हिंदी समाज हर शहर में एक नौजवान भी नहीं तैयार कर पा रहा है जो अपने शहर के रंगमंच से राब्ता रखकर उसका विश्लेषण या परिचय हिंदी के पाठक को उपलब्ध कराता रहे. शिक्षण संस्थान क्या कर रहे हैं? रंग समूह शैक्षणिक परिसर से जुड़ने के लिए क्या कोशिश कर रहे हैं? क्या हिंदी साहित्यकारों का अपने शहर के रंगमंच से कोई वास्ता है?
श्याम बेनेगल हर बार एक नए विषय के साथ सामने आते थे. 'जुनून' (1979) जैसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली फ़िल्म के तुरंत बाद उन्होंने 'कलयुग' (1981) में महाभारत को आधार बनाकर आधुनिक दुनिया में रिश्तों की पड़ताल की और फिर 'मंडी' (1983) में कोठे के जीवन का प्रामाणिक चित्रण किया.
चार्ली चैप्लिन दुनिया के महानतम फिल्मकारों में शुमार हैं. उन्होंने अभिनय और निर्देशन, दोनों ही विधाओं में कीर्तिमान स्थापित किए. उनकी फिल्मों को आज भी याद किया जाता है.
गगन गिल को मिला पुरस्कार हिंदी साहित्य के नेपथ्य में बजते उस पुरुष वर्चस्ववाद को भी एक चेतावनी है, जो आज तक न ब्राह्मणवाद से आगे निकल पाया है और न ही मनुवाद से. आज राजनीति में तो स्त्री अधिकारों का प्रश्न बहुत सशक्त ढंग से उठ रहा है, लेकिन साहित्य का संसार इससे अछूता है.
श्याम बेनेगल उस पीढ़ी के सिनेकर्मी थे जिसने आज़ाद भारत के उभरते सपनों के बीच सांस ली. एक समतावादी, लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति का सपना, एक धर्मनिरपेक्ष-जातिविहीन मूल्य-संहिता का सपना, नेहरू की कविता और गांधी की करुणा का सपना. उनके निधन के साथ उस युग के एक सपने का भी अंत हो गया.
वर्ष 2023 का प्रथम ‘शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान’ इस बरस जुलाई में युवा लेखिका दिव्या विजय को उनके कहानी संग्रह ‘सगबग मन’ के लिए दिया गया था.
पुस्तक अंश: शैलेंद्र के हिस्से में कई प्रेम-त्रिकोण फ़िल्में आईं. ऐसी ही एक फिल्म थी ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ जिसका सबसे चमकदार गीत बना— अजीब दास्तां है ये कहां शुरू कहां ख़तम, ये मंज़िलें हैं कौन-सी न वो समझ सके न हम...
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज़ाकिर हुसैन के वादन ने युवाओं के बीच जो लोकप्रियता हासिल की वह भी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दुर्लभ उपलब्धि है. आधुनिकता ज़ाकिर के यहां हस्तक्षेप नहीं है, वह निरंतरता का कल्पनाशील विस्तार है- सहज और अनिवार्य.
किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह पत्तों को पूरी तरह से झरते देख सके. जो झरते हुए को नहीं देख सकता, वह उगते हुए को भी नहीं देख सकता. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की चौथी क़िस्त.
गगन गिल की कविताओं की संवेदना इतनी अंतर्मुखी है कि मितकथन में ही व्यक्त हो सकती है, इतनी तरल कि विस्मृति में ही सुरक्षित बस सकती है और इतनी सघन कि आत्मा को छूने की विकलता के बीच प्रेम कर सकती है और फिर भी विहंसते हुए कह सकती है कि ऐसे प्रेम से खुदा ही बचाए.
गोकुल भारतीय चिंतन परंपरा की प्रतिगामी धारा को पूरी तरह खारिज करते हुए भी उसकी प्रगतिशील धारा की विरासत को आत्मसात करने में हिचकिचाते नहीं थे. उनका कहना था कि इस विरासत को पाश्चात्य चिंतन के क्रांतिकारी, जनवादी, वैज्ञानिक और प्रगतिशील मूल्यों से जोड़कर भारतवासी अपने भविष्य का रास्ता हमवार कर सकते हैं.
पुस्तक अंश: मुझे राव के साथ काफ़ी क़रीब से काम करने का मौक़ा मिला. मैंने उनसे सीखा कि एक अनुभवी नेता कठिन परिस्थितियों का सामना भी किस तरह करता है. राव एक विद्वान् और कुशल लेखक थे.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है.
बड़े लेखक वे हैं, जो समय से पहले घटनाओं की आहट सुन लेते हैं. जो बीत गया उस पर लिखना दृष्टिकोण है, लेकिन आगामी दौर को लिखना वक़्त को थाम लेना है. भविष्य की संभावना को दर्ज करना ज्यादा महत्वपूर्ण है. क्योंकि कई बार आज को दर्ज करना रचनाओं को कमज़ोर कर देता है. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की तीसरी क़िस्त.
आप किसी बड़े कस्बे, या छोटे-बड़े शहर के रहने वाले हों या कलकत्ता के बाशिंदे, सर्दियों के आते ही उनका मन मचलने लगता. पश्चिम बंगाल में पंखों के बंद होते और बंदर टोपी के निकलते ही पिकनिक रचाने की इच्छा कुलाचें भरने लगती है. बंगनामा स्तंभ की सोलहवीं क़िस्त.