कोविड-19 से प्रभावित उत्तर और मध्य भारत के ग्रामीण क्षेत्र क्या अनदेखी का शिकार हुए हैं

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के प्रकोप से देश के गांव भी नहीं बच सके हैं. इस दौरान मीडिया में प्रकाशित ख़बरें बताती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 का प्रभाव सरकारी आंकड़ों से अलहदा है.

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मई 2021 में उत्तर प्रदेश के जेवर के मेवला गोपालगढ़ गांव में अपनी बीमार मां के साथ दिनेश कुमार. (फोटो: रॉयटर्स)

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के प्रकोप से देश के गांव भी नहीं बच सके हैं. इस दौरान मीडिया में प्रकाशित ख़बरें बताती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 का प्रभाव सरकारी आंकड़ों से अलहदा है.

मई 2021 में उत्तर प्रदेश के जेवर के मेवला गोपालगढ़ गांव में अपनी बीमार मां के साथ दिनेश कुमार. (फोटो: रॉयटर्स)
मई 2021 में उत्तर प्रदेश के जेवर के मेवला गोपालगढ़ गांव में अपनी बीमार मां के साथ दिनेश कुमार. (फोटो: रॉयटर्स)

कोविड-19 की दूसरी लहर ने कई ग्रामीण इलाकों में बहुत तबाही मचाई है. गांवों पर महामारी का प्रभाव सरकारी आंकड़ों में ज़्यादातर दिखाई नही देता है. मगर स्थानीय खबरें कुछ और ही दृश्य दिखाती हैं: गांवों में तेज़ी से फैले संक्रमण, ऊंची मृत्यु-दर, बहुत ही कम कोविड टेस्टिंग, और स्वास्थ्य-सेवाओं का ढह जाना.

हमने मई 2021 के पहले तीन हफ्तों से कुल इकसठ (61) ऐसी खबरों को इकट्ठा किया, जिनमें एक या अधिक गांवों में कम से कम पांच संदिग्ध कोरोना मौतों के बारे में बताया गया था. इसी तरह की ख़बरों के लिए हिंदी मीडिया में खोज की गई, और इसलिए यह लेख हिंदी भाषी राज्यों पर केंद्रित है.

इन ख़बरों में से 26 उत्तर प्रदेश से, 9 हरियाणा, 8 बिहार, 6 मध्य प्रदेश, 6 झारखंड और 6 राजस्थान से थीं. मीडिया रिपोर्ट्स के विवरण और लिंक इस दस्तावेज में देखे जा सकते हैं.

मौतों की संख्या में बड़ा उछाल

रिपोर्ट्स में कुल 1,297 मौतों के बारे में बताया गया है और इन गांवों की कुल आबादी लगभग 4,80,000 है. इसका मतलब यह है कि इन सब गांवों की आबादी को मिलाकर लगभग 0.27% आबादी बहुत कम समय में मर गई.

व्यक्तिगत रिपोर्ट्स में यह मृत्यु दर 0.05% और 1% के बीच है, और मध्य मूल्य (मीडियन) 0.31% है. इन आंकड़ों को ऐसे समझ सकते हैं: इस नमूने के एक 5,000 निवासियों वाले गांव में 15 दिनों में लगभग 15 मौतें हुई होंगी. दरअसल कई रिपोर्ट्स में हर दिन एक मौत होने की  बात कही गई है.

कई तथ्य पक्के नहीं है. उदाहरण के लिए, कुछ रिपोर्ट्स में सभी मृतकों की सूची हैं, जबकि अन्य में सरपंच द्वारा दिए गए अनुमानित आंकड़े हैं. रिपोर्ट्स में वर्णित मौतें एक हफ़्ते से छह हफ़्तों तक की अवधि के दौरान हुई– लेकिन यह हमेशा स्पष्ट नहीं है कि इस समय में गांव में हुई सभी मौतों का वर्णन हैं, या केवल कोरोना संदिग्ध मौतों का वर्णन है.

