अगर आचार्य रामदास की मुहिम चलती रहती तो हिंदी में विज्ञान लेखन की इतनी दुर्गति न होती

पुण्यतिथि विशेष: 12 सितंबर, 1937 को अंतिम सांस लेने वाले आचार्य रामदास गौड़ द्वारा पैदा की गई वैज्ञानिक चेतना का ही परिणाम था कि उन दिनों विज्ञान लेखकों की गणना भी साहित्यकारों में की जाती थी.

दुलारे लाल भार्गव: जिन्हें निराला ‘साहित्य का देवता’ कहा करते थे

पुण्यतिथि विशेष: अपने समय की दो बेहद महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ को शिखर पर पहुंचाने में दुलारे लाल भार्गव के अप्रतिम योगदान को लेकर बहुत से लोग उन्हें लखनऊ की हिंदी पत्रकारिता का पितामह मानते हैं.

रवीन्द्रनाथ त्यागी: ‘जिसने देखा नहीं मेरा कवि, उसने देखी नहीं मेरी सच्ची छवि’

पुण्यतिथि विशेष: बहुत कम ही लोग जानते हैं कि त्यागी जितने अच्छे व्यंग्यकार थे, उतने ही बड़े कवि भी थे. एक आलोचक की मानें तो उनके साहित्यिक जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यही थी कि उनके व्यंग्यकार की लोकप्रियता ने एक बार उनके कवि की गरदन दबोची, तो फिर जीवन भर नहीं छोड़ी.

प्रेमचंद का ‘सूरदास’ आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है

1925 में आए प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि में किसान सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं. जो बात रंगभूमि में सूरदास ने कहने की कोशिश की थी, वही आज जब कोई किसान कह रहा है तो उसे निशाना साधकर गोली मारी जा रही है.

प्रेमचंद को क्यों पढ़ें

प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल बेमानी जान पड़ता है, लेकिन हर दौर में उठता रहा है. अक्सर कहा जाता है कि अब भी भारत में किसान मर रहे हैं, शोषण है, इसलिए प्रेमचंद प्रासंगिक हैं. प्रेमचंद शायद ऐसी प्रासंगिकता अपनी मृत्यु के 80 साल बाद न चाहते.

क्या हिंदी गीतों में कोई दूसरा ‘नीरज’ है जिसे आवाज़ दी जा सके कि गीतों का कारवां उदास है

संस्मरण: प्रख्यात गीतकार और कवि गोपालदास नीरज ख़ुद को जनता का कवि कहते थे. उनका मानना था कि जीवन को जीने के लिए मार्क्स को भी मानना होगा और कबीर को भी.

प्रख्यात गीतकार और कवि गोपालदास नीरज का निधन

नई दिल्ली स्थित एम्स में गोपालदास नीरज ने ली अंतिम सांस. सीने में संक्रमण की शिकायत थी. 1991 में पद्मश्री, 1994 में यश भारती, 2007 में पद्मभूषण सम्मान से नवाज़ा गया था.

श्रीकांत वर्मा: क्या कहूं आज जो नहीं कही, दुख ही जीवन की कथा रही

श्रीकांत वर्मा के साहित्य में जीवन-मरण का स्मरण किसी प्रकार के रहस्यवाद से परे है. बात सीधी-सपाट है. आदमी अपने ‘रक्तचाप’ से मरता है, अपने ‘पाप’ से नहीं.

जब महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जनेऊ उतारकर सर्पदंश पीड़ित दलित महिला के पांव में बांध दिया

जयंती विशेष: द्विवेदी जी ऐसे कठिन समय में हिंदी के सेवक बने, जब हिंदी अपने कलात्मक विकास की सोचना तो दूर, विभिन्न प्रकार के अभावों से ऐसी बुरी तरह पीड़ित थी कि उसके लिए उनसे निपट पाना ही दूभर हो रहा था.

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’: कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए

जीवन भर आर्थिक चुनौतियों से जूझने के बावजूद बालकृष्ण शर्मा के मन में इसे लेकर कोई ग्रंथि नहीं थी. कोई उनसे भविष्य के लिए कुछ बचाकर रखने की बात करता तो कहते, मेरा शरीर भिक्षा के अन्न से पोषित है इसलिए मुझे संग्रह करने का कोई अधिकार नहीं है.

आपको पता है, ‘हरिऔध’ का घर और स्मृतियां दोनों खंडहर हो गई हैं

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के पट्टीदारों ने उनकी विरासत को लंबे अरसे तक झगड़े में फंसाकर उन्हें जैसी ‘श्रद्धांजलि’ दी, वैसी किसी दुश्मन को भी न मिले.

‘राहुल सांकृत्यायन घुमक्कड़ लेखक भर नहीं, बल्कि शिक्षक थे’

वीडियो: 9 अप्रैल को लेखक और विचारक राहुल सांकृत्यायन का 125वां जन्मदिन था. दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में उनके जीवन और कृतित्व पर लगी प्रदर्शनी में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश से बातचीत.

‘कथाओं से भरे इस देश में… मैं भी एक कथा हूं’

हिंदी साहित्य के संसार में केदारनाथ सिंह की कविता अपनी विनम्र उपस्थिति के साथ पाठक के बगल में जाकर खड़ी हो जाती है. वे अपनी कविताओं में किसी क्रांति या आंदोलन के पक्ष में बिना शोर किए मनुष्य, चींटी, कठफोड़वा या जुलाहे के पक्ष में दिखते हैं.

केदारनाथ सिंह: वो कवि जो ‘तीसरे’ की खोज में पुलों से गुज़र गया

केदारनाथ सिंह की कविताओं में सबसे अधिक आया हुआ बिंब वह है जो 'जोड़ता' है. उन्हें वह हर चीज़ पसंद थी जो जोड़ती है. वो चाहे सड़क हो या पुल, शब्द हो या सड़क, जो लोगों को मिलाती है, उनकी आंखों में एक छवि बनकर तैरती रहती और फिर पिघलकर कविता में ढल जाती.

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