पिछले पांच सालों में भाजपा और केंद्र ने कई बार हेमंत सोरेन सरकार को गिराने की कोशिश की. हर विपक्षी राज्य की तरह झारखंड में भी ईडी, सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियां विपक्ष को घेरने में लगी रहीं. मुख्यमंत्री सोरेन को लोकसभा चुनाव के पहले ऐसे मामले में पांच महीने तक जेल भेजा गया, जिसमें आज तक कोई साक्ष्य नहीं है. इस सबके बीच कैसा रहा सोरेन सरकार का कार्यकाल?
केंद्र सरकार के बजट में सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य व शिक्षा को न केवल दरकिनार किया गया है बल्कि मनरेगा सरीखी कई ज़रूरी योजनाओं के आवंटन में भारी कटौती की गई है. ऐसे में झारखंड जैसा राज्य जो कुपोषण, ग़रीबी व ग्रामीण बेरोज़गारी से जूझ रहा है, वहां आने वाले राज्य बजट के पहले पिछले बजटों में की गई घोषणाओं के आकलन की ज़रूरत है.
कोविड-19 लॉकडाउन में देश में भुखमरी की स्थिति देखने के बाद इसे नकारना अमानवीय है. वैश्विक भुखमरी सूचकांक ने भारत की दुर्दशा बताई, तो केंद्र सरकार ने रिपोर्ट को ही ख़ारिज कर दिया. सवाल उठता है कि मोदी सरकार ने पिछले आठ सालों में भुखमरी और कुपोषण कम करने के लिए क्या किया है.
मोदी सरकार एक ऐसा राज्य स्थापित करने की कोशिश में है जहां जनता सरकार से जवाबदेही न मांगे. नागरिकों के कर्तव्य की सोच को इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़ा था. मोदी सरकार बिना आपातकाल की औपचारिक घोषणा के ही अधिकारहीन कर्तव्यपालक जनता गढ़ रही है.
चाहे केंद्र में यूपीए की सरकार रही हो या वर्तमान एनडीए की, नक्सल अभियान के नाम पर आदिवासियों पर केंद्रीय सुरक्षा बलों द्वारा हिंसा जारी रहती है. इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि झारखंड में माओवादी हिंसा एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन इसे रोकने के नाम पर निर्दोष आदिवासियों के दमन का क्या औचित्य है? क्यों अभी भी आदिवासियों की पारंपरिक व सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को दरकिनार कर सुरक्षा बल उनके क्षेत्र में घुसपैठ कर उन्हें परेशान कर
झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने पिछले एक साल में जन अपेक्षाओं के अनुरूप कुछ निर्णय तो लिए हैं, लेकिन चुनाव में गठबंधन द्वारा उठाए गए मुद्दों, घोषणा-पत्र में किए गए वादों एवं राज्य की आवश्यकताओं की तुलना में अभी भी कुछ ख़ास काम देखने को नहीं मिला है.
झारखंड में महागठबंधन और जन विरोध के बावजूद भाजपा बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रही. राज्य गठन के बाद हुए लोकसभा चुनावों के वोट शेयर का आकलन किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि झारखंड लंबे समय से इस परिणाम की ओर बढ़ रहा था. अब सवाल ये है कि क्या वे लोकसभा चुनाव में मिली हार के अनुभव से सीखते हुए चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं.
झारखंड में रघुबर दास के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशन लेने के लिए राशन कार्ड में दर्ज सभी सदस्यों का आधार लिंक करवाना अनिवार्य कर दिया है. इस निर्णय से आने वाले दिनों में बड़े पैमाने पर लोग राशन से वंचित हो सकते हैं.
झारखंड सरकार ने तो भुखमरी के मुद्दे से अपना मुंह ही फेर लिया है. उल्टा, जो लोग भुखमरी की स्थिति को उजागर कर रहे हैं, सरकार उनकी मंशा पर लगातार सवाल कर रही है.
पेसा क़ानून पारित होने के दो दशक बाद भी झारखंड में यह एक सपना मात्र है. राज्य के 24 में से 13 ज़िले पूर्ण रूप से और तीन ज़िलों का कुछ भाग अनुसूचित क्षेत्र है, लेकिन अभी तक राज्य में पेसा की नियमावली तक नहीं बनाई गई है.
झारखंड में कथित तौर पर भुखमरी से हो रही मौतों ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के कार्यान्वयन की गंभीर त्रुटियों के चलते लोगों के जीने के अधिकार के हनन को उजागर किया है.
भाजपा की रघुबर दास सरकार के बड़े बोलों के बावजूद राज्य में मनरेगा मज़दूरों को नियत समय पर भुगतान मिलने जैसे कई अधिकारों का व्यापक स्तर पर उल्लंघन हो रहा है.