‘बिहार में बीए, एमए किए लोग बेरोजगार घूम रहे हैं, पता नहीं सरकार क्या काम करती है’

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार में लॉकडाउन में जैसे-तैसे अपने गांव-घर पहुंचे मज़दूर अब आजीविका कमाने वापस लौट चुके हैं, जो बचे भी हैं उनका कहना है कि उनके लिए सरकार ने कुछ नहीं किया. वे चाहते हैं कि अब बदलाव होना चाहिए और उन्हें उनके प्रदेश में ही काम-काज मिलना चाहिए.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार में लॉकडाउन में जैसे-तैसे अपने गांव-घर पहुंचे मज़दूर अब आजीविका कमाने वापस लौट चुके हैं, जो बचे भी हैं उनका कहना है कि उनके लिए सरकार ने कुछ नहीं किया. वे चाहते हैं कि अब बदलाव होना चाहिए और उन्हें उनके प्रदेश में ही काम-काज मिलना चाहिए.

(फाइल फोटो: पीटीआई)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

मुजफ्फरपुर जिले के मुसहरी प्रखंड के मनिका विशुनपुरा चांद गांव के मुसहरी टोले के दीपक राम लॉकडाउन में करीब ढाई महीने तक हैदराबाद के शंकरपल्ली क्षेत्र में फंसे रहे. वे वहां भवन मजदूर के रूप में काम कर रहे थे.

लॉकडाउन के बाद कम बंद हो गया लेकिन ट्रेन बंद होने से वह लौट नहीं पाए. वह वहीं रुककर श्रमिक स्पेशन ट्रेन चलने का इंतजार करने लगे. उनके साथ गांव के सुनील राम, मंजर मांझी भी काम कर रहे थे.

किसी तरह उन्हें 30 जून को श्रमिक स्पेशल ट्रेन मिली. वह ट्रेन भी सीधे मुजफ्फरपुर नहीं आई. वह ट्रेन से मालदा तक आए. वहां से वह कूच बिहार पहुंचे और फिर कटिहार होते हुए टेम्पो, बस से किसी तरह घर पहुंचे.

इस दौरान उन्हें एक नदी को भी पार करना पड़ा. उन्हें हैदराबाद से घर पहुंचने में पांच दिन लग गए.

39 वर्षीय दीपक बताते हैं, ‘घर पर ही क्वारंटीन रहना पड़ा. आशा घर आई और सभी विवरण जुटा कर ले गई और बोली कि खाते में सरकार पैसा भेजेगी लेकिन आज चार महीने होने जा रहा है, अभी तक एक रुपये भी खाते में नहीं आया.’

वे आगे कहते हैं, ‘जून महीने से घर बैठे हैं. कोई काम नहीं है. हैदरबाद कोई काम किए बगैर तीन महीने तक बैठे रहे. इस दौरान कमाई के 12 हजार रुपये खर्च हो गए. सारी कमाई लॉकडाउन में स्वाहा हो गई.’

वे कहते हैं कि उनके साथ आए एक-दो लोग वापस चले गए हैं. उनकी अकेले जाने की हिम्मत नहीं हो रही है, ‘बाकी मजदूर जाएंगे तो निकलेंगे. आखिर कब तक घर बैठे रोटी तोड़ते रहेंगे!,’ वे कहते हैं.

दीपक के घर में पत्नी, दो बेटे और एक बेटी है. माता-पिता भी साथ ही रहते हैं. एक छोटा-सा घर है. दीपक साल 2014 से मजदूरी करने हैदराबाद व अन्य शहरों में जाते रहे हैं.

दीपक राम. (सभी फोटो: मनोज सिंह)
दीपक राम. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

उनके साथ ही वापस आए सुनील राम छठ बाद हैदराबाद जाने की तैयारी कर रहे हैं. वे कहते हैं कि जिस ठेकेदार के साथ काम कर रहे थे, वह बोला है कि त्योहार बाद वापस आ जाओ.

