महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की 20वीं वर्षगांठ के मौके पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कहा कि मनरेगा के बजट में कटौती कर सरकार इस योजना के तहत काम की मांग को दबाने का काम कर रही है.
कुछ मामलों में श्रमिकों को लगातार पांच महीनों से भुगतान नहीं किया गया है. स्थानीय अधिकारी बिहार ग्रामीण विकास विभाग को फंड जारी करने में देरी के लिए केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया है. एक स्थानीय ग़ैर सरकारी संगठन ‘मनरेगा वॉच’ का कहना है कि गायघाट, बोचहा और कुरहनी समेत ज़िले के कई ब्लॉकों में लगभग 25,000 श्रमिकों को महीनों से उनकी मज़दूरी नहीं मिल रही है.
मनरेगा के तहत काम करने वाले मज़दूर डिजिटल बुनियादी ढांचे की कमी के बावजूद प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने की सरकार की नीति का ख़ामियाजा भुगत रहे हैं. उपस्थिति के लिए लाया गया राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली (एनएमएमएस) एप्लिकेशन और अनिवार्य आधार-आधारित भुगतान प्रणाली ने मज़दूरों की समस्याओं को और बढ़ा दिया है.
बीते सप्ताह ग्रामीण विकास मंत्रालय ने सभी मनरेगा कार्यस्थलों पर मोबाइल ऐप से उपस्थिति दर्ज करने के आदेश दिए हैं. पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री और कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने इस प्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि कथित तौर पर पारदर्शिता बढ़ाने के लिए शुरू किए गए इस क़दम का ठीक उल्टा असर होगा.
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के 15 राज्यों के सैकड़ों मज़दूर दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि जब वे समय पर मज़दूरी की मांग करते हैं तो उन्हें काम नहीं मिलता. साथ ही कार्यस्थल पर किसी मज़दूर के घायल हो जाने या उसकी मृत्यु हो जाने पर मुआवज़ा तक नहीं दिया जाता.
बीते दिनों मनरेगा के लिए लोकपाल ऐप लॉन्च करते हुए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने विभिन्न ज़िलों में लोकपालों की नियुक्ति नहीं होने पर चिंता व्यक्त की थी और कहा था कि यह देखा गया है कि कई जगहों पर राजनीतिक दलों से संबंधित व्यक्तियों की नियुक्ति की गई है.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आम बजट में 2022-2023 के लिए मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. यह मौजूदा वित्त वर्ष के लिए संशोधित अनुमान से 25.51 फीसदी कम है.
मनरेगा पोर्टल पर उपलब्ध आंकड़ों से पता चला है कि सितंबर महीने में 2.07 करोड़ परिवारों ने इस योजना का लाभ उठाया, जो 2020 में इसी महीने की तुलना में 3.85 फीसदी अधिक है और पिछले गैर-कोविड साल सितंबर 2019 की तुलना में यह 72.30 फीसदी तक अधिक है.
कम वेतन में कड़ी मेहनत करने वाले नरेगा श्रमिकों के लिए जटिल केंद्रीकृत भुगतान प्रणाली दुस्वप्न साबित हुई है. केंद्र को चाहिए कि वह ऐसा सरल, विकेंद्रीकृत तंत्र बनाए जिसमें भुगतानों को मंज़ूरी और भुगतान प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका हो. ऐसा तंत्र नरेगा में और अधिक जवाबदेही को बढ़ावा देगा.
ग्रामीण विकास मंत्रालय की सोशल ऑडिट यूनिट द्वारा साल 2017-18 से 2020-21 के दौरान 2.65 लाख ग्राम पंचायतों का सोशल ऑडिट किया गया था, जिसके ज़रिये इस वित्तीय हेराफेरी का पता चला है. इसमें से महज़ एक फीसदी से अधिक यानी कि करीब 12.5 करोड़ रुपये ही वसूल किए जा सके हैं.
मुख्यमंत्री विजय रुपाणी द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि श्रमिक शहरों में जितना कमा रहे थे, उसके मुकाबले मनरेगा की दिहाड़ी काफी कम है, इसके बावजूद कोविड-19 से उत्पन्न संकट के दौरान यह उनके और उनके परिवार के पालन-पोषण में मददगार रही है.
माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य बृंदा करात ने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को भेजे एक पत्र में केंद्र की ओर से राज्यों को भेजे गए उस परामर्श के पीछे की मंशा को लेकर सवाल खड़े किए, जिसमें कहा गया है कि मनरेगा के तहत अनुसूचित जाति-जनजाति व अन्य के लिए मज़दूरी के भुगतान को अलग-अलग श्रेणियों में रखा जाए.
बीते साल अप्रत्याशित तरीके से लागू लॉकडाउन के चलते करोड़ों दिहाड़ी मज़दूर अपने गांव लौटने को मजबूर हुए थे, जहां ग्रामीण रोजगार योजना मनरेगा उनकी आजीविका का एकमात्र ज़रिया बनी. आंकड़े दर्शाते हैं कि इससे पहले 2013-14 से 2019-20 के बीच 6.21 से 7.88 करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत रोज़गार पाया था.
बीते दो महीनों- दिसंबर और जनवरी में मनरेगा के तहत नौकरी करने वाले परिवारों की संख्या उतनी ही रही, जितनी की पिछले साल अगस्त और सितंबर में थी, जब कोरोना महामारी अपने चरम पर थी.
सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो सरकारों में भुगतान व्यवस्था सुधारने के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) पर ख़ूब ध्यान दिया है, लेकिन मज़दूरों के खाते में पैसे डालने के बाद होने वाली संस्थागत समस्याओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है.