मरने वालों की तादाद भी अधूरी हो सकती है- अक्सर महामारी का प्रकोप जारी था और कभी-कभी फॉलो-अप रिपोर्ट में मृत्यु की संख्या और भी अधिक थी.

प्रत्येक स्थान को देख कर यह पूछ सकते हैं कि रिपोर्ट में बताई गई अवधि में सामान्य तौर पर कितनी मौतें अपेक्षित हैं? 2018 के मृत्यु दर का उपयोग करें, तो रिपोर्ट्स में शामिल अवधि के दौरान इन गांवों में कुल 174 मौतें अपेक्षित हैं.

इस हिसाब से मृत्यु दर आम तौर से सात गुना ज़्यादा थी और इन गांवों में लगभग 1,123 ‘अधिक मौतें’ (excess deaths) हुई. कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि गांवों का दौरा करने वाले पत्रकार दहशत और भ्रम का उल्लेख करते हैं.

इन संख्याओं को समझना

कुल जनसंख्या पर अधिक मौतों के प्रतिशत को ‘अतिरिक्त मृत्यु दर’ (excess mortality) कह सकते हैं. सब मिलाकर, रिपोर्ट्स में 0.23% की अतिरिक्त मृत्यु दर, या प्रति हजार जनसंख्या पर 2.3 अधिक मृत्यु की बात कही गई है.

व्यक्तिगत रिपोर्ट्स में अतिरिक्त मृत्यु दर 0% से 0.95% तक जाती है. इसका मीडियन मूल्य 0.29% है. तेरह रिपोर्ट्स में अतिरिक्त मृत्यु दर 0.5% से ज़्यादा है.

मालूम होता है कि इस लहर के दौरान जब एक गांव कोरोना के प्रकोप की चपेट में आ गया था, तो एक महीने में प्रति 200 ग्रामीणों में से एक की मृत्यु हो जाना बहुत असामान्य नहीं था.

इन गांवों से मुंबई की तुलना करें, तो मालूम होता है कि इन ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्यु दर कितनी ऊंची है. मुंबई महामारी से सबसे अधिक प्रभावित शहरों में से एक है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब तक मुंबई की लगभग 0.12% आबादी कोविड-19 से जान गंवा चुकी है, जबकि 2020 के दौरान अतिरिक्त मृत्यु दर लगभग 0.17% थी. इस नमूने के कई गांवों में अतिरिक्त मृत्यु दर इससे दोगुना ज़्यादा थी.

हमें जल्दबाज़ी करके यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि इन रिपोर्ट्स में दर्ज उच्च मृत्यु दर सभी ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति को दर्शाती है. आखिर रिपोर्ट्स उन गांवों पर केंद्रित है जहां ज़्यादा मौतें हुईं और कई गांवों में बीमारी कम ही फैली होगी.

लेकिन रिपोर्ट्स से संकेत मिलता है कि ग्रामीण इलाकों में यह बीमारी तेज़ी से फैल सकती है और इसके बहुत दुखद परिणाम होते हैं.

क्या सभी मौतें कोविड-19 से हुईं?

रिपोर्ट्स में बताई गईं ज़्यादातर मौतें पुष्टि की गई कोविड-19 से नही हुईं थीं. फिर भी, ऐसा लगता है कि ज़्यादातर वास्तव में इस बीमारी के कारण ही हुईं. सबसे पहले, रिपोर्ट का समय उन छह राज्यों में कोरोना के बढ़ते मामलों के साथ मेल खाता है. संदिग्ध कोरोना मौतों में बढ़त के कारण ही पत्रकार इन गांवों में पहुंचे थे.

इसके अलावा, अधिकांश रिपोर्ट्स गांववासियों में कोरोना के बारे में बतातीं हैं. अक्सर सांस फूलना, बुखार और ‘कोविड लक्षण’ का उल्लेख होता है- हालांकि यह हमेशा स्पष्ट नहीं होता है कि सभी मृतकों में ये लक्षण थे या नहीं.

