क्यों किसान मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि अध्यादेशों का विरोध कर रहे हैं

किसानों को इस बात का भय है कि सरकार इन अध्यादेशों के ज़रिये न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने की स्थापित व्यवस्था को ख़त्म कर रही है और यदि इन्हें लागू किया जाता है तो किसानों को व्यापारियों के रहम पर जीना पड़ेगा.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

किसानों को इस बात का भय है कि सरकार इन अध्यादेशों के ज़रिये न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने की स्थापित व्यवस्था को ख़त्म कर रही है और यदि इन्हें लागू किया जाता है तो किसानों को व्यापारियों के रहम पर जीना पड़ेगा.

Amritsar: Labourers work on the newly arrived wheat grain at a wholesale grain market in Amritsar, Tuesday, April 21, 2020. The Punjab State Agricultural Marketing Board has set up special guidelines and made arrangements for the procurement of wheat crop during the nationwide COVID-19 lockdown. (PTI Photo) (PTI21-04-2020_000167B)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: बीते 20 जुलाई को राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के किसानों ने सरकार द्वारा हाल ही में लाए गए तीन कृषि अध्यादेशों के विरोध में ट्रैक्टर-ट्रॉली निकालकर विरोध प्रदर्शन किया. वहीं अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने इन अध्यादेशों के खिलाफ नौ अगस्त को देशव्यापी आंदोलन की घोषणा की है. 

किसानों को इस बात का भय है कि सरकार इन अध्यादेशों के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने की स्थापित व्यवस्था को खत्म कर रही है और यदि इसे लागू किया जाता है तो किसानों को व्यापारियों के रहम पर जीना पड़ेगा.

दूसरी ओर मोदी सरकार इन अध्यादेशों को ‘ऐतिहासिक कृषि सुधार’ का नाम दे रही है. उसका कहना है कि वे कृषि उपजों की बिक्री के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था बना रहे हैं.

अव्वल तो मौजूदा समय में किसानों को तथाकथित ‘ऐतिहासिक सुधार’ के बजाय अल्पकालिक तत्काल मदद की जरूरत थी, जिसके जरिये वे कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न हुए भयावह संकट से उबर पाते.

इन अध्यादेशों का समर्थन करने वाले विशेषज्ञों का भी मानना है कि अभी ऐसी कोई जल्दबाजी नहीं थी कि संसद का इंतजार किए बिना इसे आनन-फानन में अध्यादेश के जरिये पारित किया जाए.

बहरहाल, आइए पहले ये जानते हैं कि ये तीनों अध्यादेश क्या-क्या हैं?

पिछले महीने तीन जून को केंद्रीय कैबिनेट ने किसानों को बेहतर मूल्य दिलाने के लिए और मार्केटिंग व्यवस्था में परिवर्तन करते हुए तीन अध्यादेश पारित किया था. सरकार इसे ‘एक राष्ट्र, एक कृषि बाजार’ बनाने की ओर बढ़ते कदम के रूप में पेश कर रही है.

पहला, मोदी सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन किया है, जिसके जरिये खाद्य पदार्थों की जमाखोरी पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया. इसका मतलब है कि अब व्यापारी असीमित मात्रा में अनाज, दालें, तिलहन, खाद्य तेल प्याज और आलू को इकट्ठा करके रख सकते हैं.

दूसरा, सरकार ने एक नया कानून- कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020 पेश किया है, जिसका उद्देश्य कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी मंडियों) के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने और खरीदने की व्यवस्था तैयार करना है.

तीसरा, केंद्र ने एक और नया कानून- मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश, 2020– पारित किया है, जो कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को कानूनी वैधता प्रदान करता है ताकि बड़े बिजनेस और कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट पर जमीन लेकर खेती कर सकें.

इन अध्यादेशों को लेकर किसानों के हित की बात करने वाले कृषि विशेषज्ञों में भी अलग-अलग मत हैं. कृषि अर्थशास्त्री प्रोफेसर अशोक गुलाटी और पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन जैसे लोगों ने इसका समर्थन किया है.

