श्याम बेनेगल सिनेमा और कैमरे के माध्यम से बेनेगल ने जीवन को बड़ी शिद्दत से जीया. उन्होंने फिल्मों को बनाने का एक तय फॉर्मूला के विपरीत यथार्थवादी रास्ता चुना. इतना ही नहीं उन्होंने सिने ट्रेंड को बदला, जहां हाशिए का समाज सिनेमा के केंद्र में आया.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज्ञानेंद्र पांडेय की ‘मेन एट होम’ पुरुषों की घरों में अनुपस्थिति के बारे में है. ज्ञानेंद्र बताते हैं कि दक्षिण एशियाई घर-परिवार के इतिहास में मर्द-जाति की गै़र-हाज़िरी अब भी कायम है. बच्चे जनने और पालन-पोषण को लेकर समाज की आम धारणा के चलते गृहस्थी आज तक औरत और उसके बच्चों की दुनिया मानी जाती है.
पुस्तक अंश: ‘असहमति की आवाज़ें’ में रोमिला थापर ने भारत में असहमति और विरोध के अहिंसक स्वरूपों की बात की है. वे लिखती हैं कि विरोध की अभिव्यक्ति अलग-अलग संस्कृतियों और समाजों में अलग-अलग स्वरूप लेती रही है.
स्वामीनाथन के भीतर एक सर्जनात्मक दृष्टि थी. उनका मूल कर्म आलोचक-दृष्टि को बरतना नहीं, बल्कि सर्जनात्मक कर्म करना था. गीता कपूर को सर्जनात्मक दृष्टि की कोई दरकार या कोई ज़रूरत नहीं थी.
इक्कीसवीं सदी अल्पवयस्क अवस्था में ही शर्म से झेंपी सदी बन रही है. अब क्या करे कोई कवि? बेशर्म होकर झंडा फहराए संविधान की धज्जियां उड़ाने वालों का? या कसीदे लिखे बच्चों के हत्यारों के लिए? या युद्ध के सौदागरों के लिए विज्ञापन लिखे? 'रचनाकार का समय' में पढ़िए अनुज लुगुन को.
मिदनापुर ज़िले के कॉनटाई सबडिवीज़न के गांव में आज़ादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश पुलिस के ख़िलाफ़ नागरिक इतनी दृढ़ता से खड़े हुए और 'पिछाबो नी' यानी 'पीछे नहीं हटेंगे' का नारा दिया कि गांव का नाम ही पीछाबोनी हो गया. बंगनामा की अठारहवीं क़िस्त.
जयंती विशेष: आशापूर्णा देवी बंकिम, टैगोर और शरत के बाद के दौर की पहली ऐसी बांग्ला साहित्यकार हैं, जिन्होंने मध्यवर्गीय बंगाली समाज में महिलाओं के हाशियाकरण पर बेबाकी से कलम चलाई. सात दशकों से ज्यादा के साहित्यिक जीवन में उनकी एक बड़ी उपलब्धि अपनी जड़ों के प्रति ईमानदार रहने और सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाने को माना जाता है.
पुस्तक अंश: डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने आजादी, समानता एवं बंधुत्व को राजनीतिक एवं सामाजिक लोकतंत्र की बुनियाद बताते हुए कहा कि 'बंधुत्व का मतलब सभी भारतीयों के मध्य आपसी भाईचारा है. यही एक सिद्धांत है, जो सामाजिक जीवन में एकता और एकात्मता लाता है. संयुक्त राज्य में जातीय समस्या नहीं है. भारत में जातियां हैं. ये जातियां राष्ट्रविरोधी हैं.'
बापसी सिधवा की रचनात्मकता हमें हमारे समाजों को समझने की एक दृष्टि तो देती ही है पर वह हमें हमारे इतिहासों पर भी प्रश्न उठाने के बिंदु देता है. सिधवा उन चंद साहित्यकारों में हैं, जिनकी पहचान के कई आयाम थे. इसलिए सिधवा का गुज़रना इस उपमहाद्वीप की साझी संस्कृति को याद करने का भी एक मौका भी है और साझी क्षति भी.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय कल्पना-सृजन-विचार का लगभग ज़रूरी कर्तव्य हमें आश्वस्त करना है कि हम अपनी बहुलता बचा सकते हैं; कि हम विकल्पों को सोच और रूपायित कर सकते हैं, कि हमारे पास ऐसे बौद्धिक-सर्जनात्मक उपकरण हो सकते हैं जो हमें प्रतिरोध के लिए सन्नद्ध करें.
गीता कपूर ने जो कला की वैचारिकी विकसित की है वह महत्त्वपूर्ण है, उसे जानना ज़रूरी है, लेकिन उस वैचारिकी से समकालीन या आधुनिक कला की समझ बढ़ती हो ऐसा मुझे नहीं लगता— उस वैचारिकी का आतंक है, लेकिन उसका कोई उपयोग नहीं है.
रचनाकार को अक्सर यह मुगालता होता है कि वह अपने समय को दर्ज कर रहा है, और दर्ज भी ऐसे कि गोया अहसान कर रहा है. और गोया ऐसे भी कि सिर्फ वही कर रहा है, अगर वह नहीं करेगा तो समय दर्ज हुए बिना ही रह जाएगा. इस चमकीले मुहावरे से खुद को बचा लेना चाहता हूं कि मैं अपने समय को दर्ज करने के महान काम में लगा हुआ हूं.
पुस्तक समीक्षा: कौशल किशोर की किताब 'भगत सिंह और पाश: अंधियारे का उजाला' इस बात का सिलसिलेवार दस्तावेज़ है कि इस देश के जन-आंदोलनों, संस्कृतिकर्मियों और रचनाकारों के पास भगत सिंह और पाश की विरासत है, जिन्होंने जनता की लड़ाई पूरी ताकत और ईमानदारी से लड़ी है.
एक पाठक के तौर पर फर्नान्दो पेसोआ लेखकों-किताबों की बनती-बिगड़ती रहने वाली मेरी उस लिस्ट में हमेशा शामिल रहा है जिन्हें हर साल पढ़ा-गुना जाना होता है.
इस साल पेंगुइन स्वदेश ने हिंदी और भारतीय भाषाओं में कई किताबें प्रकाशित की हैं. 2024 के अपने हासिल का लेखा-जोखा दे रही हैं पेंगुइन रेंडम हाउस इंडिया’ में भारतीय भाषाओं की प्रकाशक वैशाली माथुर.