जयंती विशेष: अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के पट्टीदारों ने उनकी विरासत को लंबे अरसे तक झगड़े में फंसाकर उन्हें जैसी ‘श्रद्धांजलि’ दी, वैसी किसी दुश्मन को भी न मिले.
कोई पूछे कि खड़ी बोली में रचा गया पहला महाकाव्य कौन-सा है तो हिंदी साहित्य के सामान्य जानकार को भी ‘प्रिय प्रवास’ का नाम लेते देर नहीं लगती.
माध्यमिक शिक्षा परिषदों के हाईस्कूल और इंटर के हिन्दी के प्रश्नपत्रों में यह या इससे संबंधित कोई और प्रश्न पूछा जाता है तो ज़्यादातर परीक्षार्थी फौरन अपना उत्तर लिख देते हैं, ‘सत्रह सर्गों में विभाजित ‘प्रिय प्रवास’ में इसके रचयिता द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने ‘कृष्ण के दिव्य चरित का मधुर, मृदुल व मंजुलगान’ किया है, जिसके लिए उन्हें अपने समय का प्रतिष्ठित मंगला प्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था.’
प्रसंगवश, हरिऔध ने इसकी सर्जना की तो, जैसा कि उन्होंने इसकी भूमिका में लिखा है, खड़ी बोली में कुछ छोटे-छोटे काव्य-ग्रंथ ही थे. उनमें से भी ज़्यादातर सौ-दो सौ पद्यों में ही समाप्त होने वाले या अनूदित. मौलिक तो एकदम से नहीं.
हरिऔध के ही शब्दों में, ‘मैथिलीशरण गुप्त का ‘जयद्रथ वध’ नि:संदेह मौलिक ग्रंथ है, परन्तु यह खंड-काव्य है. इसके अतिरिक्त यह समस्त ग्रंथ अन्त्यानुप्रासविभूषित है, इसलिए खड़ी बोलचाल में मुझको एक ऐसे ग्रंथ की आवश्यकता देख पड़ी, जो महाकाव्य हो और ऐसी कविता में लिखा गया हो, जिसे भिन्न तुकांत कहते हैं. अतएव मैं इस न्यूनता की पूर्ति के लिए कुछ साहस के साथ अग्रसर हुआ और अनवरत परिश्रम करके ‘प्रिय प्रवास’ नामक ग्रंथ की रचना की.’
पहले उन्होंने इसका नाम ‘ब्रजांगना-विलाप’ रखा था, किन्तु बाद में बदलकर ‘प्रिय प्रवास’ कर दिया और बेहद विनम्रभाव से ‘स्वीकार’ किया, ‘मुझमें महाकाव्यकार होने की योग्यता नहीं, मेरी प्रतिभा ऐसी सर्वतोमुखी नहीं जो महाकाव्य के लिए उपयुक्त उपस्कर संग्रह करने में कृतकार्य हो सके, अतएव मैं किस मुख से यह कह सकता हूं कि ‘प्रिय प्रवास’ के बन जाने से खड़ी बोली में एक महाकाव्य न होने की न्यूनता दूर हो गई. हां, विनीत भाव से केवल इतना ही निवेदन करूंगा कि… जब तक किसी बहुज्ञ मर्मस्पर्शिनी-सुलेखनी द्वारा लिपिबद्ध होकर खड़ी बोली में सर्वांग सुंदर कोई महाकाव्य आप लोगों को हस्तगत नहीं होता, तब तक यह अपने सहज रूप में आप लोगों के ज्योति-विकीर्णकारी उज्ज्वल चक्षुओं के सम्मुख है, और एक सहृदय कवि के कंठ से कंठ मिलाकर यह प्रार्थना करता है, ‘जबलौं फुलै न केतकी, तबलौं बिलम करील.’
हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ‘विद्यावाचस्पति’ उपाधि से सम्मानित और उसके सभापति रहे ‘हरिऔध’ शुरू में ब्रजभाषा में कविताएं करते थे.
बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से खड़ी बोली में सक्रिय हुए और वात्सल्य व करुण रसों के सिद्धकवि बनकर भाषा, भाव, छंद व अभिव्यंजना की पुरानी परंपराएं तोड़ डालीं.
‘प्रिय प्रवास’ के अतिरिक्त उन्होंने ‘पारिजात’ और ‘वैदेही वनवास’ शीर्षक से दो प्रबंध काव्य तो दिए ही, ‘प्रद्युम्न विजय’ व ‘रुक्मिणी परिणय’ जैसी नाट्यकृतियों में भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की.
‘प्रेमकांता’, ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ और ‘अधखिला फूल’ नामक उपन्यास भी उनके खाते में हैं, जो कम से कम इस अर्थ में तो महत्वपूर्ण हैं ही कि वे हिंदी उपन्यासों की शुरुआत के दौर में लिखे गए.
