कोलंबिया यूनिवर्सिटी में हिंदी साहित्य पढ़ाने वाली प्रोफेसर एलिसन बुश बीते दिनों कैंसर से लड़ते हुए ज़िंदगी की लड़ाई हार गईं. हिंदी साहित्य में पीएचडी करने वाली बुश ने अपनी ‘पोएट्री ऑफ किंग्स’ नाम की किताब में रीतिकालीन साहित्य पर नए ढंग से विचार किया था.
शरद की बूंदों से भीगी हुई पटना की सुबह थी. बहुत ही प्रसन्न मन से अर्थशिला, पटना और रज़ा फाउंडेशन, दिल्ली के संयुक्त आयोजन ‘दो दिन कविता के’ में जा रहा था. प्रसन्नता का एक और कारण यह भी था कि लगभग बीस वर्षों से दोस्त बने हुए संजीव से लंबे अंतराल के बाद पटना में भेंट हो रही थी.
वही पटना जहां से हमारी दोस्ती शुरू हुई और आज भी आत्मीयता से ओत-प्रोत है. पटना के यातायात की रीढ़ कहे जाने वाले टेम्पो, जिसे संभ्रांत लोग ‘ऑटो’ कहते हैं, में बैठा. हम जिस युग के लोग हैं उसमें सोशल मीडिया एक लत की तरह हमारी ज़िंदगी में दाखिल है, तो आदतन टेम्पो पर बैठते ही ‘फेसबुक’ खोल लिया.
फेसबुक खुला और सामने प्रिय मित्र दलपत राजपुरोहित का एक पोस्ट था. उन्होंने लिखा था ‘आज का दिन एक गहरा दुख लेकर आया. हिंदी साहित्य और मुगलकालीन भारत की गंभीर अध्येता प्रोफेसर एलिसन बुश हमारे बीच नहीं रहीं. मेरे जैसे कई लोग जिनको उनके साथ पढ़ने-पढ़ाने का मौका मिला, वे एलिसन को उनकी विद्वता के साथ-साथ उनकी भलमनसाहत और अपने मित्रों, छात्रों और सहकर्मियों के लिए उनके अपनत्व के लिए हमेशा याद रखेंगे. हिंदी अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र को यह अपूरणीय क्षति है, लेकिन एलिसन हमारे बीच अपने लेखन के ज़रिए हमेशा उपस्थित रहेंगी.’
यह पढ़कर मन कैसा हुआ और है, उसे शब्दों में बता पाना बहुत मुश्किल है. पिछले दिनों ही मैंने प्रोफेसर एलिसन बुश को कई ईमेल किए थे. करीब सात वर्षों से हमारी ईमेल से बातचीत होती रही है. पर कोई समाचार नहीं मिल रहा था. हारकर मैंने उनके पति और प्रख्यात संस्कृतज्ञ प्रोफेसर शेल्डन पोलॉक को ईमेल किया. उनका जवाब आया कि एलिसन बुश बहुत बीमार हैं और जल्दी ही ठीक हो कर मेरे ईमेल का जवाब देंगी.
क्या था एलिसन बुश से मेरा रिश्ता? इस बड़ी या कभी छोटी हुई दुनिया में रिश्ते का क्या मतलब होता है? हम दोनों कभी मिले नहीं पर मिलने की योजना जरूर बनाते रहे. जब उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण किताब ‘पोएट्री ऑफ किंग्स‘ छपी तो उन्होंने बहुत ही प्यार और स्नेह से भेजी. उस पर लिखा था ‘फाॅर योगेश, विद बेस्ट विशेज़, एलिसन.’
इस किताब में प्रोफेसर एलिसन बुश ने रीतिकाव्य के बारे में प्रचलित मान्यताओं पर सप्रमाण सवाल खड़े किए थे और केशवदास के कवित्व की खोज की थी. इस किताब की चर्चा मैंने अपने शिक्षक और यशस्वी आलोचक प्रो. तरुण कुमार से की.
तरुण सर ने उस किताब को पढ़ने के लिए मांगा. पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि ‘पायनियर वर्क है.’ उसी बीच प्रोफेसर एलिसन बुश और प्रोफेसर शेल्डन पोलॉक भारत आए हुए थे. उनके भारतीय मोबाइल नंबर पर उनसे बात हुई.
