हिंदी दिवस परिचर्चा: डिजिटल बनाम प्रिंट

'जब भी कोई नया माध्यम आता है तो यही आशंका जताई जाती है कि पुराने माध्यम चलन से बाहर हो जाएंगे. लेकिन टीवी और कंप्यूटर जैसे जितने भी नए माध्यम आए, वे किताब के ही अलग-अलग रूप बने, न कि प्रतिद्वंद्वी. प्रिंट हमेशा अपनी जगह रहेगा. साहित्य की जगह हमेशा बनी रहेगी.'

बिना अनुभवों की साझेदारी के जनतांत्रिकता मुमकिन नहीं

अंतरराष्ट्रीयता का मेल हुए बिना राष्ट्रवाद एक संकरी ज़हनीयत का दूसरा नाम होगा जिसमें हम अपने दड़बों में बंद दूसरों को ईर्ष्या और प्रतियोगिता की भावना के साथ ही देखेंगे. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 34वीं और अंतिम क़िस्त.

मंज़ूर एहतेशाम की ‘तमाशा’ अभाव और भव्यताहीन साधारण जीवन का चिर-परिचित सच है

कला हो या जीवन दोनों ही बस अंततः सफल हो जाने वाले नायकों के गुणगान गाते हैं. मंज़ूर एहतेशाम की कहानी ‘तमाशा’ इसके विपरीत संघर्षों में बीत जाने वाले जीवन की कहानी है, बिना किसी परिणाम की प्राप्ति के.

भारतीय समाज में हिंसा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पांचेक दशक पहले गुंडई को अनैतिक माना जाता था और समाज में उसकी स्वीकृति नहीं थी. आज हम जिस मुक़ाम पर हैं उसमें गुंडई को लगभग वैध माना जाने लगा है- उस पर न तो ज़्यादातर राजनीतिक दल आपत्ति करते हैं, न ही मीडिया.

मांगती है सईदा पिछले तीस बरसों का हिसाब

पुस्तक समीक्षा: आज की मूलतः पुरुष केंद्रित पत्रकारिता के बीच पत्रकार नेहा दीक्षित अपनी किताब 'द मैनी लाइव्स ऑफ सईदा एक्स' में एक मुस्लिम महिला और असंगठित मज़दूर की कहानी कहने का जोखिम उठाती हैं.

बंगनामा: कलकत्ते पर दस्तक देती फीकी दुर्गा पूजा

दुर्गा पूजा को अब तीन सप्ताह भी नहीं रह गए हैं लेकिन कलकत्ता के बाज़ार लगभग ख़ाली हैं. एक जूनियर डॉक्टर के सामूहिक बलात्कार और हत्या का जन आक्रोश रास्तों पर बह रहा है, चौराहों पर उमड़ रहा है. बंगनामा स्तंभ की दसवीं क़िस्त.

जब उतरती है कैनवास पर कविता

आज कुंवर नारायण की जन्म तिथि है. पढ़िए कलाकार सीरज सक्सेना का यह खूबसूरत निबंध जो उन्होंने अपने चित्रों और कुंवर नारायण की कविताओं से बुना है.

हिंदी भाषा में उत्कृष्ट अकादमिक शोध कहीं कम क्यों है?

'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' के नारे के ज़रिये हिंदी का प्रभुत्व और दबदबा बनाने की बात बहुत हुई, लेकिन इससे हिंदी को कुछ भी ठोस नहीं मिला है.

हिंदी को हिंदीवाद और राष्ट्रवाद से मुक्त किए बगैर भाषा का पुनर्वास असंभव

दुनिया में शायद हिंदी अकेली भाषा है जहां सेवक पाए जाते हैं. हिंदी में शिक्षक हो, पत्रकार हो या लेखक, हिंदी की सेवा करता है, उसमें काम नहीं करता.

मुक्तिबोध के आईने से: जनतंत्र का पहला और आख़िरी सवाल

अपूर्णता का एहसास मनुष्य के होने का सबूत है. समस्त प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य है जिसे अपने अधूरेपन का एहसास है. यह उसे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की प्रेरणा देता है.

नए भारत की दीमक लगी शहतीरें… भारतीय गणराज्य के मौजूदा संकट को समझने का अनिवार्य पाठ है

पुस्तक समीक्षा: अर्थशास्त्री परकाला प्रभाकर की 'नए भारत की दीमक लगी शहतीरें: संकटग्रस्त गणराज्य पर आलेख' न केवल भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य का विश्लेषण करती है, बल्कि बताती है कि देश के लोकतांत्रिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए कौन से क़दम ज़रूरी हैं.

दुनिया का हर जनतंत्र अधूरा है क्योंकि उसने औरत को पढ़ने का तरीक़ा पूरा सीखा ही नहीं

दुनिया भर के हर देश और समाज को औरत को पहचानने में, उन्हें समझने, उनके साथ इंसानी रिश्ता क़ायम करने में में काफ़ी लंबा वक़्त लगा. उसकी वजह थी समाज और तंत्र की उसमें दिलचस्पी का अभाव. लगता है कि वह देखता है लेकिन असल में देखता नहीं. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 33वीं क़िस्त.

मुक्तिबोध की उपस्थिति के तीन क्षण

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज कर उसे बेझिझक ज़ाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता की कविता है.

नंदकिशोर नवल: साहित्य की सुगंध

जन्मदिन विशेष: आलोचक नंदकिशोर नवल प्रथमतः और अंततः साहित्य की दुनिया के वासी थे. वही उनका ओढ़ना-बिछौना था. कहा करते थे कि आप किसी के क़रीब जाने पर उसकी गंध से जान सकते हैं कि वह साहित्य का आदमी है या नहीं. उन्हें याद करते हुए इस गंध को महसूस किया जा सकता है.

1 2 3 6