साहित्य आलोचना से स्त्री स्वर नदारद क्यों है

वीडियो: हिंदी साहित्य में आलोचना विधा में चंद स्त्रियों के नाम ही सामने आते है, साथ ही उनकी आलोचना का दायरा समकालीन लेखिकाओं को बमुश्किल ही छूता है. इसकी क्या वजह है? वरिष्ठ आलोचक डॉ. रश्मि रावत और युवा समीक्षक अदिति भारद्वाज के साथ चर्चा कर रही हैं मीनाक्षी तिवारी.

आलोचना की अनुपस्थिति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र में आलोचना, वाद-विवाद और प्रश्नवाचकता की जगहें सिकुड़ जाएं तो ऐसे लोकतंत्र को पूरी तरह से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.

जीवन के ज़रूरी मुद्दों को लेकर अप्रासंगिक होती बहसें

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ग़रीबी, बेरोज़गारी, कुपोषण, शिक्षा का लगातार गिरता स्तर, बढ़ती विषमता, रोज़-ब-रोज़ बढ़ाई जा रही हिंसा-घृणा, असह्य हो रही महंगाई आदि मुद्दों पर बहस ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे जुमले का खोखलापन उजागर कर देगी, इसलिए उन्हें बहस से बाहर रखना सत्ता की सुनियोजित रणनीति है.

आलोचकों को गांधी के प्रासंगिक पहलुओं पर नज़र डालने की ज़रूरत: रामचंद्र गुहा

इतिहासकार एवं लेखक रामचंद्र गुहा ने के एक कार्यक्रम में कहा कि गांधी अपने जीवनकाल में सभी के थे, जीवन के बाद वह किसी के नहीं हैं. गांधी पहचान की राजनीति से परे हैं. वह एक सार्वभौमिक हस्ती हैं. दुनिया के कई हिस्सों में उन्हें मान्यता एवं स्वीकार्यता हासिल है.