मैंने प्रोफेसर बुश से कहा कि आपकी किताब मेरे प्रोफेसर ने पढ़ी. उन्हें बहुत पसंद आई है. एलिसन बुश ने अपनी खिलखिलाती और स्नेह-सिक्त आवाज में कहा, ‘बहुत शुक्रिया योगेश! मेरे लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है कि मेरे काम की तारीफ भारतीय प्रोफेसर करें.’ वह खिलखिलाती आवाज अभी भी गूंज रही है. स्नेह, उत्साह, उमंग और ऊर्जा से भरी.
साल 2017 के नवंबर में प्रख्यात विदुषी फ्रेंचेस्का ओरसिनी ने नई दिल्ली में प्रोफेसर अपूर्वानंद के सहयोग से बहुभाषिकता पर अपनी परियोजना के तहत एक आयोजन किया. इस आयोजन में मुझे भी हिंदी साहित्य के आरंभिक इतिहास पर एक आलेख तैयार करना था.
यहां फिर फ्रेंचेस्का ओरसिनी के बड़प्पन की याद आ रही है. उन्होंने न केवल मेरे आलेख का अंग्रेजी में अनुवाद किया, बल्कि उसमें से कुछ बातों को चुनकर पावर-प्वाइंट भी बनाया. एक नवसिखुआ, जिसे कलम भी ठीक से पकड़ना नहीं आता, के लिए उन्होंने इतनी मेहनत की थी. मैं यह देखकर इतना भाव-विभोर और भावुक था कि कोई बोल मेरे मुंह से न निकल पाए.
आज भी मौन हूं. क्या कहा जा सकता है इस पर? सिवाय इस कृतज्ञता को विनम्र हो कर स्वीकार करने के? बाद में मैंने इस आयोजन की एक तरह से रिपोर्टिंग करते हुए एलिसन बुश को ईमेल किया. उधर से उनका चहकता हुआ ईमेल आया. उन लिखे हुए शब्दों में भी मैंने उनके लिखे जाने की भावना और भंगिमा महसूस की.
एक बार मैंने रीतिकाव्य पर एक लेख तैयार किया. उसे पढ़ने के लिए मैंने उन्हें ईमेल किया. काफी दिनों के बाद एलिसन बुश का जवाब आया. उसमें लिखा था कि ‘प्रिय योगेश, आपका लेख पढ़ा. मैं अपनी राय संलग्न कर भेज रही हूं.’
जब मैंने संलग्न वर्ड फाइल खोली और पढ़ना शुरू किया तब मन अपने-आप श्रद्धा से झुकता चला गया. मेरे लिखे को उन्होंने अत्यंत गहराई से पढ़ा था. एक-एक बिंदु पर विचार किया था. कहीं-कहीं मेरी बचपने-सी बातों पर हल्की खीझ भी थी. पर अंत में लिखा था कि लिखते रहिए. जो आपको ठीक लगे.
प्रोफेसर एलिसन बुश से क्या था मेरा रिश्ता? पर यह कोई बता सकता है कि वे मेरे भीतर कितनी हैं? मेरी भीगी आंखें और कचोटता मन उसकी एक झलक भर है.
एक बार मैंने हाल की ‘गाहासत्तसई’ पर कुछ काम करने को सोचा. मैंने तुरंत उन्हें ईमेल भेजा और ‘गाहासत्तसई’ पर उपलब्ध सामग्री की जानकारी देने का अनुरोध किया. उन्होंने बिना देर किए प्रोफेसर शेल्डन पोलॉक को मेरा ईमेल फाॅरवर्ड किया. उस फाॅरवर्ड किए ईमेल में उन्होंने लिखा था कि ‘हिंदी स्काॅलर है. गाथासप्तशती पर काम करना चाहता है.’
अपने लिए ‘हिंदी स्काॅलर’ पढ़कर कृतज्ञता के साथ-साथ शर्म से पानी-पानी होने का भी एहसास हुआ. प्रोफेसर शेल्डन पोलॉक ने न केवल कुछ किताबें बताई थीं बल्कि उन लोगों को भी मेरा ईमेल फाॅरवर्ड किया था जो प्राकृत कविता पर काम कर रहे थे. मसलन एंड्र्यू ऑलेट.
प्रोफेसर पोलॉक से क्या रिश्ता है मेरा? शमशेर बहादुर सिंह ने निराला पर लिखी अपनी कविता में कहा है कि वे जितना निराला का आदर करते हैं, काश! उतना उन्हें समझ भी पाते. यदि मैं प्रोफेसर शेल्डन पोलॉक के लिखे में से अल्पांश को भी समझकर आत्मसात कर पाऊं तो जीवन सफल हो जाए.