वहीं अन्य विशेषज्ञ जैसे कि देविंदर शर्मा, योगेंद्र यादव, अजय वीर जाखड़, वीएम सिंह और लगभग सभी कृषि संगठनों ने इसका विरोध किया है.

कुछ लोगों का मानना है कि कि आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन एक सही कदम है. ये एक्ट 1950 के दशक में लाया गया था, जब देश खाद्य संकट से जूझ रहा था. जाहिर है यह कानून तात्कालिक स्थिति को ध्यान में रखकर बनाया गया था, इसलिए अब खाद्य आपातकालीन स्थिति को छोड़कर, खाद्य पदार्थों को जमा करने पर रोक लगाने की जरूरत नहीं है.

इस कदम से ट्रेडर्स और स्टॉकिस्ट को फायदा होगा और हो सकता है कि इसकी वजह से कृषि उत्पादों के बाजार मूल्य में गिरावट न आए.

हालांकि एक विचार यह भी है कि जमाखोरी को कानूनी मान्यता देने से सिर्फ व्यापारियों को फायदा होगा, किसानों को नहीं. मालूम हो कि जब भी प्याज वगैरह के दाम बढ़ते हैं तो इसकी प्रमुख वजह यही बताई जाती है कि कुछ लोगों द्वारा जमाखोरी करने के कारण ऐसा हो रहा है.

वहीं एपीएमसी मंडियों के बाहर खरीद और बिक्री की व्यवस्था बनाने के लिए लाए गए एक अन्य अध्यादेश को लेकर विशेषज्ञों का कहना है कि यह एपीएमसी की व्यवस्था खत्म करने की कोशिश है, जहां करीब-करीब एमएसपी के बराबर किसानों को मूल्य मिल जाता था.

मौजूदा समय में किसानों को पूरे देश में फैली 6,900 एपीएमसी मंडियों में अपनी कृषि उपज बेचने की अनुमति है. जिन राज्यों में एपीएमसी एक्ट लागू है, वहां इन मंडियों के बाहर कृषि उपज बेचने और खरीदने पर प्रतिबंध हैं.

अब नए कानून के तहत सरकार ने कहा है कि इन मंडियों के बाहर उपज की बिक्री और खरीद पर कोई राज्य कर नहीं लगेगा. वहीं एपीएमसी मंडियों में टैक्स लगता रहेगा. इसकी वजह से ये आशंका है कि अब व्यापारी एपीएमसी मंडियों के अंदर खरीद नहीं करेंगे और वे किसानों से इसके बाद खरीददारी करेंगे जहां उन्हें टैक्स नहीं देना पड़ेगा.

इस पृष्ठभूमि में चिंता ये है कि धीरे-धीरे एपीएमसी मंडियां खत्म हो जाएंगी और तब ट्रेडर्स अपने मनमुताबिक दाम पर किसानों से खरीददारी करेंगे, जो कि संभवत: एमएसपी से कम होगी.

ऐसा इसलिए कहा जा रहा क्योंकि एपीएमसी मंडी के अंदर कई सारे खरीददार होते हैं, जिसके कारण प्रतिस्पर्धा की स्थिति के चलते मूल्यों में बढ़ोतरी होती है. बिक्री के ज्यादा विकल्प होने के कारण किसान उसे अपना सामान बेचता है, जो उसे उचित दाम देता है.

क्या एपीएमसी व्यवस्था नहीं होने से किसानों को फायदा होगा?

स्वराज इंडिया के अध्यक्ष और कृषि मामलों के जानकार योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘इस सवाल के जवाब के लिए हमें सिर्फ बिहार को देखने की जरूरत है, जिसने साल 2006 में एपीएमसी व्यवस्था खत्म कर दी थी और उन राज्यों को भी देखा जाए जहां कभी भी एपीएमसी नहीं रही.’

उन्होंने कहा, ‘मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह सकता हूं कि किसान प्राइवेट ट्रेडर्स की रहम पर जीने के बजाय एपीएमसी द्वारा भले ही शोषित हो, लेकिन अपना उत्पाद यहीं पर बेचना बेहतर समझेगा. यह अध्यादेश कहता है कि बड़े उद्योग सीधे किसानों से खरीद कर सकेंगे, लेकिन ये यह नहीं बताता कि जिन किसानों के पास मोल-भाव करने की क्षमता नहीं है, वो इससे कैसे लाभान्वित होंगे.’

