अपना पानी, अपनी बानी, मांग रहा है हिंदुस्तानी

शासक अगर दंभपूर्वक यह कहे कि वह आपको 5 किलो अनाज पर ज़िंदा रखता है तो यह जनता का अपमान है. जनता लाभार्थी नहीं, उत्पादक और सर्जक है. उसे अपनी रोटी खाने का सुख चाहिए. काम का हक़ चाहिए. हिंदी कविता में जनतंत्र का उत्सव मनाती इस श्रृंखला की पांचवी क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

पानी पानी
बच्चा बच्चा
हिंदुस्तानी
मांग रहा है
पानी पानी

जिसको पानी नहीं मिला है
वह धरती आज़ाद नहीं
उस पर हिंदुस्तानी बसते हैं
पर वह आबाद नहीं

पानी पानी
बच्चा बच्चा
मांग रहा है
हिंदुस्तानी

जो पानी के मालिक हैं
भारत पर उनका क़ब्ज़ा है
जहां न दें पानी वाँ सूखा
जहां दें वहां सब्ज़ा है

अपना पानी
मांग रहा है
हिंदुस्तानी

बरसों पानी को तरसाया
जीवन से लाचार किया
बरसों जनता की गंगा पर
तुमने अत्याचार किया

हमको अक्षर नहीं दिया है
हमको पानी नहीं दिया
पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया

अपना पानी
अपनी बानी हिंदुस्तानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है

धरती के अंदर का पानी
हमको बाहर लाने दो
अपनी धरती अपनी बानी
अपनी रोटी खाने दो

पानी पानी
पानी पानी
बच्चा बच्चा
मांग रहा है
अपनी बानी
पानी पानी
पानी पानी
पानी पानी

पानी पानी.

(पानी पानी, रचनावली भाग 1)

कविता का शीर्षक है ‘पानी पानी’. कविता की भाषा पर रघुवीर सहाय के दस्तख़त साफ़ हैं. पानी और बानी के पास पास रहने से एक खेल सा बनता है. पानी का जैसे एक से अधिक अर्थ किया जा सकता है, बानी के भी एक ही मायने नहीं. पानी और बानी के साथ हिंदुस्तानी की तुक मिलती है लेकिन उतना कवि के लिए काफी नहीं. इन तीनों के बीच के रिश्ते को खोजना ही कविता का मक़सद है.

कविता जैसे जैसे आगे बढ़ती है, और वह बहुत लंबी नहीं, खेल की जगह उसके भीतर का दर्द उभरने लगता है. सिर्फ़ दर्द नहीं, एक ग़ुस्सा भी. ग़ुस्से से आगे बढ़कर एक मांग. वह मांग दुनियावी है लेकिन रूहानी भी है. पानी चाहिए, लेकिन अपनी बानी भी चाहिए.

पानी यानी जीवन. जहां पानी है वहीं ज़िंदगी है. यह पानी वही है जो आज भी तक़रीबन 35 करोड़ हिंदुस्तानियों को क़ायदे से मयस्सर नहीं. लेकिन यह सबसे बड़े चुनावी मुद्दों में एक नहीं हालांकि हम जानते हैं कि इस पानी के लिए तरसते और एक दूसरे से झगड़ते लोग ‘वाटर पार्क’ में मज़ा लेने वालों के लिए एक दर्जा कम इंसान हैं. वे भी वोट देते ही हैं, लेकिन जैसे मतदान केंद्र के बाहर वे क़तार में खड़े रहते हैं वैसे ही पानी के लिए भी.

रघुवीर सहाय कहते हैं कि इन लोगों को सिर्फ़ इंसानी शक्ल में ज़िंदा रखा जाता है जिससे राष्ट्र के लिए उत्पादन होता रहे. कार्ल मार्क्स भी पूंजीवाद के आलोचक इसीलिए थे कि वह इंसानों की बड़ी आबादी को जीवन के न्यूनतम स्तर पर बनाए रखकर ही संतुष्ट रहता है, बल्कि उसी वजह से वह मोटा ताज़ा होता जाता है.

पूंजीवाद को जनतंत्र के लिए सबसे स्वाभाविक और मुफ़ीद व्यवस्था माना जाता है. लेकिन क्या वह वास्तविक बराबरी के ख़िलाफ़ नहीं जो जनतंत्र की बुनियाद है और उसका लक्ष्य भी है?

