ऐसा लगता है कि भगत सिंह के प्रति श्रद्धा वास्तव में गांधी-नेहरू से घृणा का दूसरा नाम है. जिनके वैचारिक पूर्वज ख़ुद को बचाते हुए अपने अनुयाइयों को भगत सिंह से दूर रहने की सलाह देते हुए दिन गुज़ारते रहे, उन्होंने अपनी कायर हिंसा को उचित ठहराने के लिए आज भगत सिंह को एक ढाल बना लिया है.
भगत सिंह का जन्मदिन फिर आ गया. इस वर्ष या हमारे वक्त में उनके जन्मदिन का क्या महत्व है? कुंवर नारायण पर बोलते हुए प्रताप भानु मेहता ने कहा था,अपने क्षण को संज्ञा देना एक बात है और उसे महत्व प्रदान करना कुछ और बात है!
अपने वक्त को पहचानना और उसकी सही पहचान बता पाना सबके बस की बात नहीं. लेकिन यह सिर्फ शुरुआत है उसे महत्व प्रदान करने की प्रक्रिया की. बल्कि यह भी कहा जा सकता है, यह ज़रूरी आरंभ है.
अगर आप अपने क्षण को ठीक-ठीक नही जानते तो उसमें हस्तक्षेप भी नहीं कर सकते. यह हस्तक्षेप उस क्षण को आपके नाम कर देता है. क्षण में हस्तक्षेप करने की इच्छा सबमें नहीं होती, कुछ में होती है लेकिन उसकी योग्यता से वे वंचित होते हैं. बिरले ही वह काबलियत हासिल कर पाते हैं कि अपने वक्त में दखल दें और उस पर अपनी छाप छोड़ पाएं.
यह बात भी साथ कहना ज़रूरी है कि यह वे सोचते नहीं कि उन्हें अपनी छाप छोड़नी है. वे जो करते हैं उस वजह से ही वह क्षण उनके नाम हो जाता है. भगत सिंह असंदिग्ध रूप से ऐसे व्यक्तित्व हैं, लेकिन उन पर जिस तरह भारत में विचार किया जाता है उससे उनके बाद के भारत की वैचारिक दरिद्रता का ही पता चलता है.
नौजवान भगत सिंह की उस तस्वीर पर फिदा हैं जिसमें उनके सिर पर तिरछा हैट है. गोपनीय तरीके से क्रांतिकारी गतिविधियां करते हुए, अंग्रेज़ अधिकारियों पर हमले और हत्या की कहानियां खासा रोमांच पैदा करती हैं.
भगत सिंह को इसलिए जब तक गांधी या नेहरू के खिलाफ नहीं खड़ा किया जाए, क्रांतिकारियों को जब तक कांग्रेस के सामने खड़ाकर ज़्यादा बड़ा वीर न साबित किया जाए, तब तक उनमें अपने आपमें कोई आकर्षण नहीं जान पड़ता.
कई बार ऐसा लगता है कि भगत सिंह के प्रति श्रद्धा वास्तव में गांधी-नेहरू से घृणा का दूसरा नाम है. जिनके वैचारिक पूर्वज खुद को बचाते हुए और अपने अनुयाइयों को भगत सिंह से दूर रहने की सलाह देते हुए दिन गुजारते रहे, उन्होंने आज भगत सिंह को अपनी कायर हिंसा को उचित ठहराने के लिए एक ढाल बना लिया है.
भगत सिंह चिर युवा हैं. युवाओं के आदर्श भी. लेकिन क्यों? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए नौजवानों से भगत सिंह पर चर्चा करते वक्त अक्सर मैं उनसे पूछता हूं कि फर्ज कीजिए कि आप भगत सिंह हैं और आपको सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के बीच एक को चुनना हो तो आप किसे चुनेंगे.
भारत में हर जगह जवाब एक ही मिलता है: सुभाष. जब मैं उन्हें बताता हूं कि 1928 के भगत सिंह ने सुभाष की जगह नेहरू को चुना था तो उन्हें पहले यकीन नहीं होता. तब उन्हें भगत सिंह के उस साल जुलाई के किरती पत्र में छपे लेख ‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार’ को पढ़कर सुनाना पड़ता है.
इस लेख से जितना सुभाष बाबू और नेहरू के बारे में पता चलता है उससे ज्यादा भगत सिंह के बारे में. वे सुभाष को ‘राज-परिवर्तनकारी’ कहते हैं और नेहरू को ‘युगांतरकारी.’ सिर्फ राज बदलने और युग बदलने में काफी अंतर है. सुभाष राज पलट सकते थे लेकिन ज़माना तो नेहरू जैसे विचारों से ही बदला जा सकता था!
नेहरू के वक्तव्य के जिस हिस्से को उनकी विशेषता बताने के लिए वे उद्धृत करते हैं उसे आज के राष्ट्रवाद से आक्रांत समय में ध्यान से पढ़ने की ज़रूरत है, ‘जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है. इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है. मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता. सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है.’
आगे की एक टिप्पणी भी ध्यान देने योग्य है, ‘सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने ही समय तक ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिंदुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है. परंतु पंडित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं.’
राष्ट्रीय आंदोलन के समय एक नौजवान के लिए राष्ट्रीयता को संकीर्ण कहना संभव था और अपने देश की आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करते हुए यह कहना भी मुमकिन था कि मैं अपने देश में कोई ख़ास बात नहीं नहीं देखता. ऐसा कहने के लिए खासे बौद्धिक आत्मविश्वास की आवश्यकता थी. उतना ही नहीं उस जनता के विवेक पर जो उन्हें सुन रही होगी, भरोसे की ज़रूरत थी.