सुनील राम सरकार की उपेक्षा से गुस्से में हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार ने हम लोगों के लिए कुछ नहीं किया. कहा गया था कि एकाउंट में पैसा दिया जाएगा. गांव में ही काम दिलाया जाएगा लेकिन कोई काम नहीं मिल रहा है.’

वे कहते हैं, ‘हम गरीब लोग क्या कर सकते हैं, वोट देने के बाद जाएंगे. जिस सरकार ने हम लोगों के लिए कुछ नहीं किया, उसे बदलना चाहिए.’

इसी गांव के वार्ड नंबर 14 में 30 युवक मुंबई के घाटकोपर इलाके में अलमारी बनाने के काम करते थे. ये सभी लोग मई महीने में जैसे-तैसे गांव वापस लौटे थे. अब ये मजदूर धीरे-धीरे वापस जा रहे हैं. गांव में मोहम्मद आजाद और मुबारक से मुलाकात हुई.

20 वर्षीय मुबारक ने बताया कि वे अपने गांव और आस-पास के गांवों के 60 मजदूरों के साथ वापस आए थे. मुंबई से लौटने की कोई सूरत न बनने पर उन लोगों ने 2.30 लाख रुपये में एक ट्रक तय किया और तीन दिन की यात्रा करते हुए घर पहुंचे. एक-एक मजदूर को तीन से चार हजार रुपये किराया देना पड़ा. गांव आने पर 14 दिन क्वांरटीन रहना पड़ा, उसके बाद से खाली घर बैठे हैं.

मो. आरिफ ने बताया कि उनके पिता अलाउद्दीन और भाई मकसूद भी मुंबई में साकीनाका इलाके में मजदूरी करते थे. लॉकडाउन में वापस आए थे. एक महीने पहले वे दोनों वापस चले गए.

22 वर्षीय मोहम्मद आजाद भी ट्रक से यूपी के बस्ती आए और फिर वहां से बस से सिवान होते हुए गांव पहुंचे. मुंबई से घर आने में चार हजार रुपये खर्च हो गए. आजाद मैट्रिक पास हैं जबकि मुबारक ने नवीं तक पढ़ाई की है.

मोहम्मद आजाद, मुबारक और मो. नईम.
मोहम्मद आजाद, मुबारक और मो. नईम.

आजाद बताते हैं, ‘मुंबई में तीन महीना बैठकर खाए. पैसा-पानी खर्च होने लगा तो कइसे-कइसे जुगाड़ कर आए. सरकार ने कोई सुविधा नहीं दी.’

वे कहते हैं, ‘कौन चाहता है कि घर से दो हजार किलोमीटर दूर जाकर मजदूरी करे. बाहर मजदूरी करने में बहुत सुख तो नहीं है. मजबूरी में जाते है. एक महीने में 12-14 हजार रुपये कमा पाते हैं. रहने-खाने में 10 हजार रुपये तक खर्च हो जाते हैं. बमुश्किल चार-पांच हजार बचा पाते हैं. यहां सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं की. बात बड़ी-बड़ी सुनी थे. क्वारंटीन में भी अपने ही घर से खाना और जरूरी सामान आता था. खाता नंबर लिया गया था कि सरकार पैसे भेजेगी. अभी तक कुछ नहीं आया.’

मुबारक और आजाद अब वोट देने के बाद 16 नवंबर को मुंबई जाएंगे. कहते हैं कि पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव में वोट नहीं दे पाए. मुंबई में थे. आ नहीं पाए.

आजाद कहते हैं, ‘आखिर यहां कब तक बैठे रहेंगे? यहां कोई काम-धाम तो है नहीं. बहुत ढूंढे तो एक महीने में पांच-छह दिन काम मिला. सरकार प्लानिंग करती तो इतना पद खाली है, हम लोग एडजस्ट हो जाते. हम लोग कम-पढ़े लिखे हैं इसलिए कोई काम नहीं मिलता लेकिन बिहार में बीए, एमए किए लोग भी बेरोजगार घूम रहे हैं. पता नहीं सरकार क्या काम करती है?’

