मनरेगा श्रमिकों को मज़दूरी पाने के लिए मीलों चलना पड़ता है, घंटों करते हैं इंतज़ार: रिपोर्ट

सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो सरकारों में भुगतान व्यवस्था सुधारने के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) पर ख़ूब ध्यान दिया है, लेकिन मज़दूरों के खाते में पैसे डालने के बाद होने वाली संस्थागत समस्याओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो सरकारों में भुगतान व्यवस्था सुधारने के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) पर ख़ूब ध्यान दिया है, लेकिन मज़दूरों के खाते में पैसे डालने के बाद होने वाली संस्थागत समस्याओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत बड़ी संख्या में काम करने वाले श्रमिकों को अपनी मजदूरी प्राप्त में भारी समस्याओं का सामना करता पड़ा है. इसके लिए न सिर्फ उन्हें अक्सर लंबी दूरी की यात्रा करनी पड़ रही है, बल्कि अपनी मजदूरी पाने के लिए कई घंटे इंतजार करना पड़ता है.

सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह लिबटेक इंडिया (LibTech India) की रिपोर्ट से ये जानकारी सामने आई है. इस समूह ने झारखंड, आंध्र प्रदेश और राजस्थान में 1947 मजदूरों के बीच कराए एक सर्वे के आधार पर रिपोर्ट तैयार की है.

‘Length of the Last Mile: Delays and Hurdles in NREGA Wage Payments’ नामक इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मनरेगा मजदूरों को अपने हफ्ते भर की कमाई का एक तिहाई से अधिक हिस्सा अपनी मजदूरी निकालने में खर्च करना पड़ता है. इससे यह भी पता चलता है कि करीब आधे (45%) मजदूरों को अपना पैसा निकालने के लिए कई बार बैंक जाना पड़ता है.

रिपोर्ट में कस्टमर सर्विस पॉइंट (सीएसपी) और बिजनेस कॉरेस्पॉन्डेंट्स (बीसी) सिस्टम की नाकामियों को भी दर्शाया गया है. इसमें बताया गया है कि करीब 40 फीसदी सीएसपी/बीसी यूजर्स को बायोमेट्रिक तंत्र खराब होने के कारण कई बार आना-जाना पड़ता है. 57 फीसदी लोगों ने बताया कि उनके पासबुक को समय पर अपडेट नहीं किया जाता है.

इसके अलावा कई श्रमिकों ने शिकायत की कि उन्हें बैंक से अपनी मजदूरी प्राप्त करने में चार घंटे तक का समय लगता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो कई सरकारों में भुगतान व्यवस्था सुधारने के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) पर खूब ध्यान दिया है, लेकिन मजदूरों के खाते में पैसे डालने के बाद उत्पन्न होने वाली संस्थागत समस्याओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है.

इसमें ये भी बताया गया है कि सर्वे में शामिल कुल मजदूरों में से 1182 यानी कि 60.7 फीसदी लोगों ने अपनी मजदूरी के लिए बैंक का इस्तेमाल किया. वहीं 476 श्रमिकों (24.4) फीसदी ने सीएसपी या बीसी जैसे सुविधाओं का इस्तेमाल किया. बाकी लोगों ने पोस्ट ऑफिस के जरिये अपना पैसा निकाला.

रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2013 में छोटे व्यवसायों और कम आय वाले परिवारों के लिए व्यापक वित्तीय सेवाओं पर समिति ने उम्मीद जताई थी कि 1 जनवरी 2016 तक इलेक्ट्रॉनिक भुगतान सिस्टम की पहुंच ऐसी होगी कि देश में कहीं से भी सिर्फ पंद्रह मिनट की पैदल दूरी पर ये उपलब्ध होगा.

हालांकि सर्वे में ये खुलासा हुआ कि चार साल बाद भी अधिकतर मजदूरों को अपनी मजदूरी प्राप्त करने के लिए कई किलोमीटर चलना पड़ता है.

इसके अलावा ये भी बताया गया है कि बैंकिंग व्यवस्था एवं अधिकारों के बारे में लोगों को इतनी कम जानकारी है कि सर्वे में शामिल 75 फीसदी लोगों को नहीं पता है कि बैंक से पैसे कैसे निकालते हैं. इसके साथ ही श्रमिकों को मजदूरी क्रेडिट के बारे में विश्वसनीय जानकारी नहीं है.

वेतन क्रेडिट के बारे में पता लगाने के लिए लगभग 36 फीसदी ने बैंक का दौरा किया और उनमें से लगभग एक चौथाई को इसके बारे में गलत जानकारी दी गई थी. इसलिए यह पता लगाने के लिए कि उनके पैसे आए हैं या नहीं, श्रमिकों को बैंकों के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं.

इनमें से कई लोगों को अपने आधार को बैंक खाते से जोड़ने में कठिनाई का सामना करना पड़ा और जब वे ऐसा करने में कामयाब रहे, तो वे अपने खाते में लेन-देन पर नजर रखने में असमर्थ थे.

रिपोर्ट के मुताबिक, ‘जबकि सभी बैंक और डाकघर यूजर्स को एक पासबुक जारी की गई थी, लेकिन सीएसपी/बीसी में खाता खोलने वालों में से 56 फीसदी को पासबुक जारी नहीं किया गया था. 57 फीसदी लोगों ने बताया कि उनका पासबुक हमेशा अपडेट नहीं होता है.’

मजदूरी निकालने में समय के साथ पैसा भी खर्च

रिपोर्ट के मुताबिक, 45.1 फीसदी श्रमिकों को अपनी मजदूरी के पैसे निकालने के लिए कई बार बैंक के चक्कर लगाने पड़े और यह आंकड़ा आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा 54.2 फीसदी था, इसके बाद झारखंड में 43 फीसदी और राजस्थान में 38.8 फीसदी था.

इसी तरह करीब 40 फीसदी ने बताया कि बायोमेट्रिक विफलताओं के कारण उन्हें कई बार सीएसपी/बीसी का दौरा करना पड़ा. इसके अलावा 55.3 फीसदी ने बताया कि कैश की कमी के कारण उन्हें कई बार एटीएम जाना पड़ा और 52.3 फीसदी को कई बार पोस्ट ऑफिस का दौरा करना पड़ा था.

इसके साथ ही अपनी मजदूरी के पैसे निकालने के लिए पोस्ट ऑफिस का दौरा करने पर औसतन छह रुपये खर्च हुए. वहीं बैंक के लिए 31 रुपये खर्च करने पड़े, सीएपी/बीसी के लिए 11 रुपये और एटीएम से पैसे निकालने में सबसे ज्यादा 67 रुपये खर्च करने पड़े.

रिपोर्ट में मनरेगा मजदूरी के वितरण के लिए पोस्ट ऑफिस की व्यवस्था को सुधारने और इसे बढ़ावा देने की मांग की गई है.

सर्वे में इस ओर भी ध्यान खींचा गया है कि कई तकनीकि समस्याओं के कारण भुगतान कैंसिल हो जाता है या उनके खाते में नहीं पहुंचता है. इसके चलते मजदूरों को तब तक उनकी मजदूरी नहीं मिलती है जब तक कि कैंसिल या रिजेक्ट किए गए भुगतान को सत्यापित नहीं किया जाता है.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, जुलाई 2020 तक पिछले पांच वर्षों में लगभग 4,800 करोड़ रुपये के भुगतान को रिजेक्ट किया गया है और अभी भी श्रमिकों के लगभग 1,274 करोड़ रुपये का भुगतान लंबित है.

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