फिल्म निर्देशक और अभिनेता निशिकांत कामत को पिछले दो साल से लिवर सिरोसिस बीमारी थी. कामत ने साल 2005 में ‘डोंबिवली फास्ट’ से फिल्म निर्देशन का सफ़र शुरू किया था. इस फिल्म को मराठी भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है.
कलाकार होने के अलावा प्रशिक्षित ईएनटी सर्जन श्रीराम लागू ने विजय तेंदुलकर, विजय मेहता और अरविंद देशपांडे के साथ आज़ादी के बाद महाराष्ट्र में रंगमंच को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई थी.
अभिनेता विजू खोटे ने 300 से ज़्यादा हिंदी और मराठी फिल्मों में काम किया था. फिल्म ‘शोले’ में कालिया और ‘अंदाज अपना-अपना’ में रॉबर्ट का किरदार निभाने के लिए उन्हें जाना जाता है.
फिल्म के ट्रेलर में नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी द्वारा बोले गए एक संवाद पर दक्षिण भारतीय फिल्म अभिनेता सिद्धार्थ ने जताई आपत्ति. सेंसर बोर्ड भी दक्षिण भारतीय लोगों से जुड़े दो डायलॉग और बाबरी मस्जिद से जुड़े एक डायलॉग पर जता चुका है आपत्ति.
अभिनेता सुमीत राघवन ने कहा कि मराठी फिल्म में कथानक महत्वपूर्ण है, जिसमें दर्शकों को थियेटर तक लाने का माद्दा होता है.
निर्देशक सनल कुमार शशिधरन ने कहा कि लोगों को ये पता चल गया कि उच्च पदों पर आसीन लोग कैसे न्यायपालिका की अवज्ञा करते हैं.
एस दुर्गा के निर्देशक ने प्रदर्शन की तारीख के लिए आईएफएफआई को पत्र लिखा, अभिनेता ने कहा कि कोई जवाब नहीं मिला.
एस दुर्गा के निर्देशक सनल कुमार शशिधरन ने कहा कि अगर कोर्ट के आदेश के बावजूद फिल्म को समारोह में नहीं दिखाया जा रहा, तो यह हमारी नहीं, बल्कि एक देश और व्यवस्था की विफलता है.
केरल उच्च न्यायालय ने फिल्म प्रदर्शित करने का आदेश दिया. फिल्म के निर्देशक सनल कुमार शशिधरन ने कहा, सिनेमा और लोकतंत्र की जीत हुई.
मंत्रालय के फैसले से पैनोरमा में दिखायी जाने वाली फिल्मों के निर्देशक भी नाराज़. कहा महोत्सव का बहिष्कार करने की बजाए हिस्सा लेकर करेंगे फैसले का विरोध.
वहीं फिल्म एस दुर्गा के निर्देशक ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के अधिकारियों के ख़िलाफ़ दायर की केरल हाईकोर्ट में याचिका.
सूचना व प्रसारण मंत्रालय द्वारा समारोह से मलयाली फिल्म एस. दुर्गा और मराठी फिल्म न्यूड के हटाए जाने को बताया कारण.
फिल्म ‘एस. दुर्गा’ और ‘न्यूड’ का प्रदर्शन नहीं हो पाएगा. गोवा में 48वां अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव 20 से 28 नवंबर के बीच होना है.
बदलते दौर के भौतिक चमक-दमक को तो भोजपुरी सिनेमा खूब दिखाता है, पर सामाजिक -सांस्कृतिक मूल्यों की जड़ता से नहीं भिड़ता. वह एक बड़े विभ्रम का शिकार है.