रघुवीर सहाय: कुछ न कुछ होगा, अगर मैं बोलूंगा…

जन्मदिन विशेष: रघुवीर सहाय की कविता राजनीतिक स्वर लिए हुए वहां जाती है, जहां वे स्वतंत्रता के स्वप्नों के रोज़ टूटते जाने का दंश दिखलाते हैं. पर लोकतंत्र में आस्था रखने वाला कवि यह मानता है कि सरकार जैसी भी हो, अकेला कारगर साधन भीड़ के हाथ में है.

रघुवीर सहाय: स्वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग एक स्वाधीन व्यक्ति से…

जन्मदिन विशेष: रघुवीर सहाय ने संसदीय जनतंत्र में आदमी के बने रहने की चुनौतियों को शायद किसी भी दूसरे कवि से बेहतर समझा था. सत्ता और व्यक्ति के बीच के रिश्ते में ख़ुद आदमी का क्षरित होते जाना. हम कैसे लोग हैं, किस तरह का समाज?

‘भारत का प्रधानमंत्री होने का… अधिकार हमारा है’

रघुवीर सहाय की 'अधिकार हमारा है' एक नागरिक के देश से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह ठीक है लेकिन यह मुझे अपना मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह इसके 'प्रधानमंत्री' पद पर मेरा हक़ कबूल करता है या नहीं. मैं मात्र मतदाता हूं या इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं?

रघुवीर सहाय: अकड़ और अश्लीलता से मुक़ाबला

राज्य का रुतबा इंसान से बड़ा हो, यह रघुवीर सहाय को बर्दाश्त नहीं. वह इंसान से उसकी आज़ादी की इच्छा छीन लेता है. हर व्यक्ति को आज़ादी का एहसास हो और वैसे मौके ज़्यादा से ज़्यादा पैदा कर सके, जिनमें वह खुद को ख़ुदमुख़्तार देख सके, उसे किसी सत्ता के अधीन और निरुपाय होने का बोध न रहे, यह हर मानवीय उपक्रम और साहित्य का भी दायित्व है.