क्यों सरकारें कश्मीर पर अपने ही वार्ताकारों को गंभीरता से नहीं लेतीं?

यूपीए कार्यकाल में कश्मीर पर गठित वार्ताकार समिति के अध्यक्ष रहे दिलीप पडगांवकर इस बात से आहत थे कि कैसे सरकार ने उनकी सिफ़ारिशों को कूड़ेदान में डाल दिया.

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Srinagar: A view of deserted main business hub Ghanta Ghar during strike called given by Joint Hurriyat Leadership in protest against the growing incidents of braid chopping in valley,in Srinagar on Saturday. PTI Photo by S Irfan(PTI10_21_2017_000073A)

यूपीए कार्यकाल में कश्मीर पर गठित वार्ताकार समिति के अध्यक्ष रहे दिलीप पडगांवकर इस बात से आहत थे कि कैसे सरकार ने उनकी सिफ़ारिशों को कूड़ेदान में डाल दिया.

New Delhi: Dineshwar Sharma, former Director of Intelligence Bureau, calling on the Union Home Minister, Rajnath Singh, after being appointed as the Representative of Government of India to initiate dialogue in Jammu and Kashmir, in New Delhi on Monday. PTI Photo / PIB (PTI10_23_2017_000209B)
केंद्र सरकार ने इंटेलीजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को जम्मू कश्मीर पर वार्ताकार नियुक्त किया है. सोमवार को शर्मा के साथ केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह. (फोटो: पीटीआई)

(दिवंगत पत्रकार और लेखक दिलीप पडगांवकर 2010 में जम्मू कश्मीर पर मनमोहन सरकार द्वारा नियुक्त तीन सदस्यीय वार्ताकार समूह में से एक थे. यह लेख जुलाई, 2016 में उनसे बातचीत के आधार पर लिखा गया था.)

कश्मीर में 2010 में जैसे हालात बने थे, अब परिस्थिति उससे ज्यादा कठिन और ज्यादा विकट हो गई है. ऐसा इसलिए हुआ है कि 2008-09 और 10 में जो घटनाएं हुई थीं, उससे न मनमोहन सरकार ने, न ही मोदी सरकार ने कोई सबक सीखा. सितंबर, 2010 में हमारी वार्ताकार समिति ने जब काम शुरू किया था, हमें एक साल के अंदर रिपोर्ट देनी थी.

हम जम्मू और कश्मीर के हर जिले में गए थे. हम करीब 700 डेलीगेशन से मिले यानी छह हजार से ज्यादा लोग. सिर्फ हुर्रियत से हमारी बात नहीं हुई. जहां-जहां हम जाते थे, उसकी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को देते थे. पुलिस अफसरों और सीआरपीएफ के लोगों से भी हमारी बातचीत हुई थी.

इसके बाद हमने सबसे पहली जो रिपोर्ट दी थी, उसमें कहा था कि जन प्रदर्शन को रोकने के लिए न अधिकारियों की सुनवाई का तरीका सही है, न प्रदर्शन रोकने की उनकी कार्रवाई पर्याप्त है, इसके लिए कुछ कीजिए. उसके बाद थोड़ी-बहुत कार्रवाई हुई थी, लेकिन जिस तरह से अब (बुरहान वानी प्रकरण के बाद) लोग मारे गए हैं, मुझे नहीं लगता कि वहां उस सिफारिश पर अमल हुआ है.

शुरुआत यहां से है कि कैसे आप जन प्रदर्शन को हैंडल करते हैं. दूसरे, जन प्रदर्शन में भी अब काफी परिवर्तन आया है. पहले सिर्फ पत्थरबाज थे, लेकिन अब प्रदर्शनकारी सुरक्षा बलों के सामने औरतों और बच्चों को भेजते हैं. उनकी हत्या करते हैं, उन पर अटैक करते हैं.