यादव ने आगे कहा, ‘ये बात सही है कि एपीएमसी मंडियों के साथ कई समस्याए हैं, ऐसा नहीं है कि किसान इन मंडियों से बहुत खुश हैं, लेकिन सरकार ये जो नई व्यवस्था ला रही है उसके कारण जो भी थोड़ी बहुत बेहतर व्यवस्था थी वो खत्म हो जाएगी और किसान व्यापारियों के रहम पर जीने को मजबूर हो जाएगा.’

इस अध्यादेश की घोषणा करते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि अब किसान अपने घर से उपज सीधे कंपनियों, प्रोसेसर, कृषक उत्पादक कंपनियों (एफपीओ) और सहकारी समितियों को भी बेच सकते हैं और एक बेहतर मूल्य प्राप्त कर सकते हैं. उन्होंने कहा था कि किसानों के पास विकल्प होगा कि वह किसे और किस दर पर अपनी उपज बेचे.

हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि ये सब सुनने में तो अच्छा लग सकता है लेकिन हकीकत में ऐसा होने के लिए किसान के पास पर्याप्त पूंजी होनी चाहिए, किसान उतना पढ़ा लिखा होना चाहिए कि वो बाजार के खेल को समझ सके, उसमें इतनी समझ हो कि वो बाजार की भविष्य स्थिति का आकलन कर सके और उसके पास भारी-भरकम उपज होनी चाहिए ताकि वो बाजार में टिक सके.

भारतीय परिदृश्य को अगर देखें तो ये चीजें संभव होती दिखाई नहीं देती हैं. देश में 85 फीसदी से अधिक छोटे एवं मध्यम किसान हैं, जिनके पास पांच एकड़ से कम भूमि है. देश में औसत कृषि भूमि 0.6 हेक्टेयर है. इसके कारण किसानों की उतनी ज्यादा उपज नहीं होती है कि वो बाजार में बेच सके.

कई बार ऐसा होता है कि किसान अगली बुवाई के लिए अपनी उपज को बेचता है और आगे चलकर फिर उसी उपज को बाजार से खरीदता है. इसके अलावा सभी किसानों के पास ये भी व्यवस्था नहीं होती है कि वो अपने उत्पाद को रोककर रख सकें और जब बाजार में मूल्य ऊपर जाए, तब उसे बेचे.

लुधियाना स्थिति पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार और वाइस चांसलर आरएस सिद्धू और बीएस ढिल्लन इस मामले को लेकर लिखे अपने एक लेख में कहते हैं, ‘आमतौर पर व्यापार की प्रकृति शोषक की होती है और यह लाभ को बढ़ाने के सिद्धांतों पर काम करती है. व्यापार के संबंध में विक्रेता और खरीददार के पास बराबर जानकारी नहीं होती. देश में कृषि उत्पाद अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न है. पंजाब, हरियाणा तथा कुछ अन्य राज्य खूब खाद्यान्न का उत्पादन करते हैं, जबकि अधिकतर केंद्रीय, उत्तर पूर्वी और पूर्वी राज्यों में खाद्यान्न की कमी है और वे अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए बाजार पर निर्भर रहते हैं.’

उन्होंने आगे कहा है, ‘इसकी प्रबल संभावना है कि कटाई होने के बाद ट्रेडर्स अधिक उत्पादन वाले राज्यों से कम दाम पर खाद्यान्न खरीदेंगे और जिन राज्यों में इसका उत्पादन कम होता है, वहां पर इसे अधिक दामों में बेचेंगे. ऐसी स्थिति में अधिक उत्पाद और उपभोक्ता दोनों को ही आर्थिक नुकसान होगा और ट्रेडर्स को खूब लाभ होगा. लाभ का यह अंतर मौजूदा विनियमित मूल्य व्यवस्था की तुलना में काफी ज्यादा होगा.

