉब लिंचिंग को स्वाभाविक समझते रहेंगे, ये सिलसिला चलता रहेगा. कोई इसे रोक नहीं पायेगा, सरकार चाहे जितना भी सख़्त कानून बना दे.