रामनाथ गोयनका स्मृति व्याख्यान में दिए भाषण में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि देश में निर्णय लेने की प्रक्रिया में बातचीत और असहमति ज़रूरी हैं.
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सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने की जरूरत राष्ट्र के संरक्षण और सही मायने में एक लोकतांत्रिक समाज का सारतत्व है. यह वो भूमिका है जिसे परंपरागत रूप से मीडिया निभाता रहा है और उसे आगे भी इसका निर्वाह करना चाहिए.
कारोबारी नेताओं, नागरिकों, और संस्थानों सहित लोकतांत्रिक व्यवस्था के सभी हितधारकों को यह महसूस करना चाहिए कि सवाल पूछना अच्छा है, सवाल पूछना स्वास्थ्यप्रद है और दरअसल यह हमारे लोकतंत्र की सेहत का मूलतत्त्व है.
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मेरी समझ से प्रेस अगर सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने में विफल रहता है तो यह कर्त्तव्य पालन में उसकी विफलता मानी जाएगी, तथापि इसके साथ ही उसे सतहीपन और तथ्यात्मकता, रिपोर्टिंग और प्रचार के बीच का फर्क समझना होगा.
मीडिया के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है और यह वह चुनौती है जिसका उसे हर हाल में मुकाबला करना चाहिए.
इसे न्यूनतम प्रतिरोध का रास्ता चुनने के लालच से परहेज करना चाहिए जो इस बात की अनुमति देता है कि वर्चस्व वाले दृष्टिकोण पर सवाल उठाए बिना इसे जारी रहने दिया जाए, मीडिया को चाहिए कि दूसरों को सत्ता पर सवाल उठाने का अवसर उपलब्ध कराए.
मीडिया को स्वतंत्र व निष्पक्ष रिपोर्टिंग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से समझौता किए बगैर तमाम तरह के दबावों को झेलने और अनुकूलन को लेकर सतत सतर्क रहने की जरूरत है.
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‘वैकल्पिक तथ्यों’ के इस दौर में जहां बड़े पैमाने पर वाम और दक्षिणपंथ की अतिवादी धारणाएं मौजूद हैं, सत्यता सुनिश्चित करने के लिए मीडिया को तथ्यों की गहन जांच करनी चाहिए.
मेरा हमेशा से यह विश्वास रहा है कि बहुलवाद, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई और जातीय विविधता भारतीय सभ्यता की नींव है. इसीलिए हमें वर्चस्व वाले पाठ को लेकर संवेदनशील होने की जरूरत है क्योंकि उनकी ऊंची आवाज के शोर में असहमति के स्वर दब रहे हैं.
यही वजह है कि सोशल और ब्राडकॉस्ट मीडिया में हम राजकीय और गैर राजकीय खिलाड़ियों की इतनी कुपित और आक्रामक भंगिमाएं देख रहे हैं जो पूरी तरह से अपने से असहमत विचारों को खदेड़ देने पर आमादा हैं.
सुविधासंपन्न लोगों के लिए तकनीक ने उनके मुकाबले कम सुविधाओं वाले लोगों के साथ एकतरफा संवाद के दरवाजे खोल दिए हैं. किसी खोजबीन के बगैर सूचनाओं के प्रवाह की इस पृष्ठभूमि में मीडिया को एक अहम भूमिका निभानी है.
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सत्ता में बैठे लोग, राजनीति से जुड़े तमाम लोग, कारोबार या नागरिक समाज के लोग, विमर्श को प्रभावित करने और उसे मनचाही दिशा देने के लिए अपनी मजबूत स्थिति का फायदा उठाते हैं.
तकनीकी विकास के कारण अब वे तथ्यों की जांच परख की प्रक्रिया को दरकिनार कर सीधे अपने दर्शकों-पाठकों तक पहुंच सकते हैं. पाठ को एक खास दिशा में मोड़ने के इन प्रयासों में आम तौर पर सुविधासंपन्न विशेषाधिकृत तबकों का अपने से कम सक्षम लोगों से एकतरफा संवाद बन जाता है.
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भारतीय सभ्यता ने हमेशा से बहुलवाद का उत्सव मनाया है और सहनशीलता को प्रोत्साहित किया है. जन के रूप में ये चीजें हमारे अस्तित्व के मूल में हैं, जो कई तरह की विभिन्नताओं के बावजूद सदियों से हमें एक सूत्र में बांधती रही हैं.
ताजी हवाओं के लिए हमें खिड़कियां खोलते रहना चाहिए, पर जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा है कि ध्यान रखें कि इन हवाओं में कहीं खुद न उड़ जाएं.
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मीडिया संस्थानों की इफरात संख्या और उनमें गलाकाट प्रतियोगिता का नतीजा अक्सर यह होता है कि सबसे तीखी और तेज आवाजें ही सुनी जा रही हैं. मीडिया के इस असाधारण विस्तार के दौर में दर्शकों-पाठकों को आकृष्ट करने की प्रतियोगिता का एक नतीजा खबरों के सतहीपन और छिछलेपन के रूप में सामने आ रहा है.
इन दबावों ने ऐसी स्थिति का निर्माण किया है जहां अब जटिल मुद्दों को मेरे-तेरे की नजर से देखा जाने लगा है, जो नतीजे में एक ध्रुवीकृत दृष्टिकोण की निर्मिति कर रहे हैं और तथ्य तोड़े-मरोड़े जा रहे हैं.
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रामनाथ गोयनका पत्रकारिता के उच्च आदर्शों के मूर्तिरूप थे- एकदम स्वतंत्र, निर्भीक और शक्तिशाली लोगों व सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ लड़ाई में खड़ा होने को दृढ़प्रतिज्ञ. इससे ज्यादा रस उन्हें किसी काम में नहीं आता था कि खबरों के प्रकाशन को लेकर वे द इंडियन एक्सप्रेस के अधिकार की लड़ाई लड़ें और इसकी कीमत चुकाएं. वे योद्धा थे.
आपातकाल के दिनों में जब प्रेस की आजादी पर नियंत्रण पर की कोशिशें हो रही थीं तब उन्होंने सिद्धांतों के लिए लड़ाई लड़ने की तत्परता का उदाहरण पेश किया और सबसे ऊंचे प्रतिमान स्थापित किए.
(समाचार एजेंसी भाषा और जनसत्ता अख़बार के इनपुट के साथ)