बीते दिनों नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के पुनर्वास आयुक्त ने पहली बार सार्वजनिक रूप से स्वीकारा कि विस्थापितों और प्रभावितों के आकलन में ‘टोपो शीट’ पर पेंसिल से निशान लगाने की पद्धति का इस्तेमाल किया गया. बोलचाल में नजरिया सर्वे कही जाने वाली इस तरकीब में अंदाज़े से डूबने वाली हर चीज और जीती-जागती इंसानी बसाहटों को चिह्नित कर विस्थापित घोषित कर दिया गया था.
सरदार सरोवर की अवैध बाढ़ में डूबते-उतराते बांध विस्थापितों को अब जाकर पहली बार पता चला है कि दस्तावेजों में दर्ज मध्य प्रदेश के उनके 193 गांवों के अलावा ऐसे कई गांव, फलिया और टापरे होंगे, जो बिना विस्थापन-पुनर्वास-मुआवजे के यूं ही सेंत-मेंत में डूब जाएंगे. यह कारनामा रिकॉर्डों में दर्ज महाराष्ट्र के 33 और गुजरात के 19 प्रभावित गांवों के आसपास के लोगों के साथ भी दोहराया जाएगा.
मेधा पाटकर और उनके साथियों का अनशन समाप्त करवाने निमाड के छोटा बड़दा गांव गए पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद्र बेहार की अगुआई वाले दल की मौजूदगी में ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ (एनवीडीए) के आयुक्त (पुनर्वास) पवन शर्मा ने पहली बार सार्वजनिक रूप से स्वीकारा कि विस्थापित-प्रभावित होने वालों का आकलन करने में ‘टोपो शीट’ पर पेंसिल से निशान लगाने की पद्धति का इस्तेमाल किया गया था.
बोलचाल में नजरिया सर्वे कही जाने वाली इस तरकीब से ही हजारों करोड़ रुपयों के बांध से प्रभावित होने वालों की तकदीर लिखी गई थी. यानी एक-एक टोपो शीट पर अंदाजे से डूबने वाली हर चीज और जीती-जागती इंसानी बसाहटों को चिह्नित कर विस्थापित घोषित कर दिया गया था.
नतीजे में राजनेताओं की जिद में बांध की मौजूदा 135-36 मीटर की प्रभावी ऊंचाई से अधिक भर चुके और लगातार भरते जा रहे बांध में कई गांव और अपने घर-बार, देव-धामी, रिश्ते-नातों समेत उनमें बसे सैकड़ों-हजारों लोग बिना किसी नोटिस, पूर्व-सूचना के पानी में समा जाएंगे.
इनको कानूनी रूप से ‘उनकी पसंद के पुनर्वास’ का कोई हक तो अब नहीं दिया जा सकेगा, लेकिन पवन शर्मा के मुताबिक प्रकरण-दर-प्रकरण उन्हें पुनर्वास के लाभ उपलब्ध करवाए जाएंगे.
सरसरी तौर पर ही देखें तो केवल बड़वानी और धार जिलों की हजारों हेक्टेयर जमीन और करोंदिया, बाजरीखेडा, खापरखेड़ा, गेहलगांव, एक्कलबारा, सेमल्दा, कसरावद, कुंडिया, कालीबेड़ी, एकलरा, सनगांव, देहदला, सेगांवां, जांगरवा, पिछोड़ी, बोरखेड़ी, दतवाड़ा जैसे सैकड़ों ऐसे गांव अब टापू बन गए हैं जिनका एनवीडीए ने आज तक कोई सर्वेक्षण तक नहीं किया है.
डूब से बाहर बताए गए जांगरवा और सोंदूल के 110 परिवार पानी बढ़ने के कारण टापू पर टिके हैं. बाबा आम्टे के ग्यारह साल के निवास की वजह से ख्यात हुए छोटी-कसरावद गांव के टापू बन जाने की तस्वीर तो अखबारों, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया में ‘वायरल’ हो चुकी है. नर्मदा के ठेठ किनारे का यह गांव बांध-प्रभावित नहीं माना गया है. संभवत: नजरिया सर्वे में इस जैसे सभी गांवों की कोई गिनती नहीं की गई.
जाहिर है, इन गांवों को किसी पुनर्वास-पैकेज के बिना ही डूब से निपटना पड़ेगा. नजरिया सर्वे के मारे इन गांवों को पुनर्वास के लाभ दिलाने की एनवीडीए की बात मानी जाए तो विस्थापन-पुनर्वास की यह प्रक्रिया अनंतकाल तक समाप्त नहीं हो सकेगी.
विस्थापितों की गिनती की गफलत का एक नमूना है बैक वाटर से प्रभावित होने वाले परिवारों का. मध्य प्रदेश के परियोजना प्रभावित 15,946 परिवारों को 2008-2010 तक किए गए पुनर्परीक्षण के बाद ‘बैक वाटर’ प्रभावितों की सूची से यह कहकर हटाया गया कि अब वे बांध की पूरी ऊंचाई 138.68 मीटर तक पानी भर जाने के बावजूद प्रभावित नहीं होंगे.
अलबत्ता, उनके मकान सरकार द्वारा अर्जित करके एनवीडीए के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के नाम कर दिए गए थे. इन मकानों पर अब भी शासन का नाम चढ़ा है, लेकिन आज भी उन्हें डूब से बाहर होने की कोई अधिकृत सूचना नहीं दी गई है.