दोनों कहते हैं कि अब बदलाव होना चाहिए. हमें अपने ही प्रदेश में काम-काज मिलना चाहिए.

इस गांव के मुखिया अरविंद सिंह उर्फ विजय सिंह बताते हैं, ’14 वार्ड वाले हमारे गांव में 250 प्रवासी मजदूर लॉककडाउन में वापस आए थे. कुछ लोगों को मनरेगा में काम दिया गया लेकिन मेरे गांव में मनरेगा का ज्यादा काम नहीं है. गांव के चारों तरफ बारह महीने जलजमाव रहता है.’

इस ग्राम पंचायत की आबादी 15 हजार है, 6500 मतदाता है. यह गांव मुजफ्फरपुर के बोचहां (सुरक्षित) विधानसभा क्षेत्र में आता है. अब लॉकडाउन में घर आए मजदूर वापस काम पर जाने लगे हैं.

सुपौल जिले के निर्मली विधानसभा क्षेत्र के कुनौली गांव के मुखिया बताते हैं कि उनके ग्राम पंचायत में दो हजार से अधिक प्रवासी मजदूर वापस आए थे. इनमें से 90 फीसदी मजदूर वापस चले गए हैं.

वे कहते हैं, ‘कुछ ही मजदूर बचे हैं. वे भी वापस जाने की तैयारी में है. आखिर वे यहां रुककर क्या करेंगे? बिहार में कोई कल-कारखाना तो है नहीं कि यहां उनको काम मिलेगा.’

इसी जिले के निर्मली विधानसभा क्षेत्र के हरिहरपुर गांव के निवासी गुलाब यादव बताते हैं, ‘कोसी महासेतु के पास मझारी चौराहे से दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू काश्मीर के लिए सीधे बसें चल रही है जो यहां के मजदूरों का वापस ले जा रहे है. कई बार ठेकेदार 30-40 मजदूरों को बस रिजर्व कर हरियाणा-पंजाब भेज दे रहे हैं. ये ठेकेदार मजदूरों के परिजनों को एडवांस में एक महीना की मजदूरी दे देते हैं ताकि वे अपने घर के लोगों को मजदूरी के लिए भेज सकें.’

वे बताते हैं कि उनके गांव के आस-पास के लोग मजदूरी के लिए पंजाब और हरियाणा के अनाज मंडियों में काम करने जाते हैं. कुछ मजदूर हरियाणा के कुरूक्षेत्र में मिल्क प्रोडक्ट बनाने वाले कारखानों में काम करते हैं.

गुलाब के अनुसार, इधर दो-तीन दिन से मजदूरों के वापस जाने में कमी आई है. त्योहार व चुनाव के कारण यह कमी देखी जा रही है. वे मझारी चौक गए थे तो दिल्ली, पंजाब, हरियाणा चलने वाली बसों के मालिक व चालक परेशान दिख रहे थे, कह रहे थे कि सवारी नहीं मिल रहे हैं.

गुलाब यादव का कहना था, ‘यहां के 25 फीसदी मजदूर वापस चले गए हैं. जो यहां रुके हैं, वे चुनाव में नेतागिरी कर रहे हैं.’

प्रवासी मजदूरों में सरकार के खिलाफ गुस्सा अभी कम नहीं हुआ है. जो मजदूर वापस चले गए हो, उनमें नाराजगी बरकरार है.

सीतामढ़ी जिले के सूपी गांव के निषाद समुदाय के चार मजदूर- धर्मेंद्र, रोहित, मुकेश और रिषू लॉकडाउन में राजस्थान के उदयपुर से साइकिल से वापस लौटे थे.

इन मजदूरों ने उदयपुर से 370 किलोमीटर पैदल और 700 किलोमीटर साइकिल चलाते हुए 13 दिन में अपने घर पहुंचे थे. उदयपुर से आगरा तक पैदल चलते-चलते उनके पैरों में इस कदर छाले पड़ गए कि आगे चलने की हिम्मत न रही. जेब में पैसे भी नहीं थे.

