किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह पत्तों को पूरी तरह से झरते देख सके. जो झरते हुए को नहीं देख सकता, वह उगते हुए को भी नहीं देख सकता. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की चौथी क़िस्त.
गगन गिल की कविताओं की संवेदना इतनी अंतर्मुखी है कि मितकथन में ही व्यक्त हो सकती है, इतनी तरल कि विस्मृति में ही सुरक्षित बस सकती है और इतनी सघन कि आत्मा को छूने की विकलता के बीच प्रेम कर सकती है और फिर भी विहंसते हुए कह सकती है कि ऐसे प्रेम से खुदा ही बचाए.
गोकुल भारतीय चिंतन परंपरा की प्रतिगामी धारा को पूरी तरह खारिज करते हुए भी उसकी प्रगतिशील धारा की विरासत को आत्मसात करने में हिचकिचाते नहीं थे. उनका कहना था कि इस विरासत को पाश्चात्य चिंतन के क्रांतिकारी, जनवादी, वैज्ञानिक और प्रगतिशील मूल्यों से जोड़कर भारतवासी अपने भविष्य का रास्ता हमवार कर सकते हैं.
पुस्तक अंश: मुझे राव के साथ काफ़ी क़रीब से काम करने का मौक़ा मिला. मैंने उनसे सीखा कि एक अनुभवी नेता कठिन परिस्थितियों का सामना भी किस तरह करता है. राव एक विद्वान् और कुशल लेखक थे.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है.
बड़े लेखक वे हैं, जो समय से पहले घटनाओं की आहट सुन लेते हैं. जो बीत गया उस पर लिखना दृष्टिकोण है, लेकिन आगामी दौर को लिखना वक़्त को थाम लेना है. भविष्य की संभावना को दर्ज करना ज्यादा महत्वपूर्ण है. क्योंकि कई बार आज को दर्ज करना रचनाओं को कमज़ोर कर देता है. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की तीसरी क़िस्त.
आप किसी बड़े कस्बे, या छोटे-बड़े शहर के रहने वाले हों या कलकत्ता के बाशिंदे, सर्दियों के आते ही उनका मन मचलने लगता. पश्चिम बंगाल में पंखों के बंद होते और बंदर टोपी के निकलते ही पिकनिक रचाने की इच्छा कुलाचें भरने लगती है. बंगनामा स्तंभ की सोलहवीं क़िस्त.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ब्रिटिश चित्रकार डेविड हाकनी का कथन है कि कलाकार काफ़ी पकी उमर तक जी सकते हैं क्योंकि वे अपने शरीर के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते. हाथ, हृदय और आंख कंप्यूटर से अधिक जटिल हैं.
यह लेखक के लिए हताश करने वाला समय है, मुश्किल समय है. सच लिखना शायद इतना जोखिम भरा कभी नहीं था जितना अब है. सच को पहचानना भी लगातार मुश्किल होता गया है.
पुस्तक अंश: हिंदू धर्म विभिन्न विचारों को आत्मसात करता आया है. कई मान्यताएं और प्रथाएं अपने प्राचीन रूप में हैं और उनके स्रोतों का पता लगाना कठिन है. धर्म का यह स्वरूप पूजा के विधि-विधानों के बजाय दार्शनिक स्तर पर अधिक पाया जा सकता है. असहमति की अधिकांश परंपराएं विविधता को पोषित करती रही हैं.
एक वक्त रायपुर में ख़ुफ़िया तरीके से पिस्तौलें बनाई गयीं, बम परीक्षण हुए. इन क्रांतिकारियों पर जो मुकदमा चला वह रायपुर षड्यंत्र केस के नाम से जाना गया. यह किसी एक घटना पर आधारित नहीं था, बल्कि उस समूचे क्रांतिकारी घटनाक्रम को इंगित करता था जिसने शहर को अपने आगोश में ले लिया था.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म का छद्म करती विचारधारा ‘हिंदुत्व’ कहलाती है. उसके प्रभाव में भारतीय समाज जितना सांप्रदायिक धर्मांध और हिंसक आज है उतना पहले कभी नहीं हुआ.
इस सप्ताह से हम एक नई श्रृंखला शुरू कर रहे हैं जिसके तहत रचनाकार समय के साथ अपने संवाद को दर्ज करते हैं. पहली क़िस्त में पढ़िए प्रकृति करगेती का आत्म-वक्तव्य: त्रिकाल जब एक संधि पर आकर ठहर जाता है.
बंगालियों को अपनी बीमारी के बारे में बात करने तथा औरों से साझा करने में कोई झिझक नहीं होती. अपनी बीमारी को साझा करते हुए वह कुछ और भी बताते जाते हैं. मसलन, आप किसी व्यक्ति से तीसरी बार मिलें, और वह आपको अपने मर्ज़ और उनकी दवाएं गिनवा दे तो जानिए कि आपने उनका विश्वास अर्जित कर लिया है. बंगनामा स्तंभ की पंद्रहवीं क़िस्त.
पुस्तक-समीक्षा: शिवमूर्ति के 'अगम बहै दरियाव' को आंचलिक उपन्यास के खांचे में रखकर देखना उसे न्यून करना होगा. इसे एक सामाजिक-राजनीतिक समझ पैदा करने वाला संवेदनशील उपन्यास माना जाना चाहिए, जिसे इसके नायकों- किसानों और मजदूरों, दलित-पिछड़ों-स्त्रियों- के त्रासद संघर्ष के रूप में पिरोकर बयां किया गया है.