योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर ने एनसीईआरटी निदेशक को लिखे पत्र में कहा कि वे दोनों नहीं चाहते कि एनसीईआरटी 'उनके नामों के पीछे छिप जाए... और छात्रों को राजनीति विज्ञान की ऐसी किताबें दे जो उन्हें राजनीतिक रूप से पक्षपाती, अकादमिक रूप से अक्षम्य और शैक्षणिक रूप से अनुपयुक्त लगती हैं.'
एक जनहित याचिका में चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत और आइंस्टीन के विशेष सापेक्षता के सिद्धांत, जो द्रव्यमान और ऊर्जा (E=MC²) की समानता को व्यक्त करता है, को चुनौती दी गई थी. अदालत ने याचिका ख़ारिज करते हुए याचिकाकर्ता से कहा कि आप ख़ुद को फिर से शिक्षित करें.
देश के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों से जुड़े 33 शिक्षाविदों और राजनीति विज्ञान के जानकार, जो एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें तैयार करने की प्रक्रिया के विभिन्न स्तरों पर जुड़े रहे हैं, का कहना है कि परिषद द्वारा इन किताबों में किए गए बदलावों के बाद वे यह दावा नहीं कर सकते कि ये उनके द्वारा तैयार की गई किताबें हैं.
शिक्षाविद सुहास पलशिकर और सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने एनसीईआरटी से इसकी राजनीति विज्ञान की टेक्स्टबुक से उनका नाम बतौर ‘मुख्य सलाहकार’ हटाने को कहा है. उनका कहना है कि ‘युक्तिसंगत’ बनाने के नाम पर लगातार सामग्री हटाने से 'विकृत' हुई किताबों से नाम जुड़ा देखना उनके लिए शर्मिंदगी का सबब है.
क्रमिक विकास (एवोल्यूशन) जीव विज्ञान की धुरी है और डार्विनवाद इसे समझने की बुनियाद. इन्हें स्कूल के पाठ्यक्रम से निकालना विज्ञान की कक्षा के इकोसिस्टम को बिगाड़ना है.
क्रमागत उन्नति का सिद्धांत या थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन जीव विज्ञान को देखने का एक अनिवार्य लेंस है. इस विषय को समझने के लिए क्रमागत उन्नति को समझना बेहद ज़रूरी है.
एनसीईआरटी ने दसवीं की विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से चार्ल्स डार्विन, पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति समेत जैविक विकास (एवोल्यूशन) संबंधी सामग्री को हटाया है. इसे वापस सिलेबस में शामिल करने की मांग करते हुए 1,800 से अधिक वैज्ञानिकों और शिक्षकों ने कहा कि वे विज्ञान की स्कूली शिक्षा में किए 'इस तरह के ख़तरनाक बदलावों' से असहमत हैं.
मानव-जीवन प्रकृति के नियमों का एक करिश्मा है. यह करिश्मा कहां और कब शुरू हुआ, इस तक पहुंचने की चाह पिछले सौ सालों से अधिक समय से चल रही है. निश्चित ही आने वाले दशकों में हम जवाब के और नज़दीक पहुंच सकेंगे.
चार्ल्स डार्विन ने 1859 में प्राकृतिक चयन पर अपनी किताब दुनिया के सामने पेश की थी, लेकिन उनसे कुछ साल पहले ही स्कॉटलैंड के पैट्रिक मैथ्यू इस सिद्धांत तक पहुंच चुके थे. इस बात को ख़ुद डार्विन ने भी माना था, पर इतिहास मैथ्यू को इसका उचित श्रेय नहीं दे सका.