आगामी 17 से 21 दिसंबर तक यति नरसिंहानंद की अध्यक्षता में विश्व धर्म संसद होने जा रही है. इसकी वेबसाइट कहती है कि इस्लाम की समाप्ति के लिए यह कार्यक्रम किया जा रहा. क्या हिंदू धर्म का अपने आप में अस्तित्व नहीं है कि ये लोग धर्म की विरोधात्मक परिभाषा दे रहे हैं?
18 जनवरी 1948 को अपने अंतिम उपवास को समाप्त करने के ठीक नौ दिन बाद, यानी अपनी हत्या से 3 दिन पहले गांधी दिल्ली के महरौली स्थित दरगाह क़ुतुबउद्दीन बख़्तियार काकी की मज़ार पर गए थे. दिल्ली में शांति और सौहार्द क़ायम करने के लिए की गई इस यात्रा को उन्होंने तीर्थ यात्रा कहा था. यह उनकी आखिरी सार्वजनिक यात्रा थी.
यह लेखक के लिए हताश करने वाला समय है, मुश्किल समय है. सच लिखना शायद इतना जोखिम भरा कभी नहीं था जितना अब है. सच को पहचानना भी लगातार मुश्किल होता गया है.
संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' तथा 'समाजवाद' शब्दों को हटाए जाने की मांग लोकतंत्र और संविधान के लिए ख़तरे की सूचक है. शब्दों में बदलाव के बजाय हमारी मानसिकता में बदलाव की मांग होनी चाहिए.
यूपी उपचुनाव के नतीजों के समय याद रखना चाहिए कि मतदान के दिन कई जगह पुलिसकर्मी नापसंद मतदाताओं को मतदान से वंचित करने के लिए उनके पहचान पत्र चेक करते, राह रोकते, उन पर रिवॉल्वर तक तानते दिखे थे. सत्ता तंत्र इस तरह चुनाव कराने लगेगा तो लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा.
90 के दशक से ही राजनीति द्वारा धर्म के संगठित और सुनियोजित उपयोग की जो प्रक्रिया आरंभ हुई 2014 के बाद उसमें और तेज़ी आई. पिछले कुछ वर्षों में तो छोटे स्थानीय धार्मिक मेलों में राष्ट्रवाद की घुसपैठ शुरू हुई है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पहले के निज़ामों में कमोबेश संस्कृति की स्वतंत्रता और गरिमा का एहतराम और आदर दोनो ही थे: वर्तमान निज़ाम ने संस्कृति को राजनीति की दासी और अधिक से अधिक उसे सत्ता के महिमामंडन और शोभा की चीज़ बना दिया है.
जिस भी समाज में धर्मभीरुता बढ़ जाती है, उससे अपने धर्म के उदात्त मूल्यों की हिफाजत संभव नहीं हो पाती. पहले वह बर्बरता, बीमारी व असामाजिकता के सन्निपातों, फिर अनेक असली-नकली असुरक्षाओं से पीड़ित होने लग जाता है.
कहा जा रहा है कि रुद्रप्रयाग ज़िले के गांवों में ग्राम सभा ने ऐसे बोर्ड लगाए हैं. हालांकि, ग्राम प्रधान के अनुसार इन्हें ग्रामीणों ने लगाया है. विश्व हिंदू परिषद ने इस मसले को अपना समर्थन देकर माहौल उग्र कर दिया है.
मुसलमानों पर हिंसा करने वाले हिंदू कम हो सकते हैं. लेकिन एक सच यह भी है कि हिंदुओं में बहुलांश को मुसलमानों पर हिंसा से फ़र्क नहीं पड़ता.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.
किसी भी देश में बहुसंख्यकवाद हो, उसका प्रभाव दूसरे देश की प्रगति को बाधित करेगा. दोनों देशों की छवियां भी इससे प्रभावित होंगी. यदि भारत और बांग्लादेश में से एक में भी धर्मनिरपेक्षता ख़त्म होती है तो ऊपर से चाहे जितने भी समझौते कर लिए जाएं, कभी अमन क़ायम नहीं हो सकता.
बांग्लादेश के मूल्यों और संस्कृति के लिए घरेलू सांप्रदायिकता की अपेक्षा भारत में होने वाली मुसलमान विरोधी बयानबाज़ी और राजनीति ज़्यादा घातक है. भारत में मुसलमानों पर किए जा रहे व्यक्तिगत या संगठित अत्याचार हों, या अयोध्या और 'लव जिहाद' से संबंधित अदालती फैसले, इन सबका घातक प्रभाव बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता पर होता है.
बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था के बारे में विशेषज्ञ मानते हैं कि इसके सभी अंग विकसित हो रहे हैं, हालांकि बढ़ती हुई असमानता आज भी चिंता का विषय है.
बांग्लादेश में भारत के विरोध के तीन प्रमुख कारण नज़र आते हैं- सांप्रदायिक ताक़तें, दक्षिणपंथी राजनीतिक दल और घरेलू कारणों से भारत को लेकर खड़ा किया गया भय.