कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज अगर साहित्य और कलाएं निर्भयता का परिसर नहीं हैं, अगर वे निर्भय नहीं करतीं तो यह उनका नैतिक और सभ्यतामूलक कदाचरण होगा. भय के आगे आत्मसमर्पण करना भारतीय प्रश्नवाची परंपरा, लोकतंत्र और साहित्य-कलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ विश्वासघात के बराबर होगा.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भाषाओं की विविधता और उनमें रचना और विचार, ज्ञान और अनुभव की जो विपुलता और सक्रियता है उसे उजागर करें तो हर भारतीय को यह अभिमान सहज हो सकता है कि वह एक बहुभाषिक, बहुधार्मिक राष्ट्र का नागरिक है जिसके मुकाबले भाषाओं और बोलियों की संख्या कहीं और नहीं है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र में आलोचना, वाद-विवाद और प्रश्नवाचकता की जगहें सिकुड़ जाएं तो ऐसे लोकतंत्र को पूरी तरह से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पीटर ब्रुक ने पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विश्व रंगमंच पर महाकाव्यात्मक दृष्टि का एक तरह से पुनर्वास किया. शेक्सपियर, अत्तार, महाभारत आदि सभी नाटक उनके लिए मनुष्य के संघर्ष, व्यथा-यंत्रणा, हर्ष-विषाद, उल्लास और उदासी, सार्थकता और व्यर्थता, उत्कर्ष और पराजय आदि की कथा कहने जैसे थे.
वीडियो: युवा कथाकार अणुशक्ति सिंह का पहला उपन्यास ‘शर्मिष्ठा' बीते दिनों आया है. इस उपन्यास के मद्देनज़र उनसे मिथकीय और पौराणिक चरित्रों में स्त्री की मौजूदगी, सिंगल मांओं के संघर्ष, स्त्री-पुरुष के कथित वैध और अवैध प्रेम समेत विभिन्न विषयों पर फ़ैयाज़ अहमद वजीह की बातचीत.