कुछ गांवों में- अक्सर अधिकांश मौतों के बाद- स्वास्थ्य विभाग ने शिविर लगाकर कुछ ग्रामीणों की कोविड जांच की, जिससे मालूम पड़ा कि कई असल में कोरोना संक्रमित थे.

जांच कम और मृतकों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं ज़्यादा

ज़ाहिर है कि मृतकों में से बहुत कम की जांच की गई थी. कुछ रिपोर्ट्स स्पष्ट कहती हैं कि किसी भी मृतक की कोविड जांच नहीं हुई, जबकि अन्य में गांव के लोग मौतों को ‘रहस्यमय’ बताते हैं, या टाइफाइड या मलेरिया जैसी अन्य बीमारियों को मौतों का कारण बताते हैं.

कुछ गांवों में ग्रामीण जांच के लिए तैयार नहीं थे और कुछ गांववासी कोरोना को एक वास्तविक बीमारी मानने को भी तैयार नहीं थे.

कुछ रिपोर्ट्स में बताया गया है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार गांव में कितने लोगों की जांच हुई और कितनी मौतों को कोरोना के वजह से माना गया. ऐसा प्रतीत होता है कि वर्णित मौतों में से 10% से कम को आधिकारिक तौर पर कोविड-19 मौतों के रूप में दर्ज किया गया था.

असल में स्थिति और भी खराब हो सकती है: मौतों में उछाल के कारण- और शायद मीडिया के ध्यान के कारण ही- कभी-कभी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने गांव पहुंचकर जांच की. इस प्रकार जिन गांवों से ऐसी रिपोर्ट्स सामने आती हैं, उनमें सामान्य से अधिक परीक्षण और रिपोर्टिंग की संभावना है.

कोरोना संक्रमण मृत्यु दर के न्यूनतम मूल्यों का अनुमान

कोरोना वायरस संक्रमित लोगों में से मरने वालों के प्रतिशत को ‘संक्रमण मृत्यु दर’ या आईएफआर (Infection Fatality Rate ) कहते हैं.

ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण का प्रसार किस हद तक हुआ है और कोरोना से कितनी मौतें हुई हैं, इन मामलों के बारे में जानकारी की कमी की वजह से ग्रामीण भारत से विश्वसनीय आईएफआर का आकलन करना मुश्किल है.

हम इन रिपोर्ट्स के आधार पर इन इलाकों में कोरोना की दूसरी लहर में आईएफआर का आकलन करने का प्रयास कर सकते हैं.

यदि हम यह मानें कि इन गांवों में सभी अतिरिक्त मौतें कोविड-19 से ही हुई और सभी गांववासी संक्रमित हुए, तो अतिरिक्त मृत्यु दर वास्तव में आईएफआर के बराबर होगी. लेकिन इसकी संभावना कम है कि सभी गांववासी संक्रमित थे- इसलिए अतिरिक्त मृत्यु दर को आईएफआर का न्यूनतम अनुमान देखना चाहिए.

इस हिसाब से दूसरी लहर के दौरान इन ग्रामीण क्षेत्रों में आईएफआर कम से कम 0.29% (अतिरिक्त मृत्यु दर का मीडियन मूल्य) रही होगी. वास्तविक आईएफआर 0.5% के करीब हो सकती है- 61 में से 13 रिपोर्ट्स में अतिरिक्त मृत्यु दर 0.5% से ज़्यादा थी, जो 2020 के दौरान मुंबई में कोविड-19 आईएफआर के औसत अनुमान से लगभग दोगुना है.

