कला वर्तमान भारत का बेचैन अंत:करण है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी : कलाविद् शनय झावेरी के 'भारत का कल्पना-संस्थान’ नाम के संचयन से स्पष्ट होता है कि हमारी समकालीन कला में रंगबोध, संयोजन, दृष्टि, शैली, सामग्री आदि की अपार और अदम्य बहुलता है.

‘राष्ट्र और नैतिकता’ भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को समझने की नैतिक मार्गदर्शिका है

पुस्तक समीक्षा: राजीव भार्गव की ‘राष्ट्र और नैतिकता : नए भारत से उठते 100 सवाल ‘न केवल भारत के समकालीन नैतिक संकटों पर प्रकाश डालती है, बल्कि यह हर उस भारतीय के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ है जो राष्ट्र के भविष्य को समझना और उसमें योगदान देना चाहता है.

वेनिस बिनाले: कला संसार का उत्सव ज़रूर मनाती है पर उसके त्रास को अनदेखा नहीं करती

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेनिस द्वैवार्षिकी की थीम थी- फॉरेनर्स एवरीवेयर. बहुत से देशों में आवश्यक कलात्मक स्वतंत्रता, सुविधाओं के अभाव के चलते कलाकार अजनबी देशों में भागकर बसते और कला सक्रिय होते हैं. ऐसी कला में अक्सर अवसाद का भाव भी होता है, मुक्ति के अलावा.

बंगनामा: बंगाली विविधता के दो पहलू

घोटी और बांगाल समुदाय कई विषयों पर एकमत हो सकते हैं पर जिस बात पर सहमति लगभग असंभव है वह है फुटबॉल का मैदान. सबसे बड़ी टीम कौन-मोहन बागान या ईस्ट बंगाल? बंगनामा स्तंभ की तेरहवीं क़िस्त.

कमलादेवी चट्टोपाध्याय की जीवनी आधुनिक स्त्रीवादी स्वर को समझने की राह दिखाती है

पुस्तक समीक्षा: अमेरिकी इतिहासकार निको स्लेट द्वारा कमलादेवी चट्टोपाध्याय की जीवनी 'द आर्ट ऑफ फ्रीडम' उनके उस योगदान को केंद्र में लाती है जिसे इतिहास ने विस्मृत कर दिया है.

भारत की नई राजनीतिक संस्कृति में ज्ञान के बजाय अज्ञान का महिमामंडन हो रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पहले के निज़ामों में कमोबेश संस्कृति की स्वतंत्रता और गरिमा का एहतराम और आदर दोनो ही थे: वर्तमान निज़ाम ने संस्कृति को राजनीति की दासी और अधिक से अधिक उसे सत्ता के महिमामंडन और शोभा की चीज़ बना दिया है.

चरथ भिक्खवे: ‘हम कब तक श्रेष्ठ का निर्यात कर कमतर से अपना काम चलाते रहेंगे?’

हिंदी के सुपरिचित कवि व संपादक प्रो. सदानंद शाही इन दिनों ‘साखी’और प्रेमचंद साहित्य संस्थान (गोरखपुर) के तत्वावधान में ‘चरथ भिक्खवे’ नाम की सचल कार्यशाला व साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा निकाल रहे हैं. उनसे बातचीत.

परंपरा और परिवर्तन: मधुबनी पेंटिंग की विरासत पर रानी झा से विशेष बातचीत

मधुबनी पेंटिंग का प्रारंभिक इतिहास अगर चित्त (मन) की बात करता है, तो आधुनिक इतिहास वित्त की. एक समय महिलाएं ये चित्र आध्यात्मिक भाव से बनाती थीं और आत्मसंतोष प्राप्त करती थीं. अब इसका व्यवसायीकरण हुआ है, तो वित्त भी इससे जुड़ गया, जो सुखद है.

स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहने वाला आरएसएस आज विउपनिवेशीकरण का दावा कैसे कर सकता है?

पिछले वर्षों में अदालतें अपने निर्णयों के संदर्भ बिंदु संविधान की जगह धार्मिक ग्रंथों, धर्मशास्त्रों को बना रही हैं. इस तरह हिंदुओं की सार्वजनिक कल्पना को बदला जा रहा है.

बंगनामा: गांव, घर और सपना

बतौर एक युवा अधिकारी मैं चाहता था कि सरकारी राशि से बनते ग्रामीण घरों का निर्माण नए नक्शों के अनुसार हो, लेकिन प्रत्येक सपना कहां सच हो पाता है. बंगनामा स्तंभ की बारहवीं क़िस्त.

धीरेंद्र झा ने गोलवलकर की जीवनी के ज़रिये भारतीय फ़ासिज़्म की जीवनी लिखी है

धीरेंद्र के. झा की 'गोलवलकर: द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' साफ़ करती है कि सावरकर के साथ एमएस गोलवलकर को भारतीय फ़ासिज़्म का जनक कहा जा सकता है. इसे पढ़कर हम यह सोचने को बाध्य होते हैं कि क्यों फ़ासिज़्म के इस रूप के प्रति भारत के हिंदुओं में सहिष्णुता है.

सारंगढ़ की रियासत और फांसी के दो किस्से

1775 की एक सुबह कलकत्ता में नंद कुमार को फांसी दे दी गयी थी. इतिहास के उस स्याह अध्याय में तीन बरस बाद एक पन्ना जुड़ गया जब छत्तीसगढ़ में उस मुक़दमे के एक प्रमुख किरदार की मृत्यु हो गयी.

अपने ही देश से खदेड़े जा रहे फ़िलिस्तीनी

पुस्तक अंश: 'फ़िलिस्तीन के लोगों के व्यवहार से लगता है कि उन्हें लोगों से मुहब्बत करना आता है. मैंने देखा कि कितनी छोटी-छोटी चीज़ों का वे ध्यान रखते थे. पूरे मिडिल-ईस्ट में बहुत मुहब्बत है, और बेपनाह मुहब्बत है हिंदुस्तान के लिए.'

‘हम गांधी की कल्पना के सदस्य थे, महान स्वप्न के; जब स्वप्न समाप्त हुआ हम सो रहे थे’

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कृष्ण कुमार की ‘थैंक यू गांधी’ कई बार संस्मरणात्मक लगते हुए भी आज के भारत के बारे में है. उसमें कथा, कथा-इतर गद्य, स्मृतियां, आत्मवृतांत, विचार-विश्लेषण आदि सबका रसायन बन गया है और उनमें पाठक की आवाजाही सहज ढंग से होती चलती है.

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