वर्ष 2013 में, जब अपेक्षाकृत हल्का मानसून था, उनके दरवाजे डूब पहुंच चुकी थी, तो इस 2019 के साल में पिछले अनेक सालों की कसर निकाल रहा मानसून उन्हें कैसे छोड़ देगा? विस्थापितों की सूची से बाहर किए गए इन परिवारों में से कईयों को पुनर्वास के लाभ मिले हैं, तो अन्य कई वंचित हैं.
इस समूची गड़बड़ी की क्या वजह होगी? साफ है कि गैरकानूनी ढंग से बैक वाटर के स्तर में बदलाव करके मध्य प्रदेश के परियोजना प्रभावित परिवारों की संख्या इसलिए घटा दी गई ताकि सुप्रीम कोर्ट, ‘नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण’ और सरदार सरोवर की ऊंचाई बढाने वालों को ‘शून्य विस्थापन’ बताया जा सके.
गिनती की गफलत का ऐसा ही एक और हाल का नमूना है- मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव एसआर मोहंती का मई 2019 का वह पत्र जिसमें उन्होंने ‘नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण’ से गुजारिश की है कि राज्य के 76 गांवों में अब भी 6,000 विस्थापित परिवार मौजूद हैं और ऐसे में बांध को पूरा भरना ठीक नहीं होगा.
इसी पत्र में विस्थापितों के 8,300 प्रकरण शिकायत निवारण प्राधिकरण (जीआरए) के पास लंबित होने और 2,952 प्रकरणों में वैकल्पिक जमीन की पात्रता का दावा किया जाने का भी जिक्र है.
हालांकि मोहंती के पत्र में शायद अनजाने में केवल धार जिले के विस्थापितों का जिक्र किया गया है, लेकिन इससे भी यह तो पता चलता ही है कि आज भी विस्थापितों के गांव ‘बे-चिराग’ नहीं हुए हैं.
जाहिर है, डूब क्षेत्र में पानी भरना एक तरह से विस्थापितों की जल-हत्या करना ही है, लेकिन नजरिया सर्वे की चलताऊ पद्धति की बजाए बाकायदा वैज्ञानिक ढंग से ‘डंपी-लेवल’ आदि के जरिए विस्थापित इलाकों को मापा जाता तो इन गंभीर गफलतों से बचा जा सकता था.
ऐसा नहीं है कि नजरिया सर्वे की गफलत का किसी को पता नहीं था, लेकिन तरह-तरह के राजनीतिक, आर्थिक हितों के चलते इसे हमेशा नजरअंदाज किया जाता रहा. पिछले साल ही गुजरात में बांधों के लिए जिम्मेदार सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएल) की औपचारिक वेबसाइट पर जारी डिज़ास्टर मैनेजमेंट प्लॉन-15 में बताया गया था कि असल डूब, आकलन से कहीं अधिक होगी.
जाहिर है, ऐसा इसलिए होगा क्योंकि आकलन में गड़बड़ी की गई है. नर्मदा की मुख्यधारा पर बने पहले रानी अवंतीबाई लोधी सागर यानी बरगी बांध में नजरिया सर्वे की मेहरबानी से पहले तो 101 की बजाय 164 गांव डूबे और फिर विस्थापितों के लिए रचे गए पुनर्वास स्थलों पर नावें चलीं.
इलाके के एक बड़े गांव बीजासेन को उठाकर जहां बसाने के मंसूबे बांधे गए थे, बरसात आने पर उसमें भी नावें चलाई गईं. साफ है, पुनर्वास स्थलों को भी इसी तरह नजरिया सर्वे के जरिये चुना गया था.
लापरवाही और मक्कारी से ताने गए सरदार सरोवर में भी बरगी के अनुभव दोहराए जा रहे हैं. वहां भी बिना किसी सूचना, नोटिस के दर्जनों गांव पानी में समा रहे हैं और उनके लिए खड़े किए गए पुनर्वास-स्थल बाढ़ की चपेट में हैं.
बांध निर्माण की यह लापरवाही विस्थापितों तक ही सीमित नहीं रही है, इसमें उन घोषित उद्देश्यों को भी चूना लगाया गया है जिनके नाम पर बड़े बांधों का परचम लहराया जाता है. सिंचाई, बिजली, बाढ़-नियंत्रण और परिवहन में से ऐसा कुछ भी नहीं हो पा रहा, जिसे बताकर सरदार सरोवर की वैधता साबित की जा सके. इसके बावजूद बांध के भजन गाने वालों के लिए यह अनुभव काबिल-ए-गौर है.
नब्बे के दशक की शुरुआत में पानी की भारी मार के चलते सरदार सरोवर की नाक कहा जाने वाला ‘स्पिल-वे’ टूट गया था और इसे लेकर मीडिया और राजनीतिक गलियारों में बवाल मचा था. तब उस जमाने में एसएसएनएल के मुखिया सनत मेहता ने कहा था कि यह दुर्घटना बांध विरोधियों के कारण हुई है.
वजह पूछने पर उनका जवाब था कि बांध विरोधियों को पछाड़ने की हड़बड़ी में हमें सामान्य से अधिक तेजी से बांध बनाना पड़ रहा है और ऐसे में कुछ खामियां रह ही जाती हैं.
आज भी नंगी आंख से विस्थापितों को गिनने वाले सनत मेहता की तर्ज पर ही सक्रिय हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि आज ऐसे ‘सनत मेहताओं’ के हाथ में सत्ता है.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)