पहली बार हमने देखा है कि पुलिस स्टेशन और कई सुरक्षा संस्थानों पर हमले हुए हैं. प्रदर्शन में ये बदलाव आया है. मिलिटेंसी में तो काफी बड़ा परिवर्तन आया है. एक तो ये जो 18 से 23-24 साल वाला आयुवर्ग है, ये बच्चे मध्यम वर्ग से आते हैं, स्कूलों में और कॉलेजों में पढ़ते हैं. प्रोफेशनल बनना चाहते थे. ये सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय हैं, जो कि पहले नहीं था. और ये बहुत अतिवादी हुए हैं.

ये जो तीन-चार फैक्टर नजर आ रहे हैं, उसका विश्लेषण ठीक से हुआ है या नहीं हुआ है. लेकिन मैं समझता हूं कि 2010 में जो स्थिति थी, अब उससे ज्यादा उलझाव आ गया है.

पहले आतंकियों के समर्थन में थोड़े-बहुत गांववाले आते थे, लेकिन अभी जिस संख्या में लोग आ रहे हैं, पचास हजार से दो लाख बताया जा रहा है. एक रिपोर्ट आई है कि सिर्फ सात हजार लोग थे. आंकड़ों के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हूं, लेकिन अचानक इतनी बड़ी तादाद में किसी आतंकी के अंतिम संस्कार में जिस तरह लोग आ रहे हैं, यह भी एक नया फैक्टर है.

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अक्टूबर 2011 में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम को रिपोर्ट सौंपते वार्ताकार दिलीप पडगांवकर, एमएम अंसारी और राधा कुमार (फाइल फोटो: पीटीआई)

कश्मीर में हालात सुधरने की जगह और बिगड़ रहे हैं, क्योंकि अभी तक जो अप्रोच रही है दिल्ली की, वह डबल अप्रोच है. हमने कहा था कि एक तो आतंकवाद को खत्म करने के लिए जितना फोर्स इस्तेमाल कर सकते हो, करो. बॉर्डर पर पाकिस्तान के जो हमले हैं उस पर जल्दी से रोक लगाओ. दूसरा, मिलिटेंसी को जल्दी से जल्दी पूरे स्टेट से हटाने का प्रयास करो. यह एक पक्ष होगा.

तीसरा, विकास पर फोकस करो. ये त्रिपक्षीय कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन उसके साथ ही साथ जो भावनात्मक जुड़ाव वाले राजनीतिक मुद्दे हैं, उन पर अगर ध्यान नहीं दिया तो इस तरह के मसले खड़े होते रहेंगे. थोड़ी शांति हो जाएगी तो दोबारा कहीं न कहीं और विरोध फूट पड़ेगा. यह भी देखना चाहिए.

हमने रिपोर्ट में भी कहा था कि सबसे गंभीर परिस्थिति घाटी में है, लेकिन अगर आपको सचमुच संपूर्णता में स्थिति देखनी है तो लद्दाख और जम्मू के लोगों की भी काफी आकांक्षाएं हैं, उसकी ओर भी ध्यान देना चाहिए. यह गौर करने लायक है कि पंडितों के बारे में सालों से कहा जा रहा है कि उनके लिए कुछ करो, किसी सरकार ने थोड़ा-बहुत आवंटन बढ़ा दिया, किसी ने ये कर दिया, किसी ने वो कर दिया, लेकिन असली बात ये है कि पंडितों को भी नजरअंदाज किया गया है.

सिर्फ पंडित ही नहीं, वहां से काफी सिख परिवार भी बाहर निकल गए हैं, कई मुस्लिम परिवार भी निकल गए हैं. आप जितना नजरअंदाज करोगे, वह उत्प्रेरक का काम करेगा. उसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया होगी. अगर इस पर आप ध्यान नहीं देंगे तो इस तरह की समस्या तो होगी ही.

हमारे यहां जिस तरह से लोग उग्रवाद की ओर बढ़े हैं, जिस तरह से इनके वैश्विक संपर्क सामने आ रहे हैं, पूरे मुस्लिम जगत से उग्रवादी तत्व उभर कर आ रहे हैं, इनके क्या संपर्क हैं, इन बातों का क्या असर होगा? बांग्लादेश में तो आप देख ही रहे हैं. हमारे यहां भी अलग-अलग हिस्सों में स्लीपर सेल की बात हो रही है.