जब रघुवीर सहाय ने यह कविता लिखी थी तब शायद उन्हें इसका अनुमान न रहा होगा कि एक दिन ऐसा आएगा जब नदियों पर भी पूंजीपतियों का क़ब्ज़ा होगा. लेकिन निगाह उनकी उस समय साफ़ है:

जिसको पानी नहीं मिला है
वह धरती आज़ाद नहीं
उस पर हिंदुस्तानी बसते हैं
पर वह आबाद नहीं

आज़ाद क़ौम ही जनतांत्रिक क़ौम हो सकती है. यह आज़ादी रोज़मर्रा के किसी तरह जी लेने की मजबूरी से आज़ादी है. जब मुझे पानी न मिलने की आशंका के साथ दिन न शुरू करना पड़े. और जिस धरती को पानी नहीं मिले, वह फल-फूल भी नहीं सकती. वह आबाद नहीं है. आबाद का अर्थ है ऐसी ज़मीन या धरती जो फसल के लिए तैयार हो. आब या पानी के बिना कोई जगह आबाद नहीं.

लेकिन पानी अकेले नहीं. बानी के बिना पानी का कोई मतलब नहीं.

रघुवीर सहाय एक प्रकार से वही कह रहे हैं जिसे अमर्त्य सेन ने सिद्धांतीकृत किया. जैसे-जैसे जनतंत्र की संभावना बढ़ती है, अकाल की आशंका भी उतनी ही कम होती जाती है. पानी और बानी का अधिकार ही जनतंत्र का आधार है. अगर इंसान को इंसानी कद्र के साथ ज़िंदा रहना है तो उसे दोनों चाहिए:

हमको अक्षर नहीं दिया है
हमको पानी नहीं दिया
पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया

कामचलाऊ ज़िंदगी से आगे एक अर्थपूर्ण जीवन की मांग है. यह मात्र साक्षरता नहीं है. भाषा का अधिकार है. इतनी भाषा, भरपूर भाषा जिसमें मैं अपनी बात कह सकूं. जिसके सहारे संवाद कर सकूं. लोगों से रिश्ता जोड़ सकूं. इन पंक्तियों की गहरी शिकायत सामाजिक व्यवहार में हिस्सेदारी के लिए अनिवार्य भाषा हासिल करने की व्याकुलता ही है.

रघुवीर सहाय दूसरी कविताओं में वाणी शब्द का प्रयोग करते हैं. यहां बानी का इस्तेमाल बामक़सद है. वह मात्र वाणी नहीं है, अपनी बानी है. बानी या भाषा. इसे संकुचित अर्थ में मात्र मातृभाषा के प्रयोग की मांग न समझा जाना चाहिए. यह अपनी बानी की मांग है. मेरी अपनी ज़बान हो, मेरी अपनी अभिव्यक्ति हो. अपनी ज़बान, अपनी अभिव्यक्ति, अपना कंठ. निराला को याद करें:

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!

अपनी बानी का मतलब है अपना अंदाज़. इसका ख़तरा उठाते हुए कि यह कहीं अतिव्याख्या न हो कविता की, कार्ल मार्क्स को एक बार फिर याद करने में कोई हानि नहीं. सेंसरशिप का विरोध करते हुए मार्क्स कहते हैं कि सेंसर मुझे सिर्फ़ यह नहीं बताता कि मुझे क्या कहना है, वह यह भी निर्देश देता है कि जो कहना है, वह कैसे कहना है. इस तरह वह मुझसे मेरी शैली, मेरा अंदाज़ छीन लेता है.

कवि या कविता की मांग है:

धरती के अंदर का पानी
हमको बाहर लाने दो
अपनी धरती अपनी बानी
अपनी रोटी खाने दो

यहां एक कदम आगे बढ़कर अपनी रोटी खाने के अधिकार की मांग है. किसी के, वह राज्य ही क्यों न हो, रहमोकरम पर नहीं, अपने बूते जीने के हालात हों, यह तमन्ना. शासक अगर दंभपूर्वक यह कहे कि वह आपको 5 किलो अनाज पर ज़िंदा रखता है तो यह जनता का अपमान है. वह लाभार्थी नहीं, उत्पादक और सर्जक है. उसे अपनी रोटी खाने का सुख चाहिए. यानी काम का हक़ चाहिए. उसे नज़रअंदाज़ करके महीने 5 किलो अनाज का मतलब फिर वही है: जीवन का न्यूनतम स्तर.

रघुवीर सहाय एक दूसरी कविता में आधा अधूरा जीवन जीने से इनकार करते हैं. उनकी कविता कहती है, हम से कम की बात न कहिए, हम तो पूरा का पूरा जीवन लेंगे. जनतंत्र इसीलिए अगर संवाद है तो संघर्ष भी है क्योंकि वह सबसे पहले ग़ैरबराबरी को देखता है और फिर उसे ख़त्म करने की जद्दोजहद में लगता है. वह ग़ैरबराबरी पानी के बंटवारे में है और बानी के भी. तो आइए नारा लगाएं: अपना पानी, अपनी बानी, मांग रहा है हिंदुस्तानी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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