मोदी सरकार द्वारा सेंट्रल सिविल सर्विसेज (पेंशन) रूल्स, 1972 में किए गए संशोधन के बाद अब रिटायर्ड सुरक्षा अधिकारियों को अपने पूर्व संगठन से संबंधित विषय पर कुछ भी लिखने से पहले सरकार की अनुमति लेनी होगी. इसका उल्लंघन सेवानिवृत्त अधिकारी की पेंशन को ख़तरे में डाल सकता है.
स्मृति शेष: दुनिया के हर देश के किसी भी सामान्य मीडिया संस्थान में मुरली जैसे लोग होते हैं. ये स्वतंत्र प्रेस के अनदेखे-अनसुने नायक होते हैं, जिनकी मेहनत के चलते पत्रकार वो कर पाते हैं, जो वो करते हैं. उनके लिए कोई अवॉर्ड, कोई सराहना नहीं होती पर रिपोर्टर द्वारा संस्थान को मिल रहे सम्मान को वे अपना समझकर संजोते हैं.
ऐसा कोई क़ानून नहीं है, जिसके तहत किसी व्यक्ति द्वारा पहचान छिपाकर किसी महिला से शादी करने के लिए उसे मौत की सज़ा सुनाई जा सके, इसलिए अंतिम संस्कार से जुड़ा मुख्यमंत्री का संदर्भ भीड़ हिंसा के लिए धर्म के ठेकेदारों को प्रोत्साहित करने के समान है.
दिल्ली पुलिस ने कहा था कि दिल्ली दंगा मामले में गवाही देने वाले 15 सार्वजनिक गवाहों ने जान को ख़तरा बताया है, जिसके चलते छद्मनामों का इस्तेमाल कर उनकी पहचान गुप्त रखी गई है. पिछले दिनों दायर पुलिस की 17,000 पन्नों की चार्जशीट में इन सभी के नाम-पते सहित पूरी पहचान ज़ाहिर कर दी गई है.
दिल्ली दंगा मामले में दायर एक चार्जशीट में दावा किया गया था कि 8 जनवरी को हुई एक बैठक में डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के समय हिंसा की योजना बनाई गई थी. पिछले दिनों एक अन्य आरोपपत्र में पुलिस ने इसे हटाते हुए कहा है कि सीएए विरोधी प्रदर्शन 2019 आम चुनाव में भाजपा की जीत से खोई ज़मीन पाने के लिए बड़े पैमाने दंगे करवाने की 'आतंकी साज़िश' का हिस्सा थे.
लोकतंत्र के प्रति मोदी सरकार का निरादर भाव काफी गहरा और व्यापक है और यह हर उस संस्था तक फैल चुका है, जिसका काम कार्यपालिका की शक्ति पर अंकुश लगाकर उसे नियंत्रण में रखना है.
वीडियो: उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के तीन महीने बाद पुलिस सिलसिलेवार ढंग से लोगों को गिरफ़्तार कर रही है. इनमें अधिकतर लोगों ने सीएए के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण आंदोलन किया था. द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन की दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अपूर्वानंद और राज्यसभा सदस्य मनोज झा से बातचीत.
दिल्ली की हिंसा का कोई ‘हिंदू’ या ‘मुस्लिम’ पक्ष नहीं है, बल्कि यह लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की एक घृणित सियासी चाल है. 2002 के दंगों ने भाजपा को गुजरात में अजेय बना दिया. गुजरात मॉडल के इस बेहद अहम पहलू को अब दिल्ली में उतारने की कोशिश ज़ोर-शोर से शुरू हो गई है.
ऐसे समय में जब हमें यह बताया गया है कि अनुच्छेद 370 का हटना आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में सबसे निर्णायक क़दम था, तब अगले मिशन पर जा रहे एक वांटेड आतंकी के साथ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के पकड़े जाने पर यक़ीन करना मुश्किल है.
इस अपराध की साज़िश रचने वालों ने खूब तरक्की की है और आज वे सत्ता में हैं. एक हिंदू वोट बैंक की कल्पना को साकार करने का अभियान उतनी ही शिद्दत से जारी है.
भाजपा के लोग चाहे जो दिखावा करें, लेकिन प्रज्ञा ठाकुर भारत के लिए शर्मिंदगी का सबब हैं. वे संसद और इसकी सलाहकार समिति के लिए शर्मिंदगी की वजह हैं. और निश्चित तौर पर वे अपने राजनीतिक आकाओं के लिए भी शर्मिंदगी का कारण हैं. लेकिन शायद उन्हें इस शब्द का मतलब नहीं पता.
शनिवार को शीर्ष अदालत ने उन लोगों के पक्ष में फ़ैसला दिया, जो सीधे तौर पर बाबरी मस्जिद गिराने के मुख्य आरोपियों से जुड़े हुए हैं. और यह देश के लिए ठीक नहीं है.
केवल एक तानाशाह सरकार विपक्षी नेताओं के किसी राज्य में जाने पर रोक लगाकर विदेशी सांसदों को वहां ले जाती है.
भाजपा मतदाताओं का ध्यान वास्तविक मुद्दों से भटकाने के लिए बेताब है. ऐसे में एनआरसी का इस्तेमाल भारत का ध्रुवीकरण करने के लिए इस तरह से किया जा सकता है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.
नया यूएपीए क़ानून सरकार को अभूतपूर्व शक्तियां देने वाला है, जो उसकी ताक़त के साथ ही उसकी जवाबदेही भी बढ़ाता है.