‘हरिऔध सतसई’, ‘चोखे चौपदे’, ‘चुभते चौपदे’ और ‘बोलचाल’ समेत मुक्तकों के कई संग्रह भी हिन्दी साहित्य की उनकी ऐतिहासिक सेवा के गवाह हैं और इसीलिए कई लोग उन्हें ‘अपने समय का सूरदास’ भी कहते हैं. जैसे मुंशी प्रेमचंद उपन्यास सम्राट कहे जाते हैं, वैसे ही ‘हरिऔध’ अपने प्रशंसकों के लिए ‘कवि सम्राट’ हैं.
लेकिन विडंबना देखिए कि हिन्दी साहित्य की ऐसी अतुलनीय सेवा के बावजूद आज न हरिऔध की उपेक्षा की कोई हद रह गई है और न विस्मरण की.
उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के जिस निज़ामाबाद कस्बे में भोलानाथ उपाध्याय के पुत्र के रूप में 15 अप्रैल, 1865 को वे जन्मे, वहां भी उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों पर ‘कर्मकांडीय विलाप समारोहों’ के अलावा कुछ नहीं होता.
वहां उनका ऐसे बेगानेपन से सामना है कि जिस घर कच्चे में वे पैदा हुए थे, वह खंडहर में बदल गया है, लेकिन किसी की भी पेशानी पर बल नहीं पड़ रहे. उसकी सार-संभाल या पुनरुद्धार की बात तो जैसे किसी को सूझती ही नहीं.
यों, इसका एक बड़ा कारण यह है कि हरिऔध के पट्टीदारों ने उनकी विरासत को लंबे अरसे तक झगड़े में फंसाकर उन्हें जैसी ‘श्रद्धांजलि’ दी, वैसी किसी दुश्मन को भी न मिले तो ठीक.
हां, हिन्दी समाज ने पहले तो पट्टीदारी के इस विवाद के बहाने हरिऔध की स्मृति रक्षा के दायित्व से मुंह मोड़े रखा और अब उनकी बची-खुची यादें सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी भी नहीं निभाना चाहता.
आजमगढ़ निवासी वयोवृद्ध साहित्यकार जगदीशनारायण बरनवाल ‘कुंद’ इस पर गहरा क्षोभ व्यक्त करते हुए कहते हैं कि उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद और कवि सम्राट हरिऔध की जन्मस्थलियों में फ़र्क़ है तो सिर्फ़ यह कि प्रेमचंद की स्मृतियों के संरक्षण को लेकर तो शासन-सत्ता, हिंदी सेवी और परिजन यदा-कदा चिंतित हो लेते हैं, जिस कारण वे लावारिस होने से बच गई हैं, लेकिन हरिऔध की स्मृतियों की किसी को कतई फ़िक्र नहीं. सत्ताओं को ख़्याल ही नहीं आता तो हिंदीसेवियों को फ़ुरसत ही नहीं मिलती.
कुंद बताते हैं कि इसी कारण कभी चुभते और चोखे चौपदों की रचना करने वाले हरिऔध की स्मृतियां भी चुभने लगी हैं.
एक वक़्त इलाहाबाद से प्रकाशित प्रतिष्ठित दैनिक ‘भारत’ के संपादक मुकुंददेव शर्मा, जो हरिऔध के वंशजों में से एक थे, के प्रयासों से आज़मगढ़ शहर में पुरानी कोतवाली के पास भव्य ‘हरिऔध पुस्तकालय’ खुला था, जिसमें हरिऔध का संपूर्ण साहित्य तो उपलब्ध था ही, मुकुंददेव शर्मा के सौजन्य से प्राप्त हुई हरिऔध के निजी पुस्तकालय की अनेक दुर्लभ पुस्तकें भी थीं. लेकिन सामाजिक कृतघ्नता की हद कि अब इस पुस्तकालय को हमेशा के लिए बंद कर उसके भवन में एक विभाग का कार्यालय खोल दिया गया है और किसी को नहीं मालूम कि उसकी अनेक दुर्लभ पुस्तकें किस हाल में हैं.
दशकों पहले, कलाओं के उत्थान, संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए आज़मगढ़ में रैदोपुर और सिविल लाइंस के बीच विकास भवन क्षेत्र में ‘हरिऔध कला भवन’ बना था तो वह सारे आज़मगढ़वासियों के लिए गर्व का कारण था, लेकिन इस भवन की मार्फत हरिऔध की स्मृतियां अक्षुण्ण रखने की उनकी मनोकामना फिर भी पूरी नहीं हुई.
वे उसमें हरिऔध शोध पीठ की स्थापना की मांग ही करते रहे और नौबत यहां तक आ पहुंची कि जर्जर होने के बाद उसके भवन को ध्वस्त कर दिया गया.
प्रदेश की पिछली सरकार के दौरान 17 करोड़ रुपयों के बजट से उसका पुनर्निर्माण शुरू किया गया तो अभी तक दो मंजिलों का निर्माण ही हो पाया है और तीसरी मंजिल पर दीवाल बनाकर छोड़ दिया गया है.