अभी उन्होंने रस पर जो ‘रीडर’ संपादित किया है, वह अत्यंत गंभीर और सघन है. इस अकादमिक ऊंचाई के व्यक्ति ने मुझ जैसे अदना की मदद की. मेरे लिए किताबें सुझाईं और उस विषय के विशेषज्ञों तक मेरी पहुंच बनाई. बार-बार मेरे मन में एक ही सवाल कौंध रहा है कि क्या रिश्ता है मेरा प्रोफेसर शेल्डन पोलॉक और प्रोफेसर एलिसन बुश से?
मन से यही जवाब आता है कि उनका ज्ञान से रिश्ता है. अकादमिक श्रेष्ठता से रिश्ता है. अकादमिक प्रतिबद्धता से रिश्ता है. यही प्रतिबद्धता फ्रेंचेस्का से मुझ जैसे अदने व्यक्ति के लेख का अनुवाद कराती है और एलिसन बुश को एक नवसिखुए के लेख पर अत्यंत सूक्ष्मता से विचार कराती है.
अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचक एफआर लीविस ने आलोचना को सहयोगी प्रयास कहा था. वैसे तो पूरा जीवन ही सहयोगी प्रयास है, पर अकादमिक जगत की श्रेष्ठता और ऊंचाई इसी सहयोगी प्रयास पर टिकी है. यही वह चीज है जो मुझे प्रोफेसर एलिसन बुश से जोड़ती है. यही वह चीज है जो उनके न रहने पर भी मेरे भीतर है और रहेगी.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने एक जगह लिखा है कि महान वह है जिसके पास जाकर तुम्हें भी बड़ा महसूस होने लगे. प्रोफेसर एलिसन बुश के स्नेह, उदारता, अकादमिक श्रेष्ठता, अकादमिक प्रतिबद्धता और विशेषज्ञता ने मेरे भीतर अच्छा काम करने की चाहत जगाई.
मेरे भीतर यह विश्वास भरा कि अभी भी इस संसार में मन से रिश्ते बन सकते हैं. यह भरोसा भरा कि इंसानियत की कोई सरहद नहीं होती. ज्ञान की कोई सरहद नहीं होती. ज्ञान के लोकतंत्र की नागरिकता भी अर्जित करनी पड़ती है.
यकीन तो नहीं हो रहा कि प्रोफेसर एलिसन बुश नहीं हैं. मन किया कि प्रोफेसर शेल्डन पोलॉक को एक संवेदना का ईमेल भेज दूं. पर दूसरे ही क्षण यह बहुत ही अजीब लगा. क्या कहूंगा उनसे? जो व्यक्ति संस्कृत का विश्वप्रसिद्ध विशेषज्ञ है उन्हें मैं संवेदना के बोल बोलूं? यह धृष्टता ही होती.
प्रोफेसर एलिसन बुश से जब भी बात हुई तो हम दोनों ने यही तय किया कि अगली बार जरूर मिलेंगे. मिल नहीं पाए. मिलने की उम्मीद हमेशा बनी रही. पर क्या यह सच में कहा जा सकता है कि मिल नहीं पाए?
वे मेरे भीतर कितनी हैं! घनानंद के विरह-वर्णन के सवैये की तरह जो अंदर ही अंदर मृदंग की तरह हाहाकार करता बजता रहता है. मेरे पास बस श्रद्धा, आदर और कृतज्ञता के दो शब्द हैं. वह भी अपनी ‘तोतली बोली’ में.
मैं जानता हूं कि मेरी इस ‘तोतली बोली’ पर उनकी चहकती और खिलखिलाती हंसी गूंजेगी. प्रोफेसर एलिसन बुश सदैव मध्यकालीन भारतीय इतिहास और मध्यकालीन हिंदी साहित्य के आकाश में गूंजती रहेंगी.
(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)
[प्रोफेसर एलिसन बुश कोलंबिया विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ मिडिल ईस्टर्न, साउथ एशियन एंड अफ्रीकन स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर थीं. उन्होंने 2003 में शिकागो विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पीएचडी करने वाली बुश की 2011 में ‘पोएट्री ऑफ किंग्स’ नाम से एक किताब प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने हिंदी के रीतिकालीन साहित्य पर नए ढंग से विचार किया था. वे मुगलकालीन भारत की भी जानकार थीं.]