दिल्ली हाईकोर्ट के तीन छात्र कार्यकर्ताओं को यूएपीए के मामले में ज़मानत देने के निर्णय को अन्य न्यायालयों द्वारा नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल न करने का आदेश देकर शीर्ष अदालत ने फिर बता दिया कि व्यक्ति की आज़ादी और राज्य की इच्छा में वह अब भी राज्य को तरजीह देती है.
इंग्लैंड की फुटबॉल टीम ने यूरो 2020 के दौरान 'ब्लैक लाइव्स मैटर' को समर्थन देने के लिए 'घुटनों पर बैठने' का निर्णय लिया है. खेल जगत के तमाम महानायक और मनोरंजन जगत के सम्राट, जो संवेदनशील मुद्दों पर मौन रहना चुनते हैं, शायद इंग्लैंड की टीम से कुछ सीख ले सकते हैं.
उत्तराखंड में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. हर चुनाव जनमानस में व्याप्त अवधारणा से जीता जाता है. चार साल में अराजक तरीके से जिस तरह से उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार चली, उसके चलते कुछ महीने बाद होने वाले चुनावों में भाजपा की डगमगाती नैया को अकेले तीरथ सिंह रावत कैसे पार लगा पाएंगे?
एम्स के एक डॉक्टर द्वारा एक बड़े कारोबारी संस्थान के मालिक रामदेव को लिखा गया पत्र.
वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के माध्यम से ये बताया जा रहा है कि ये वैश्विक महामारी है और हर देश प्रभावित है, इसलिए मोदी जी बेचारे क्या कर सकते हैं. इस नरेटिव से सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने का प्रयास जारी है, जबकि सच्चाई यह है कि दुनिया में कोविड के दूसरे लहर का सबसे ज़्यादा असर भारत पर ही पड़ा है. जिस देश का जन स्वास्थ्य तंत्र सुदृढ़ है, वहां इसका असर अपेक्षाकृत कम हुआ.
इंसान की आज़ादी सबसे ऊपर है. जो ज़मानत एक टीवी कार्यक्रम करने वाले का अधिकार है, वह अधिकार गौतम नवलखा या फादर स्टेन का क्यों नहीं, यह समझ के बाहर है. अदालत कहेगी हम क्या करें, आरोप यूएपीए क़ानून के तहत हैं. ज़मानत कैसे दें! लेकिन ख़ुद पर यह बंदिश भी खुद सर्वोच्च अदालत ने ही लगाई है.
मुर्दे इतने अधिक हो गए कि लाशों को ठिकाने लगाने का सिस्टम बैठ गया. अब वे हिसाब मांगेगी. मृत्यु का, आंसू का, असहाय और अकेले पड़ने का, लुटने का, अस्पताल से लेकर अंतिम यात्राओं तक अपना आत्म सम्मान खोने का. जितना ढंकेंगे, चुप कराएंगे, झूठ बोलेंगे, सच उतना ही साफ होकर सामने आता जाएगा.
हीरेन मुखर्जी ने कहा था कि जवाहरलाल नेहरू सफल राजनेता नहीं हो सके क्योंकि राजनीति में सफलता के लिए जो असभ्यता चाहिए, नेहरू उसके सर्वथा अयोग्य थे.
बीते कुछ सालों से बहुसंख्यकवाद पर सामाजिक ऊर्जा और विचार दोनों ख़र्च किए गए, लेकिन आज संकट की इस घड़ी में बहुसंख्यकवादी इंफ्रास्ट्रक्चर कितना काम आ रहा है? महामारी ने यह अवसर दिया है कि अपनी प्राथमिकताएं बदलकर संकुचित, उग्र और छद्म राष्ट्रवाद को त्याग दिया जाए.
पारुल खक्कर की कविता एक पारंपरिक गुजराती हिंदू मन का विस्फोट है. उसमें तात्कालिकता का आवेग है, कविता रचने का कोई कलात्मक प्रयास नहीं. वह शोक गीत है, मर्सिया है. गुजरात के समाज में ऐसी कविता अगर फूट पड़े तो अस्वाभाविक लगना ही स्वाभाविक है.
क्या पैसे, शोहरत और सुरक्षा की परवाह किए बगैर चुपचाप समाज के सबसे वंचित तबके की मदद करने वाले डॉ. प्रदीप बिजलवान के अस्पताल और ऑक्सीजन की जद्दोजहद के बीच गुज़र जाने के कोई मायने हैं? क्या वे भी उस सरकारी रिकॉर्ड में मौत का महज़ एक आंकड़ा बनकर रह जाएंगे, जिसमें आज की तारीख़ में लगभग दो लाख मौतें दर्ज हैं?
शैलजा टीचर प्रसंग बताता है कि माकपा में व्यापक जनमत को लेकर कोई विशेष सम्मान नहीं है. वह जनमत को पार्टी लाइन के आगे नहीं मानती है. इसी हठधर्मिता के कारण वो सिंगूर और नंदीग्राम में जनता के विरोध के बावजूद अपनी लाइन पर अड़ी रही और बर्बाद हो गई. सत्ता चली गई, लाइन बची रह गई!
देश जब कोविड- 19 से जूझ रहा है तब ओडिशा के माली पहाड़ के लोग कंपनी और सरकार से जूझ रहे हैं. वे सरकार से पूछ रहे हैं कि महामारी में लोगों की आवाजाही तो प्रतिबंधित हो गई है, पर कंपनियों का आदिवासी इलाकों में प्रवेश कब बंद किया जाएगा?
इंसानियत का ज़िक्र कहीं तहखाने में फ़ेंक दी गई संवेदना को जगाने की ताक़त रखता है, इसीलिए सत्ता इस शब्द को बर्दाश्त नहीं कर सकती. बावजूद ऐतिहासिक दुरुपयोग के मानवता शब्द में एक विस्फोटक क्षमता है. इसे अगर ईमानदारी से इस्तेमाल करें, तो यह भीतर तक जमी बेहिसी की चट्टानी परतों को छिन्न-भिन्न कर सकता है.
कोरोना संक्रमण मोदी सरकार की स्क्रिप्ट के हिसाब से नहीं आया था और इसीलिए इसका कोई तसल्लीबख़्श जवाब उसके पास नहीं है.