योगी सरकार के सात सालों में उत्तर प्रदेश में अपराध उन्मूलन के अनेक बड़बोले दावों के बावजूद ऐसी पुलिस 'मुठभेड़ों' की ज़रूरत ख़त्म नहीं हो रही जहां भागने की कथित कोशिश में अभियुक्त मार गिराया जा रहा है. या पुलिस जिसे ज़िंदा गिरफ़्तार करना चाहती है, गोली उसके पांव में लगती है अन्यथा...
जिस भी समाज में धर्मभीरुता बढ़ जाती है, उससे अपने धर्म के उदात्त मूल्यों की हिफाजत संभव नहीं हो पाती. पहले वह बर्बरता, बीमारी व असामाजिकता के सन्निपातों, फिर अनेक असली-नकली असुरक्षाओं से पीड़ित होने लग जाता है.
गरीबी आम तौर पर एक ऐसी स्थिति है जिसके शिकार व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पास जीने के लिए आवश्यक बुनियादी चीजें नहीं होतीं, जबकि रंक के साथ गरीबी से पैदा हुई 'कंगाली में आटा गीला' वाली गिरानी से भरी भीषण असहायता भी जुड़ी होती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज कर उसे बेझिझक ज़ाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता की कविता है.
लोकसभा चुनाव में हार को अति आत्मविश्वास का नतीजा बताने वाले योगी आदित्यनाथ उपचुनावों में भाजपा को वांछित जीत दिला देंगे तो माना जाएगा कि उनकी लोकप्रियता का लिटमस टेस्ट हो गया. वहीं, विपक्षी गठबंधन को साबित करना है कि आम चुनाव में उसकी बढ़त तुक्का नहीं थी.
मुसलमानों पर हिंसा करने वाले हिंदू कम हो सकते हैं. लेकिन एक सच यह भी है कि हिंदुओं में बहुलांश को मुसलमानों पर हिंसा से फ़र्क नहीं पड़ता.
अगर अगड़ी जाति को संविधान सम्मत और समता-मूलक समाज के अनुरूप अपने वैश्विक दर्शन को ढालना है, तो अपने विशेषाधिकारों पर सवाल करना होगा.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यामिनी कृष्णमूर्ति देह और नृत्य की ज्यामिति को बहुत संतुलित ढंग और अचूक संयम से व्यक्त व अन्वेषित करती थीं. नर्तकी और नृत्य इस क़दर तदात्म हो जाते थे कि उनको अलगाकर देखना या सराहना संभव नहीं होता था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल को गले नहीं लगा सकते. नागपुर जाकर मोहन भागवत के गले नहीं लग सकते. बावजूद इसके ग़लतफ़हमी है कि ज़ेलेंस्की और पुतिन के गले लग, यूक्रेन-रूस की लड़ाई में मध्यस्थ की छवि गढ़ वे दुनिया और देश जीत लेंगे.
देश के विश्वविद्यालय ख़ासकर केंद्रीय विश्वविद्यालय एक प्रकार से केंद्र सरकार के ‘विस्तारित कार्यालय’ में तब्दील कर दिए गए हैं. कोई भी अकादमिक विभाग बिना प्रशासन की ‘छन्नी’ से गुजरे किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं कर सकता.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.
सरकार के अर्थव्यवस्था व विकास के ढांचे में सामूहिक समाज तो है ही नहीं. वह उसके हिस्सों को अलग-अलग कर उठाती है और विकास के अपने खाकों में इस तरह से फिट करती है कि उसके अपने व कॉरपोरेट जगत के राजनीतिक व आर्थिक स्वार्थ सधते रहें.
एक स्वतंत्र और ख़ुद को विकसित बताने वाले देश में स्त्रियों का सुरक्षित न महसूस कर पाना हमारे लोकतंत्र और समाज की साझी असफलता है, लेकिन अपराधी को समय से सज़ा न दे पाना उससे भी बड़े ख़ौफ़ और शर्म का सबब है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: समाज, शिक्षा, धर्म, मीडिया आदि में जो ज़हर फैल गया है वह रातोंरात ग़ायब नहीं हो जाएगा, न हो रहा है. हमारे समय का एक दुखद अंतर्विरोध यह है कि ये शक्तियां अब भी हावी और सक्रिय हैं, उन्हें समर्थन देने वाला पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग झांसों-वायदों की गिरफ़्त में है.
वक़्फ़ एक विशेष मुस्लिम क्षेत्र है क्योंकि यह सदियों से मुस्लिम संपत्तियों के दान से उपजा है, लेकिन मोदी सरकार इसे पचा नहीं पाई. वक़्फ़ संशोधन विधेयक के ज़रिये इस सरकार का मुस्लिम विरोधी चेहरा एक बार फिर सामने आया है.