आगरा के आगे एक गांव में इन मजदूरों ने ग्रामीणों से गुहार लगाई कि वे उन्हें साइकिल दे दें, नहीं तो वे यहीं मर जाएंगे. ग्रामीणों ने उन्हें तीन पुरानी साइकिलें दी. फिर इन साइकिलों पर सवार होकर ये मजदूर 3 मई को अपने गांव पहुंचे.

इनमें से एक धर्मेंद्र बीते चार अक्टूबर को वापस मजदूरी करने दिल्ली चले गए हैं. वे दिल्ली में पेटिंग का काम कर रहे हैं. इसके पहले भी वह एक महीना मजदूरी कर वापस गांव लौटकर आए थे.

उनसे फोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया, ‘लॉकडाउन ने जिंदगी का संतुलन बिगाड़ दिया है. घर पर पत्नी और बीमार मां है. लॉकडाउन के समय पत्नी गर्भवती थीं, बेटी को जन्म दिया है. मुझे घर पर रहकर उनकी सहायता करनी चाहिए लेकिन गांव में कोई काम-धंधा न होने पर मजदूरी करने जाना पड़ा.’

धर्मेंद्र ने बताया कि गांव रहते हुए उन्हें दो महीने का राशन और 500-500 रुपये मिले. इसके अलावा उन्हें कोई और सहायता नहीं मिली.

उन्होंने बताया, ‘सरकार बोली थी कि हमारा रजिस्ट्रेशन होगा, काम मिलेगा, पैसा मिलेगा लेकिन एक भी चीज नहीं हुई. गांव में खाली बैठे 15-20 हजार का कर्ज हो गया. गांव में कोई काम नहीं है. अब तो पहले से अधिक भुखमरी हो गई है. मैं आज भी अपने 14 दिन का सफर भूला नहीं हूं. दिल्ली में वोट देने की सुविधा मिले तो यहीं से वोट दे दूं. अभी चार-पांच हजार खर्च कर गांव जाकर वोट देना मुश्किल होगा. कहां इतना पैसा है? बस से स्लीपर का किराया 2,500 रुपये है. बैठकर आने में 1,500 रुपये लगता है.’

नीतीश सरकार पर गुस्सा होते हुए वे कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री ने मजदूरों से कहा बिहार मत आओ, कोरोना से मर जाओगे. बताइए कोई नेता ऐसा बोलता है. यही कारण है कि पूरा बिहार उन्हें गारी दे रहा है. हम नेता क्यों बनाते हैं? इसलिए कि वह देश संभाले, देशवासियों को संभाले. जो देशवासियों को मारेगा तो उसे बदलना पड़ेगा. ’

मुजफ्फरपुर में मोती झील के पास जोगेंद्र साह नारियल पानी बेच रहे हैं. वे पूर्वी चंपारण जिले के केसरी के रहने वाले हैं. लॉकडाउन के पहले वह दिल्ली के आजाद नगर में मशरूम सप्लाई का काम करते थे. सब कुछ अच्छा चल रहा था, अचानक लॉकडाउन हो गया.

वे उस समय बिहार ही आए हुए थे. यही रह गए. पत्नी व बच्चे दिल्ली में थे, किसी तरह उन्हें बुलवाया. अब उनका रोजगार खत्म हो गया.

बेहद उदास जोगेंद्र कहते हैं, ‘आज हालत यह हो गई है कि सड़क पर रेहड़ी लगा रहे हैं.’

यह पूछने पर कि वोट देने जाइएगा, वह अनमने ढंग से कहते हैं, ‘वोट देने का मन नहीं है. कुछ बदलता नहीं है. हमारे नेता लोग बदलेंगे नहीं. बताइए ऐसे कहीं होता है कि रात में आप सोएं और सुबह बता दिया जाय कि लॉकडाउन हो गया है. कुछ दिन का मौका नहीं दिया जा सकता था क्या? एक बार मोदी जी को वोट दिया था. उन्होंने बहुत निराश किया. यदि वोट दूंगा तो उन्हें नही दूंगा.’

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)

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