यह लेख छोटा है लेकिन आज के समय भी अत्यंत प्रासंगिक. आज देश को फिर बताया जा रहा है कि भारत विश्वगुरु था. हमारे यहां सारा सारे बड़े आविष्कार हो चुके थे. भगत सिंह इस प्रकार के विचार को नामंज़ूर करते हैं.
सुभाष बाबू की आलोचना करते हुए वे लिखते हैं, ‘उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है. वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं. …वे तो यहां तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिंदुस्तान के लिए नई चीज़ नहीं.’
जिस समय भगत सिंह यह लेख लिख रहे हैं, उनकी उम्र बमुश्किल 21 की थी, लेकिन उनकी निगाह की सफाई की दाद देनी पड़ती है. अंग्रेज़ों का विरोध क्या उनके अंग्रेज़ या पश्चिमी होने की वजह से हो और क्या हम पूर्व के होकर उनसे श्रेष्ठ या अलग हैं.
भगत सिंह का ख़याल इससे अलग है, ‘सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज़ पश्चिम के वासी हैं. हम पूर्व के. पंडित जी कहते हैं, हमें अपना राज क़ायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए.’
लेख के अंत में वे पंजाब के नौजवानों को सलाह देते हैं, ‘सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे. … इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख़्त ज़रूरत है और यह पंडित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अंधे पैरोकार बन जाना चाहिए, लेकिन जहां तक विचारों का संबंध है, वहां इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इंक़लाब के वास्तविक अर्थ, हिंदुस्तान के इंक़लाब की आवश्यकता, दुनिया में इंक़लाब का क्या स्थान है आदि के बारे में जान सकें. सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले रहकर दुनिया के मुक़ाबले खड़े रह सकें.’
नेहरू मायूसी के वक्त स्थिरता दे सकते हैं, यह 1928 में एक युवा क्रांतिकारी लिख सकता था. यह काम विडंबना की बात नहीं कि वामपंथी और दक्षिणपंथी, दोनों ही अक्सर अफ़सोस करते हैं कि भारत की आज़ादी भगत सिंह के रास्ते नहीं आई, उसे गांधी और उनके मित्र नेहरू ने भटका दिया.
भगत सिंह के साथ साथ सुभाष बोस का नाम भी लिया जाता है. लेकिन खुद भगत सिंह शायद सुभाष बाबू की वीरता के बावजूद उनके साथ खड़े न होते. इस लेख में सुभाष बोस के संकीर्ण राष्ट्रवाद के ख़तरे को चिह्नित किया गया है. यही आगे उन्हें मुसोलिनी और हिटलर के पास ले गया.
भगत सिंह को पूरा जीवन नहीं मिला, लेकिन अपने लघु जीवनकाल को भी उन्होंने पूर्ण किया. वह सम्भव हुआ उनके आत्मचिंतन के कारण. ‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘ लेख की इन पंक्तियों की ओर उनके चाहनेवाले भी ध्यान नहीं देते:
‘अब तक हम दूसरों का अनुकरण करते थे, अब अपने कंधो पर ज़िम्मेदारी उठाने का वक्त आया था. कुछ समय तक तो अवश्यंभावी प्रक्रिया के फलस्वरूप पार्टी का अस्तित्व ही असंभव-सा दिखा. उत्साही कामरेडो, नहीं नेताओं ने हमारा उपहास करना शुरू कर दिया. कुछ समय तक तो मुझे यह डर लगा कि एक दिन मैं भी अपने कार्यक्रम की व्यर्थता के बारे में आश्वस्त न हो जाऊं. वह मेरे क्रांतिकारी जीवन का एक निर्णायक बिंदु था. अध्ययन की पुकार मेरे मां के गलियारों में गूंज रही थी- अपने विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिए अध्ययन करो. अपने मत के समर्थन में तर्क देने के के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो.’
पढ़ने से क्या हुआ? इससे हमारे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए. हिंसात्मक तरीकों को अपनाने का रोमांस, जोकि हमारे पुराने साथियों में अत्यधिक व्याप्त था, की जगह गंभीर विचारों ने ले ली… यथार्थवाद हमारा आधार बना.
हिंसा तभी न्यायोचित है जब किसी विकट आवश्यकता में उसका सहारा लिया जाए. अहिंसा सभी जन आंदोलनों का अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए.
भगत सिंह को गांधी या नेहरू के सामने खड़ा करके उनका विकल्प बताना इसलिए भगत सिंह के साथ अन्याय है कि उन्हें अपनी संपूर्ण विचार प्रणाली विकसित करने का वक्त नहीं मिला, लेकिन नास्तिकता के विचार के समर्थन में लिखे उनके लेख में आपको एक प्रकार की आध्यात्मिकता के दर्शन होते हैं,
‘एक छोटी-सी जूझती हुई ज़िंदगी,जिसकी कोई गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में पुरस्कार होगी, यदि मुझमें उसे इस दृष्टि से देखने का साहस है. यही सब कुछ है. बिना किसी स्वार्थ के, यहां या वहां के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना , मैंने आसक्त (?) भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है क्योंकि मैं कुछ और कर ही नहीं सकता था. जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत से पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा तथा पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा.’
यह थी वह छोटी जूझती ज़िंदगी जिसे किसी और इनाम की ज़रूरत न थी क्योंकि वह अपने चुनाव और किए की वजह से अपना पुरस्कार खुद थी!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते है.)