नमाज़ पर आखिर क्यों करे आपत्ति सत्ता और जनता

आज, ऐसा क्यों है कि मुसलमान प्रार्थना यानी नमाज़ का एक साधारण क्रियाकलाप कई लोगों को शिकायत और हिंसा के लिए उकसाता है और पुलिस को उनकी आपराधिक जवाबदेही तय करने के लिए प्रेरित करता है?

कभी बायोलॉजिकल, कभी नान बायोलॉजिकल…प्रधानमंत्री ‘इच्छाधारी’ हो गए हैं क्या?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिनों अपने बहुप्रचारित 'पहले पाडकास्ट इंटरव्यू' में यह कहा कि वे कोई देवता (या भगवान) नहीं बल्कि मनुष्य हैं और उनसे भी गलतियां होती हैं. इससे पहले गत वर्ष लोकसभा चुनाव के वक्त एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि कि वे जैविक रूप से पैदा ही नहीं हुए और भगवान ने उन्हें शक्ति के साथ भेजा है.

‘मेन एट होम: घरेलू ज़िंदगी में मर्दों की हाज़िरी-गै़रहाज़िरी का लेखाजोखा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज्ञानेंद्र पांडेय की ‘मेन एट होम’ पुरुषों की घरों में अनुपस्थिति के बारे में है. ज्ञानेंद्र बताते हैं कि दक्षिण एशियाई घर-परिवार के इतिहास में मर्द-जाति की गै़र-हाज़िरी अब भी कायम है. बच्‍चे जनने और पालन-पोषण को लेकर समाज की आम धारणा के चलते गृहस्‍थी आज तक औरत और उसके बच्‍चों की दुनिया मानी जाती है.

रचनाकार का समय: मेरा समय छोटी मछलियों के दुख का समय है…

इक्कीसवीं सदी अल्पवयस्क अवस्था में ही शर्म से झेंपी सदी बन रही है. अब क्या करे कोई कवि? बेशर्म होकर झंडा फहराए संविधान की धज्जियां उड़ाने वालों का? या कसीदे लिखे बच्चों के हत्यारों के लिए? या युद्ध के सौदागरों के लिए विज्ञापन लिखे? 'रचनाकार का समय' में पढ़िए अनुज लुगुन को.

पुरुषों को त्रिशूल देने के बाद विश्व हिंदू परिषद अब बांटेगा दिल्ली में स्त्रियों को कटार

दिल्ली में चल रही चुनावी सरगर्मियों के बीच विश्व हिंदू परिषद राजधानी में कार्यक्रम आयोजित कर स्त्रियों और लड़कियों को कटार बांट रहा है. यह संगठन इस जनवरी 20 हज़ार से ज्यादा स्त्रियों को ‘शस्त्र दीक्षा समारोह’ के तहत यह हथियार देने जा रहा है.

महाराष्ट्र के एकमात्र गोंडी मीडियम स्कूल को सरकार क्यों बंद करना चाहती है?

गढ़चिरौली ज़िले के मोहगांव में ग्रामसभा 2019 से गोंडी मीडियम स्कूल संचालित कर रही है. वर्ष 2022 में सरकार ने उसे अवैध घोषित कर दिया था. इसे बचाने के लिए अब बम्बई की उच्च अदालत में क़ानूनी लड़ाई चल रही है.

मधु लिमये पक्के राष्ट्रप्रेमी और देशभक्त थे, जो सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ खड़े रहे

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मधु लिमये ने अपने 50 वर्ष भी अधिक लंबे सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अपने राजनीतिक सिद्धांतों को मज़बूती से पकड़े रखा और उनसे कभी कोई समझौता नहीं किया. वे द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के ख़िलाफ़ थे और हमेशा सांप्रदायिक मुस्लिम राजनीति की मुख़ालिफ़त की.

