राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण हिंदुत्व की राजनीति करने वाले व्यक्ति का संबोधन था. वो, जिसने धर्म की भावुकता और राजसत्ता की बेईमानी से एक ऐसा मिश्रण किया है जिसके ज़रिये वह आम आस्थावान जनता को छल सके.
क्या हुआ जब राम स्वप्न में आए?
तमिल फिल्म अन्नपूर्णी, जिसे नेटफ्लिक्स ने हटा दिया है, को लेकर उपजा विवाद हुआ ही नहीं होता, अगर फिल्म के दृश्य से आहत होने वाले कथित धार्मिकों ने वाल्मीकि रामायण पढ़ ली होती.
यह विडंबना ही है कि मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम के नाम पर संविधान की मर्यादा का हनन हो रहा है और हिंदू इसमें उल्लास, उत्साह एवं उमंग से भाग ले रहे हैं तथा गर्व का अनुभव भी कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में आगमन की तैयारियां भी रामलला के स्वागत की तैयारियों से कमतर नहीं हैं. स्ट्रीट लाइट्स पर मोदी के साथ भगवान राम के कट-आउट्स लगे हुए हैं, जिनकी ऊंचाई पीएम के कट-आउट्स से भी कम है. यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान राम आएंगे या प्रधानमंत्री मोदी को आना है?
एक सरकारी नौकरी को पाने के लिए लाखों लाख युवा अपनी युवावस्था, अपनी उत्पादकता के सबसे चरम वर्षों को जिस पूरी यंत्रणा से गुज़ारते हैं, क्या वह वाकई ज़रूरी है?
जहां तक धार्मिक आस्थाओं की बात है, उन्हें यों भी समझ सकते हैं कि प्राय: सभी धार्मिक समूहों में ऐसी पवित्र पुस्तकें और बानियां हैं, जिन्हें परमेश्वरकृत ‘परम प्रामाणिक सत्य’ माना जाता है. इनमें आस्था इस सीमा तक जाती है कि उनमें जो कुछ भी कहा या लिखा गया है, वही संपूर्ण सत्य और ज्ञान है और जो उनमें नहीं है, वह न सत्य है, न ज्ञान.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: राम की महिमा है कि उनकी स्तुति में शामिल होकर हत्यारे-लुटेरे-जघन्य अपराधी अपने पाप धो लेंगे और राम-धवल होकर अपना अपराधिक जीवन जारी रखेंगे. राम की महिमा है कि उन्होंने इतना लंबा वनवास सहा, अनेक कष्ट उठाए जो यह तमाशा, अमर्यादित आचरण भी झेल लेंगे.
अयोध्या को भारत की, या कहें हिंदुओं की धार्मिक राजधानी के रूप में स्थापित करने का राज्य समर्थित अभियान चल रहा है. लोगों के दिमाग़ में 22 जनवरी, 2024 को 26 जनवरी या 15 अगस्त के मुक़ाबले एक अधिक बड़े और महत्त्वपूर्ण दिन के रूप में आरोपित करने को भरपूर कोशिश हो रही है.
हिंदू समाज या कहें संपूर्ण भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां सबको आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है. भले सत्ताधारी इसे अमृतकाल कहें किंतु यह संक्रमण काल है. दुर्बुद्धि और नफ़रत का संक्रमण काल, जहां मर्यादाएं विच्छिन्न हो रहीं हैं.
आज की अयोध्या में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के समक्ष आत्मसमर्पण और उसका प्रतिरोध न कर पाने की असहायता बढ़ती जा रही है. आम लोगों के बीच का वह स्वाभाविक सौहार्द भी, जो आत्मीय रिश्तों तक जाता था, अब औपचारिक हो चला है.
अयोध्या का मंदिर हिंदू जनता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठन के कसे हुए शिकंजे का मूर्त रूप है. इसमें होने जा रही प्राण-प्रतिष्ठा का निश्चय ही भक्ति, पवित्रता और पूजा से लेना-देना नहीं है.
साल 2002 में बिलक़ीस के साथ हुई ज़्यादती के बाद गुजरात की दो अधिकारियों- गोधरा की तत्कालीन डीएम जयंती रवि और गोधरा सिविल अस्पताल की डॉक्टर रोहिणी कुट्टी ने उस समय के तमाम राजनीतिक-प्रशासनिक दबावों के बीच जिस ईमानदारी से अपनी भूमिका निभाई, वो वाकई एक मिसाल है.
सवाल है कि राम मंदिर को लेकर 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अंतिम फैसला सुनाए जाने के बाद पूरे चार साल तक मोदी सरकार हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी रही. जवाब यही है कि 2024 के आम चुनावों के कुछ दिन पहले ही रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बहाने हिंदुत्व का डंका बजाकर वोटों की लहलहाती फसल काटना आसान बन जाए.
मालदीव के मंत्रियों द्वारा भारत के प्रधानमंत्री को लेकर की गईं अपमानजनक टिप्पणियां कोई फौरी प्रतिक्रिया थीं या इनकी वजह कहीं गहरी है?