कार्यदायी संस्था की मानें तो इसका कारण यह है कि निर्धारित बजट में से उसे अभी सिर्फ़ आठ करोड़ रुपये ही प्राप्त हुए हैं. अभी नौ करोड़ रुपयों की और आवश्यकता है जबकि सरकार ने सिर्फ एक करोड़ रुपये अवमुक्त किए हैं. देखना है कि इस कछुआ चाल से केंद्र का निर्माण कब तक पूरा हो पाता है.
दूसरी ओर निज़ामाबाद कस्बे में हरिऔध के घर के बगल में ही पक्के मकान में रह रहे उनके पट्टीदार पंडित गोपालशरण उपाध्याय कहते हैं कि हरिऔध के अपनों ने ही उनकी ओर से मुंह फेर लिया है और उनकी यादें संजोने के लिए उनकी ओर से कोई कोशिश नहीं हो रही, तो हम क्या करें?
लेकिन जिन्हें कुछ करना है, वे ऐसे सवाल नहीं पूछ रहे. एक हरिऔध प्रेमी ने उनकी जन्मस्थली पर उनके नाम से दो स्कूल स्थापित किए हैं. उसने इन स्कूलों में कवि सम्राट की प्रतिमा लगाने और वाचनालय खोलने के लिए प्रदेश सरकार से लंबी लिखा-पढ़ी भी की मगर नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा. सरकारी फाइलें दौड़ीं, फिर जानें कहां समा गईं और अब बात आई गई होकर रह गई.
2002 में निज़ामाबाद के एक किनारे पर स्थित बाईपास तिराहे पर हरिऔध की एक प्रतिमा ज़रूर लगाई गई, लेकिन कुछ इस तरह कि उसका अनावरण करने वाले मंत्री जी उनसे बड़े दिखें.
शिलापट में हरिऔध का नाम छोटे अक्षरों में लिखा गया जबकि मंत्री का कई गुना बड़े अक्षरों में. कोढ़ में खाज यह कि इसके बावजूद इस प्रतिमा की रंगाई-पुताई व सफाई के लिए धन के लाले पड़े रहते हैं.
अलबत्ता आम निज़ामाबादवासियों ने हरिऔध की यादों को अभी भी दिल से लगा रखा है. इस कस्बे में आपको ऐसे कितने ही लोग मिल जाएंगे जो हरिऔध के अपने बीच का होने पर गर्व करते थकते नहीं और बताते हैं कि हरिऔध ने 6 मार्च, 1947 को इसी कस्बे में आख़िरी सांस भी ली थी.
लगभग 70 प्रतिशत साक्षरता वाले इस कस्बे में हरिऔध की याद में कोई आयोजन फिर भी अपवादस्वरूप ही होता है. कोई पूछे क्यों तो जवाब नहीं मिलता. गर्व करने वाले भी चुप रह जाते हैं.
निज़ामाबाद में निर्मित काली मिट्टी के बर्तन दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं और देश-विदेश के बाज़ारों में उनकी बिक्री से व्यवसायियों को अच्छी-ख़ासी आय होती है.
एक व्यवसायी ने मुझसे कहा कि हरिऔध की याद में कोई कार्यक्रम किया जाए तो बर्तन व्यवसायी उसके लिए धन का टोंटा नहीं होने देंगे. लेकिन कोई इसकी पहल तो करे.
अपने को पढ़ा-लिखा मानने वालों को उनकी विस्मृृति का अपराधबोध तो सताए. अभी तो उन्हें इस बात का अपराधबोध भी नहीं हैं कि कवि सम्राट के नाम पर एक महाविद्यालय की स्थापना का सपना भी सपना ही है.
इस ढेर सारी उपेक्षा के बावजूद हरिऔध अपने साहित्य सृजन के कारण अलग तरह से प्रासंगिक बने हुए हैं और उनकी कई रचनावलियां प्रकाशत हो चुकी हैं.
निज़ामाबाद में उनकी जन्मस्थली तक जाने के लिए पक्की सड़क भी बन गई है, लेकिन कई लोग व्यंग्य करते हैं कि यह सड़क इसलिए है कि सुविधापूर्वक वहां पहुंचकर भरपूर क्षुब्ध हुआ जा सके.
वैसे इस सड़क का श्रेय भी कवि की जन्मस्थली के बगल स्थित चरणपादुका गुरुद्वारे को जाता है जिसकी सिखों में बड़ी प्रतिष्ठा है. कहते हैं कि इस जगतप्रसिद्ध गुरुद्वारे में गुरु तेगबहादुर व गुरु गोविंद सिंह तपस्या कर चुके हैं.
इस गुरुद्वारे से हरिऔध का काफ़ी नज़दीकी रिश्ता रहा है. इसे यूं समझा जा सकता है कि उनके पिता भोलानाथ उपाध्याय ने सिख धर्म अपनाकर अपना नाम भोला सिंह रख लिया था. हरिऔध कई बार उक्त गुरुद्वारे में ही बैठकर सृजन या रचनाकर्म करते थे.
अफसोस कि इस गुरुद्वारे में भी उनकी स्मृति रक्षा के लिए कुछ भी नहीं हो रहा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)