‘मेन एट होम: घरेलू ज़िंदगी में मर्दों की हाज़िरी-गै़रहाज़िरी का लेखाजोखा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज्ञानेंद्र पांडेय की ‘मेन एट होम’ पुरुषों की घरों में अनुपस्थिति के बारे में है. ज्ञानेंद्र बताते हैं कि दक्षिण एशियाई घर-परिवार के इतिहास में मर्द-जाति की गै़र-हाज़िरी अब भी कायम है. बच्‍चे जनने और पालन-पोषण को लेकर समाज की आम धारणा के चलते गृहस्‍थी आज तक औरत और उसके बच्‍चों की दुनिया मानी जाती है.

‘वाम का विरोध आपको दक्षिणपंथी नहीं बनाता’

स्वामीनाथन के भीतर एक सर्जनात्मक दृष्टि थी. उनका मूल कर्म आलोचक-दृष्टि को बरतना नहीं, बल्कि सर्जनात्मक कर्म करना था. गीता कपूर को सर्जनात्मक दृष्टि की कोई दरकार या कोई ज़रूरत नहीं थी.

कल्पना की बहुलता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय कल्पना-सृजन-विचार का लगभग ज़रूरी कर्तव्य हमें आश्वस्त करना है कि हम अपनी बहुलता बचा सकते हैं; कि हम विकल्पों को सोच और रूपायित कर सकते हैं, कि हमारे पास ऐसे बौद्धिक-सर्जनात्मक उपकरण हो सकते हैं जो हमें प्रतिरोध के लिए सन्नद्ध करें.

गीता कपूर और कला आलोचना का वाम-दृश्य

गीता कपूर ने जो कला की वैचारिकी विकसित की है वह महत्त्वपूर्ण है, उसे जानना ज़रूरी है, लेकिन उस वैचारिकी से समकालीन या आधुनिक कला की समझ बढ़ती हो ऐसा मुझे नहीं लगता— उस वैचारिकी का आतंक है, लेकिन उसका कोई उपयोग नहीं है.

जीवन को लेकर साहित्य कभी पूर्णकाय नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लिखना पर्याप्त होने, सफल और सार्थक होने के भ्रम को ध्वस्त करता है और मनुष्य होने की अनिवार्य ट्रैजडी के रू-ब-रू खड़ा करता है. हम आधे-अधूरे हैं यह साहित्य के ट्रैजिक उजाले में हम कुछ साफ़ देख पाते हैं.

ज़ाकिर हुसैन का जाना शास्त्रीयता और मूर्धन्यता दोनों की समान क्षति है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज़ाकिर हुसैन के वादन ने युवाओं के बीच जो लोकप्रियता हासिल की वह भी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दुर्लभ उपलब्धि है. आधुनिकता ज़ाकिर के यहां हस्तक्षेप नहीं है, वह निरंतरता का कल्पनाशील विस्तार है- सहज और अनिवार्य.

आस्था अनुष्ठान में बदल रही है; धर्म का अज्ञान तेज़ी से बढ़ रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है.

कलाकार जो करता है उस पर यक़ीन करो, बजाय उसके जो वो अपनी कला के बारे में कहे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ब्रिटिश चित्रकार डेविड हाकनी का कथन है कि कलाकार काफ़ी पकी उमर तक जी सकते हैं क्‍योंकि वे अपने शरीर के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते. हाथ, हृदय और आंख कंप्यूटर से अधिक जटिल हैं.

विचारधाराएं साहित्य से नहीं उपजतीं, फिर भी साहित्य को अपना उपनिवेश बनाने की चेष्टा करती हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म का छद्म करती विचारधारा ‘हिंदुत्व’ कहलाती है. उसके प्रभाव में भारतीय समाज जितना सांप्रदायिक धर्मांध और हिंसक आज है उतना पहले कभी नहीं हुआ.

‘दिस टू इज़ इंडिया’ में मौजूद दृष्टियां भारत की बुनियादी बहुलता का सत्यापन हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बुद्धि-ज्ञान-विचार-सृजन के लिए यह कठिन समय है और यह सोचना काफ़ी नहीं है कि जैसे हर समय अंततः बीत जाता है यह भी बीत जाएगा. इसका अभी सजग प्रतिकार ज़रूरी है. गीता हरिहरन की ‘दिस टू इज़ इंडिया’ यही करती है.

शती के अवसर पर मूर्धन्‍यों की स्मृति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 2024 मूर्धन्य चित्रकारों सूज़ा, रामकुमार, वासुदेव गायतोंडे और केजी सुब्रमण्यन का जन्मशती वर्ष हैं. उन्हें याद करना, उनके प्रति आलोचनात्म्क कृतज्ञता व्यक्त करना हमारी कलात्मक-नैतिक ज़िम्मेदारी है.

कला वर्तमान भारत का बेचैन अंत:करण है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी : कलाविद् शनय झावेरी के 'भारत का कल्पना-संस्थान’ नाम के संचयन से स्पष्ट होता है कि हमारी समकालीन कला में रंगबोध, संयोजन, दृष्टि, शैली, सामग्री आदि की अपार और अदम्य बहुलता है.

वेनिस बिनाले: कला संसार का उत्सव ज़रूर मनाती है पर उसके त्रास को अनदेखा नहीं करती

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेनिस द्वैवार्षिकी की थीम थी- फॉरेनर्स एवरीवेयर. बहुत से देशों में आवश्यक कलात्मक स्वतंत्रता, सुविधाओं के अभाव के चलते कलाकार अजनबी देशों में भागकर बसते और कला सक्रिय होते हैं. ऐसी कला में अक्सर अवसाद का भाव भी होता है, मुक्ति के अलावा.

भारत की नई राजनीतिक संस्कृति में ज्ञान के बजाय अज्ञान का महिमामंडन हो रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पहले के निज़ामों में कमोबेश संस्कृति की स्वतंत्रता और गरिमा का एहतराम और आदर दोनो ही थे: वर्तमान निज़ाम ने संस्कृति को राजनीति की दासी और अधिक से अधिक उसे सत्ता के महिमामंडन और शोभा की चीज़ बना दिया है.

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