जिन राज्यों में एपीएमसी एक्ट नहीं है और वहां के कृषि बाजारों को रेगुलेट नहीं किया जाता है, ऐसी जगहों के अनुभव दर्शाते हैं कि इस स्थिति में किसानों को उचित दाम मिलने की संभावना बहुत कम होती है.

साल 2015-16 के नाबार्ड सर्वे के मुताबिक, बिहार के एक किसान परिवार की औसत आय 7,175 रुपये प्रति महीने है. वहीं पंजाब के किसान परिवार की औसत आय 23,133 रुपये और हरियाणा के किसान परिवार की आय 18,496 रुपये है. बिहार में एपीएमसी एक्ट नहीं लागू है, वहीं हरियाणा में एपीएमसी लागू है और यहां के बाजार को रेगुलेट किया जाता है.

नाबार्ड के मुताबिक, देश के एक किसान परिवार की औसत आय 8,932 रुपये प्रति महीने है. यानी कि 4-5 लोगों के परिवार में करीब 300 रुपये प्रतिदिन की आय होती है. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या किसान ऐसी स्थिति में है या इतना पढ़ा-लिखा है कि वो व्यापारियों से मोल-भाव कर सके और बाजार के खेल को समझ सके.

इन अध्यादेशों की इसलिए भी आलोचना हो रही है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य अपातकाल के बीच अचानक से इनकी घोषणा कर दी गई और इस पर किसानों से ही विचार विमर्श नहीं किया गया. कृषि संगठन इस बात से ही नाराज हैं कि किसानों के लिए लाए गए तथाकथित कृषि सुधार पर किसानों से ही चर्चा नहीं की गई.

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक वीएम सिंह कहते हैं, ‘सरकार एक राष्ट्र, एक मार्केट बनाने की बात कर रही है, लेकिन उसे ये नहीं पता कि जो किसान अपने जिले में अपना उत्पाद नहीं बेच पाता है, वो राज्य के बाहर क्या बेच पाएगा. किसान के पास न साधन है और न ही गुंजाइश है कि वह अपनी फसल दूसरे मंडल या प्रांत में ले जा सके.’

उन्होंने आगे कहा, ‘इस अध्यादेश की धारा 4 में कहा गया है कि किसान को पैसा उस समय या तीन कार्य दिवस में दिया जाएगा. किसान का पैसा फंसने पर उसे दूसरे मंडल या प्रांत में बार-बार चक्कर काटने होंगे. न तो दो-तीन एकड़ जमीन वाले किसान के पास लड़ने की ताकत है और न ही वह इंटरनेट पर अपना सौदा कर सकता है.’

हालांकि कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने इन कानूनों का समर्थन किया है और उन्होंने कहा कि जिस तरह अर्थव्यवस्था के लिए साल 1991 बहुत बड़ा कदम था उसी तरह कृषि के लिए ये अध्यादेश हैं.

उन्होंने अपने एक लेख में कहा, ‘एपीएमसी के बाहर कृषि उत्पाद बेचने की व्यवस्था से खरीददारों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी, मंडी फीस में कमी आएगी. हमारे किसान उत्पादन से ज्यादा मार्केटिंग की समस्या से जूझते हैं. एपीएमसी का एकाधिकार हो गया था. इस नए कानून से किसानों को अपनी उपज बेचने के और मौके मिलेंगे तथा उन्हें बेहतर दाम भी मिलेगा.’

एक अन्य कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि जिसे हम रिफॉर्म कह रहे है वो अमेरिका और यूरोप में कई दशकों से लागू है और इसके बावजूद वहां के किसानों की आय में कमी आई है.

उन्होंने कहा, ‘अमेरिका कृषि विभाग के मुख्य अर्थशास्त्री का कहना है कि 1960 के दशक से किसानों की आय में गिरावट आई है. इन सालों में यहां पर अगर खेती बची है तो उसकी वजह बड़े पैमाने पर सब्सिडी के माध्यम से दी गई आर्थिक सहायता है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘कमोडिटी ट्रेडिंग और मल्टी-ब्रांड रिटेल के प्रभुत्व के बावजूद अमेरिकन फार्म ब्यूरो फेडरेशन ने 2019 में कहा कि 91 प्रतिशत अमेरिकी किसान दिवालिया हैं और 87 प्रतिशत किसानों का कहना है कि उनके पास खेती छोड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है.’