जयपुर: जेल में बुनियादी सुविधाओं की कमी पर क़ैदियों ने लिखे ख़त, कहा- सांस लेने को भी हवा नहीं

जयपुर की केंद्रीय जेल में बंद एक दर्जन से अधिक क़ैदियों ने द वायर को चिट्ठियों के ज़रिये अपनी शिकायतें भेजी हैं, जिसमें भीड़भाड़ वाली इस जेल में दैनिक कामों से लेकर भोजन की ख़राब गुणवत्ता को लेकर क़ैदियों के संघर्ष को साझा किया गया है.

छत्तीसगढ़: मुकेश चंद्राकर को अपने काम के लिए पहले भी मिलती रही थीं धमकियां

छत्तीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने अगस्त 2024 में द वायर हिंदी पर 'बस्तर के पत्रकारों की आंध्र प्रदेश में गिरफ़्तारी' पर उनकी रिपोर्ट प्रकाशित होने के अगले दिन कहा था कि राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इस ख़बर पर आपत्ति जताई थी.

कल्पना की बहुलता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय कल्पना-सृजन-विचार का लगभग ज़रूरी कर्तव्य हमें आश्वस्त करना है कि हम अपनी बहुलता बचा सकते हैं; कि हम विकल्पों को सोच और रूपायित कर सकते हैं, कि हमारे पास ऐसे बौद्धिक-सर्जनात्मक उपकरण हो सकते हैं जो हमें प्रतिरोध के लिए सन्नद्ध करें.

मुकेश चंद्राकर की हत्या: बस्तर में पत्रकारिता की क़ब्र

पिछले डेढ़ दशक से बस्तर में माओवाद से मुकाबले के नाम पर ढेर सारी पूंजी पहुंची है, ठेकेदार पनपे हैं और तमाम निर्माण-कार्य शुरू हुए हैं. जाहिर है, उनसे जुड़े मुनाफे के तार को झकझोरने की कोशिश जानलेवा होगी. इसलिए इस हमलावर के पहले निशाने पर बस्तर के पत्रकार आ जाते हैं.

लद्दाख में सेना ने लगाई शिवाजी की प्रतिमा; स्थानीय नेताओं, पूर्व सैनिकों का विरोध

लद्दाख में पैंगोंग झील के किनारे शिवाजी की प्रतिमा की स्थापना पर भारतीय सेना में विवाद उत्पन्न हो गया है. कई वरिष्ठ अधिकारी और स्थानीय नेता इस कदम को राजनीतिक प्रतीकवाद मानते हुए विरोध जता रहे हैं.

जीवन को लेकर साहित्य कभी पूर्णकाय नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लिखना पर्याप्त होने, सफल और सार्थक होने के भ्रम को ध्वस्त करता है और मनुष्य होने की अनिवार्य ट्रैजडी के रू-ब-रू खड़ा करता है. हम आधे-अधूरे हैं यह साहित्य के ट्रैजिक उजाले में हम कुछ साफ़ देख पाते हैं.

रचनाकार का समय: ‘मुड़ कर देखती हूं अस्सी बरस’

साठेक बरस पहले तक, नफ़रत, दंगे और हिंसा काफ़ी हद तक रोज़मर्रा की जिंदगी को महफ़ूज़ रहने देते थे. अब तो धार्मिक और वैचारिक भेदभाव, तमाम तबकों और धर्मों के बीच स्थायी नफ़रत और वैमनस्य जगा चुके हैं. महात्मा गांधी के प्रार्थना प्रवचनों से लेकर फेक ख़बरों और बढ़ते प्रदूषण के उदाहरण देते हुए वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग एक लम्बे दौर का बड़े आत्मीय स्वर में स्मरण करती हैं.

बस्तर का जीवन: ‘हमारे हिस्से का सूरज थोड़ा और गहरा, अधिक लाल होता जा रहा है’

बस्तर में 2024 आदिवासी स्त्रियों के हिस्से अत्याचार का एक नया अध्याय- उन्हें दर्दनाक मौत की सज़ा देने की शुरुआत का साल है. नक्सली संगठनों ने अपनी रणनीति में यह कैसा बदलाव किया है यह तो वही समझ सकते हैं, पर अब आदिवासी स्त्रियां उनके निशाने पर हैं.

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