मैं समझता हूं कि आज मोदी जिस परिस्थिति का सामना कर रहे हैं, वह उस परिस्थिति से ज्यादा गंभीर है जिसका सामना मनमोहन ने किया था.

कश्मीर की असली समस्याएं दो हैं. यह बंटवारे की विरासत है. पाकिस्तान कभी नहीं मानेगा कि एक मुस्लिम बहुल राज्य भारत का हिस्सा हो सकता है. दूसरा, कोई रास्ता नहीं है कि भारत की कोई भी सरकार स्थिति में बदलाव के लिए यथास्थिति बनी रहने देना चाहेगी. यह हो ही नहीं सकता.

तो मूलत: ये समस्या है. वहां पहुंच बनाने की जरूरत है. आज (14 जुलाई 2016 को) छह दिन हो चुके हैं लेकिन कोई विधायक अपने क्षेत्र में जाकर लोगों से बात नहीं कर रहा. कोई राजनीतिक दल वहां नहीं जा रहा है. सिविल सोसाइटी, बिजनेस कम्युनिटी, छात्रों का समूह कोई वहां जा ही नहीं रहा है.

राजनीतिक संस्थाओं का लोगों के साथ जुड़ाव होना चाहिए, लेकिन वो नहीं हो रहा है. दिल्ली में और कश्मीर में भी, वहां के लोगों से क्या जुड़ाव है, उनसे क्या संवाद हो रहा है, किसी को पता नहीं है. वहां स्थिति मुश्किल है यह सब मानते हैं, लेकिन आप कहीं से शुरुआत तो कीजिए.

कश्मीर पर सिर्फ हमारी रिपोर्ट नहीं थी. मनमोहन सिंह ने छह और वर्किंग ग्रुप बनाए थे. उनकी रिपोर्ट है सरकार के पास और उनमें बड़े-बड़े लोग थे. सी रंगराजन, एमएम अंसारी जैसे लोगों की भी रिपोर्ट है. लेकिन उन रिपोर्टों पर कोई कार्यान्वयन नहीं हुआ.

मुझे पता नहीं है कि उन्हें किसी ने देखा भी है कि नहीं. एक नेता का मुझे फोन आया कि आपकी रिपोर्ट कहां मिलेगी. हमने कहा आप ही के मंत्रालय में मिल जाएगी. आप वहां पर देखिए. बहुत सारी रिपोर्टें इंटरनेट पर भी हैं. मेरी पूरी रिपोर्ट पीडीएफ फॉर्म में इंटरनेट पर पड़ी हुई है.

असली स्थिति तो यह है. हम सबने जो सिफारिशें की थीं, उन पर कुछ भी नहीं हुआ. पी चिदंबरम ने मुझसे कहा था कि इस रिपोर्ट पर कैबिनेट में बात की जाएगी, उसके बाद वह रिपोर्ट संसद में पेश की जाएगी. सभी पार्टियां उस पर बहस करेंगी.

हमने उनसे कहा था कि भाई सिफारिशें हमारी हैं लेकिन आपको जो बातें उनमें से ठीक लगें, वह ले लीजिए. जो अच्छा न लगे, उसे हटा दीजिएगा. न उस रिपोर्ट पर कोई बात हुई, न वह संसद में पेश ही की गई.

अब कश्मीर के अलगाववादी और आतंकवादी कह रहे हैं कि हमें पता है कि आपको क्यों नियुक्त किया गया था.

सरकार का मकसद सिर्फ मसला टालना था, इसलिए आपको नियुक्त किया गया था. मेरी धारणा यह है कि अगर आपने कुछ किया ही नहीं तो उनका आरोप सच हो जाता है. मैं नहीं मानता कि यह सच है, लेकिन उनकी राय ऐसी बनी है, वह भी एक तथ्य है.

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

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