क्या मतदाता सरकारों से ‘संतुष्ट’ रहने लगे हैं?

हर बार चुनावों से पहले मीडिया के मैनेजमेंट से छनकर बढ़ती ग़रीबी, ग़ैर-बराबरी, बेरोज़गारी व महंगाई वगैरह के कारण सरकारों के प्रति आक्रोश व असंतोष की जो बातें सामने आ जाती हैं, क्या वे सही नहीं हैं? मतदाताओं की सरकारों से इस 'संतुष्टि' को कैसे देखा जाए?

अगम बहै दरियाव: जीवन की साधारणता का आख्यान

पुस्तक-समीक्षा: शिवमूर्ति के 'अगम बहै दरियाव' को आंचलिक उपन्यास के खांचे में रखकर देखना उसे न्यून करना होगा. इसे एक सामाजिक-राजनीतिक समझ पैदा करने वाला संवेदनशील उपन्यास माना जाना चाहिए, जिसे इसके नायकों- किसानों और मजदूरों, दलित-पिछड़ों-स्त्रियों- के त्रासद संघर्ष के रूप में पिरोकर बयां किया गया है.

छद्म जनतंत्र से मुक्त होना ज़रूरी है क्योंकि उससे जीवित होने का भ्रम होता है

जनतंत्र बिना राज्य के मूर्त नहीं होता. वह राज्य का गठन करता है और फिर राज्य सबसे पहले उस जन को सुरक्षित करने के नाम पर अपने अधीन कर लेता है. पर अपने इर्द गिर्द दीवार उठाकर व्यक्ति सुरक्षित होता है या अकेला? कविता में जनतंत्र स्तंभ की छब्बीसवीं क़िस्त.

वर्चस्व के पुराने समीकरण का अस्वीकार विश्वविद्यालय जीवन की पहली सीख है

विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी शिक्षा अगर कोई है तो वह है दूसरों से हमदर्दी. दूसरे यानी वे जिनसे मनुष्यत्व के अलावा हमारा और कुछ नहीं मिलता: न जेंडर, न धर्म, न भाषा, न राष्ट्रीयता. कविता में जनतंत्र स्तंभ की बाइसवीं क़िस्त.

जनतंत्र दिमाग़ को मुक्त रखने का संघर्ष है, जो पूंजीवाद से लड़े बिना मुमकिन नहीं

पूंजीवाद स्वाभाविक और प्राकृतिक जान पड़ता है. लेकिन मनुष्य निर्विकल्प अवस्था को कैसे स्वीकार कर ले तो फिर मनुष्य कैसे रहे? कविता में जनतंत्र स्तंभ की अठारहवीं क़िस्त.

जनतंत्र ऐसी सामूहिकता की कल्पना है जिसमें सारे समुदायों की बराबर की हिस्सेदारी हो

जनतंत्र ख़ुद इंसाफ़ है क्योंकि वह अपनी ज़िंदगी के बारे में फ़ैसला करने के मामूली से मामूली आदमी के हक़ को स्वीकार करने और हासिल करने का अब तक ईजाद किया सबसे कारगर रास्ता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की चौदहवीं क़िस्त.

जनतंत्र में कवि का दायित्व

जनतंत्र में जनता और नेता के बीच एक रिश्ता है. नेता और दल जनता को बनाते और तोड़ते हैं. लेकिन कवि का जनतंत्र के प्रति दायित्व यही है कि लोकप्रिय से ख़ुद को अलग करना. कविता में जनतंत्र की नवीं क़िस्त.

कविता का हस्तक्षेप

हर राजनीतिक दल जनता को जागरूक करना चाहता है. लेकिन अगर ‘पब्लिक’ सब जानती है तो उसे जागरूक करने की आवश्यकता ही क्यों हो?

अत्याचारी और उसकी याद

आम चुनावों के दौरान जब हमारा देश, ख़ासकर हिंदी प्रदेश कठिन रास्ते से गुज़र रहा है, प्रस्तुत है हिंदी कविता में जनतंत्र की गौरवपूर्ण उपस्थिति की याद दिलाते इस स्तंभ की दूसरी क़िस्त.

हम प्रधानमंत्री नहीं, इस पद के उम्मीदवार भी नहीं, लेकिन प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है

जिस वक़्त हमारा चुनावी लोकतंत्र पूरे देश, ख़ासकर हिंदी प्रदेश में कठिन रास्ते से गुज़र रहा है, प्रस्तुत है यह नया स्तंभ जो हिंदी कविता में लोकतंत्र की गौरवपूर्ण उपस्थिति की याद दिलाता है.

हां के बेसुरे कीर्तन में नहीं की दरकार

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय नहीं कहने और करने का आशय है भारतीय सभ्यता, भारतीय परंपरा, भारतीय लोकतंत्र के अपनी प्रतिबद्धता का इसरार करना. जो इस समय नहीं कहने-करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा वह नैतिक चूक का चरित्र होगा. 

‘आज़ादी के सात दशकों में उन सिद्धांतों पर काम नहीं किया गया जिनके बल पर देश आज़ाद हुआ था’

साक्षात्कार: इतिहासकार, शिक्षाविद और नारीवादी उमा चक्रवर्ती देश की आज़ादी के समय छह साल की थीं. शिक्षा, समाज सेवा, फिल्म निर्माण जैसे क्षेत्रों में व्यापक काम कर चुकीं उमा का कहना है कि आज धर्म के आधार पर हो रही लिंचिंग, दंगे आदि स्वतंत्रता आंदोलन और उससे जुड़े वादों के साथ धोखा हैं.

संविधान केवल दस्तावेज़ नहीं है बल्कि जीवन जीने का एक माध्यम है

जब संविधान के 'बुनियादी ढांचे के सिद्धांत' पर विवाद छिड़ा हुआ है, तो ऐसे में ज़रूरी मालूम होता है कि इसकी मूल भावना और उसके उद्देश्य को आम लोगों तक ले जाया जाए क्योंकि जब तक 'गण' हमारे संविधान को नहीं समझेगा हमारा लोकतंत्र सिर्फ एक 'तंत्र' बनकर रह जाएगा.

मीट विज्ञापनों पर रोक की मांग पर कोर्ट ने पूछा- अन्य लोगों के अधिकारों का अतिक्रमण क्यों चाहिए

तीन धार्मिक परमार्थ न्यासों और मुंबई के एक जैन शख़्स ने एक याचिका में मांसाहारी पदार्थों के विज्ञापनों को प्रतिबंधित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने की मांग करते हुए दावा किया था कि उनके बच्चों और परिजनों को इस तरह के विज्ञापन देखने के लिए बाध्य किया जा रहा है. कोर्ट ने इस याचिका को ख़ारिज कर दिया.

अब देश की जनता को ही सिकुड़ते लोकतंत्र के विरुद्ध खड़ा होना होगा

मोदी सरकार एक ऐसा राज्य स्थापित करने की कोशिश में है जहां जनता सरकार से जवाबदेही न मांगे. नागरिकों के कर्तव्य की सोच को इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़ा था. मोदी सरकार बिना आपातकाल की औपचारिक घोषणा के ही अधिकारहीन कर्तव्यपालक जनता गढ़ रही है.