शर्मा ने कहा कि बिहार में 2006 से एपीएमसी नहीं है और इसके कारण होता ये है कि ट्रेडर्स बिहार से सस्ते दाम पर खाद्यान्न खरीदते हैं और उसी चीज को पंजाब और हरियाणा में एमएसपी पर बेच देते हैं क्योंकि यहां पर एपीएमसी मंडियों का जाल बिछा हुआ है.

उन्होंने कहा, ‘यदि सरकार इतना ही किसानों के हित को सोचती है तो उसे एक और अध्यादेश लाना चाहिए जो किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार दे दे, जो ये सुनिश्चित करेगा कि एमएसपी के नीचे किसी से खरीद नहीं होगी. इससे किसानों का हौसला बुलंद होगा.

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने के लिए लाए गए तीसरे अध्यादेश को लेकर भी विवाद है. सरकार कहती है कि इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी और उसके उत्पाद की बिक्री सुनिश्चित रहेगी.

हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि इससे कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा मिलेगा और उन्हीं को लाभ मिलेगा, किसानों को नहीं.

वीएम सिंह इसके कुछ उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘30 साल पहले पंजाब के किसानों ने पेप्सिको के साथ आलू और टमाटर उगाने के लिए समझौते किए और बर्बाद हो गए. महाराष्ट्र के उत्पादक कपास में बर्बाद हुए, जिससे आत्महत्याएं बढ़ीं. इस अध्यादेश की धारा 2(एफ) से पता चलता है कि ये किसके लिए बना है. एफपीओ को किसान भी माना गया है और किसान तथा व्यापारी के बीच विवाद की स्थिति में बिचौलिया भी बना दिया गया है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘इसमें विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर किसान ही भुगतेगा. इसके तहत आपसी विवाद सुलझाने के लिए 30 दिन के भीतर समझौता मंडल में जाना होगा. वहां न सुलझा तो धारा 13 के अनुसार एसडीएम के यहां मुकदमा करना होगा. एसडीएम के आदेश की अपील जिला अधिकारी के यहां होगी और जीतने पर किसाने को भुगतान करने का आदेश दिया जाएगा. देश के 85 फीसदी किसान के पास दो-तीन एकड़ जोत है. विवाद होने पर उनकी पूरी पूंजी वकील करने और ऑफिसों के चक्कर काटने में ही खर्च हो जाएगी.’

वहीं योगेंद्र यादव कहते हैं कि यह अध्यादेश देश में सालों से चली आ रही अनौपचारिक एग्रीमेंट ठेका या बंटाई की समस्या का कोई समाधान नहीं करता है.

उन्होंने कहा, ‘भूस्वामियों को धमकाए बिना इन ठेका किसानों का पंजीकरण भूमि सुधार की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम होता. इसकी जगह पर ये अध्यादेश पहले से ही चलती चली आ रही कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए समस्या खड़ी कर सकता है. अब जमीन का मालिक स्थानीय बंटाईदार के बजाय कंपनी के साथ लिखित में कॉन्ट्रैक्ट कर अपनी जमीन देना बेहतर समझेगा.’

यादव ने कहा कि इस अध्यादेश में कही भी ऐसा सुनिश्चित नहीं किया गया है कि छोटे किसान, जिसकी मोल-भाव करने की क्षमता कम है, के साथ किया गया कॉन्ट्रैक्ट उचित होगा.

किसानों का कहना है कि यदि सरकार इन अध्यादेशों को बनाए रखना चाहती है तो वो बनाए रखे, उन्हें कोई समस्या नहीं. बशर्ते सरकार सिर्फ एक और अध्यादेश या कानून ला दे कि देश में कहीं भी एमएसपी से कम पर कृषि उपज की खरीदी नहीं होगी. यदि कोई भी व्यापारी या ट्रेडर ऐसा करता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी.

भारत सरकार द्वारा इन मुद्दों पर जवाब दिया जाना अभी बाकी है.

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