मृत्यु दर इतनी ऊंची क्यों थी? स्वास्थ्य सेवाओं और खासकर ऑक्सीजन की कमी का विवरण कई खबरों में लिखा है- ऐसा हो सकता है कि इन कारणों से आईएफआर बढ़ा हो. हम यह भी जानते हैं कि इस लहर के दौरान वायरस के अधिक घातक वैरिएंट फैले हैं, जो मृत्यु दर में बढ़त का कारण हो सकते हैं.

क्या निष्कर्ष निकला

कोरोना संकट की दूसरी लहर ने ग्रामीण भारत के कुछ हिस्सों में मृत्यु दर में काफी ज़्यादा उछाल लाया है. समाचार रिपोर्ट्स से इस संकट के स्तर का अनुमान लगाना मुश्किल है- इसके लिए मृत्यु पंजीकरण डेटा या सर्वेक्षण की आवश्यकता होगी. लेकिन रिपोर्ट्स यह बताती हैं कि जब बीमारी गांवों में प्रवेश करती है, तो तेज़ी से फैल सकती है और मौतें तेज़ी से बढ़ सकती हैं.

इन गांवों में बीमारी इस तरह कैसे फैली? हो सकता है की सक्रिय संक्रमण ज़्यादा होने और साथ ही चहल-पहल बढ़ने के कारण इतनी तबाही मची.

उत्तर प्रदेश की कई रिपोर्ट्स ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना प्रकोप को पंचायत चुनावों से जोड़ती हैं: जब शहरों में संक्रमण फैल रहा था, तभी चुनाव की वजह से गांवों में आना-जाना बढ़ गया था. इस तरह गांव-गांव में वायरस पहुंच गया.

कुछ रिपोर्ट्स जागरूकता की कमी या सावधानियों के हटने के बारे में लिखती हैं. कुछ में किसी विशेष ‘सुपरस्प्रेडिंग’ घटना का वर्णन है. वायरस के अधिक आसानी से फैलने वाले वैरिएंट ने भी प्रकोप की तेज़ी बढ़ा दी होगी.

कुछ मौतों को शायद रोका जा सकता था. रिपोर्ट्स के अनुसार ज़्यादातर मरने वालों की कोरोना जांच नहीं हुई और कई लोगों को चिकित्सा नहीं मिली. रिपोर्ट्स में ग्रामीण इलाकों में खराब स्वास्थ्य व्यवस्था पर अक्सर चर्चा होती है.

सार्वजनिक स्वास्थ्य की शिक्षा की कमी के कारण भी इन ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी के बारे में जागरूकता कम थी. ग्रामीण क्षेत्रों में टीके को लेकर हिचकिचाहट भी कई रिपोर्ट्स में दिखती है.

पहली लहर के दौरान किए गए सीरो सर्वे के अनुसार कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना का काफी प्रसार हुआ था, लेकिन सरकारी आंकड़ों में मौतें बहुत कम थीं (इस लेख में बिहार से उदाहरण, और झारखंड में एक समान तस्वीर उभरती है). इस ‍‌डेटा से लग सकता है कि ग्रामीण भारत में कोरोना का आईएफआर कम है- लेकिन इन रिपोर्ट्स से तो ऐसा नहीं लगता है.

इन रिपोर्ट्स को देखें तो ग्रामीण भारत में कम मृत्यु की संख्या कम परीक्षण और रिकॉर्डिंग को दर्शाते हैं. मालूम होता है कि भारत के कई ग्रामीण हिस्सों में कोरोना मौतें बड़ी संख्या में आधिकारिक आंकड़ों में दर्ज नहीं की गई हैं.

नोट: लेख में इस्तेमाल किए गए आंकड़ों के डेटा और ख़बरों के लिंक इस डॉक्यूमेंट में देखे जा सकते हैं.

(मुराद बानाजी मिडलसेक्स यूनिवर्सिटी लंदन में गणितज्ञ हैं. आशीष गुप्ता पेंसिलविनिया यूनिवर्सिटी में जन-सांख्यिकी विशेषज्ञ हैं और लीना कुमरप्पन स्वतंत्र शोधार्थी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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