टीपू सुल्तान: इतिहास क्या है इस सवाल को जनभावना के नाम पर सड़कों पर तय नहीं किया जा सकता

जिस टीपू सुल्तान की पहचान बहादुर शासक के तौर पर होती रही है उसे अब एक धड़े द्वारा क्रूर, सांप्रदायिक और हिंदू विरोधी बताया जा रहा है.

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टीपू सुल्तान. (फोटो साभार: विकिपीडिया)

 जिस टीपू सुल्तान की पहचान बहादुर शासक के तौर पर होती रही है उसे अब एक धड़े द्वारा क्रूर, सांप्रदायिक और हिंदू विरोधी बताया जा रहा है.

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टीपू सुल्तान (फोटो साभार: विकीपीडिया)

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‘प्रत्येक इतिहास समसामयिक इतिहास है’-यह इतिहास लेखन का एक बुनियादी उसूल है. इसीलिए इतिहास को समझने के लिए हर युग अपना एक नजरिया बनाता है. यहां तक कि एक ही वक्त में कई तरह के नजरिये इतिहास को अपने-अपने ढंग से देखने की कोशिश करते हैं.

हर नजरिया अपने खास चश्मे से इतिहास के तथ्य चुनता और उनकी व्याख्या करता है. लेकिन इतिहास की यह बहस इतिहास लेखन के दायरों में रहकर विकसित होती है. इतिहास क्या है इस सवाल को जनभावनाओं के नाम पर सड़कों पर उतारकर तय नहीं किया जा सकता.

इसलिए टीपू सुल्तान के नाम पर चल रहे हालिया विवाद ने एक नहीं बल्कि दो यक्षप्रश्न खड़े किए हैं.

पहला, टीपू सुल्तान को कैसे याद किया जाना चाहिए. शेर-ए-मैसूर के नाम से जिसने भेड़ों की तरह सौ साल जीने के बजाय शेर की तरह एक दिन जीने का रास्ता चुना या हिंदुओं और ईसाइयों पर जुल्म ढाने वाले क्रूर मुस्लिम शासक की तरह.

दरअसल, टीपू सुल्तान पर आज जो भी विवाद है उसकी जड़ में साम्राज्यवादी इतिहास लेखन है जिसने टीपू को एक खलनायक के तौर पर पेश करने की कोशिश की. टीपू सुल्तान को एक कट्टर और धर्मांध ‘मुस्लिम’ शासक के तौर पर सबसे पहले अंग्रेजों ने प्रचारित किया था.

18वीं सदी के मैसूर ने दक्षिण भारत में ब्रिटिश विस्तारवाद को सबसे कठिन चुनौती दी थी. पहले हैदर अली और उसके बाद टीपू सुल्तान ने मद्रास की ब्रिटिश फैक्ट्री को बार-बार हराया था. उनके अन्य समकालीन हैदराबाद के निजाम और मराठों के विपरीत टीपू ने कभी अंग्रेजों के साथ कोई गठबंधन नहीं किया.

वो हमेशा अंग्रेजी कंपनी के इरादों के प्रति सशंकित रहा और उनको रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किए. कहा जा सकता है कि टीपू के भीतर साम्राज्यवाद की एक आदिम समझ विद्यमान थी.

उसे देशी और विदेशी में फर्क करना आता था. यह एक ऐसी बात थी जो अंग्रेजों को हमेशा अखरती रही. इसलिए टीपू जैसे नायक की छवि को धूमिल करने के लिए उन्होंने एक क्रूर और अत्याचारी टीपू का मिथ रचा.

इस मिथ के बारे में प्रख्यात इतिहासकार प्रो बीएन पांडे का एक अनुभव बहुत महत्वपूर्ण है. जब वो इलाहाबाद में रहकर टीपू सुल्तान के बारे में शोध कर रहे थे उस समय कुछ छात्र एंग्लो-बंगाली कॉलेज की इतिहास परिषद का उदघाटन करने का आग्रह लेकर उनके पास आये.

उन लड़कों के हाथ में इतिहास की उनकी पाठ्यपुस्तक थी जिसे प्रोफेसर साहब ने देखने का आग्रह किया. उस किताब में टीपू का अध्याय खोलने पर उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही. उसमें लिखा था कि टीपू एक धर्मांध मुस्लिम शासक था जिसके राज्य में तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि टीपू उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था.

चूंकि प्रोफेसर पांडे खुद ही उन दिनों टीपू पर काम रहे थे, सहज रूप से वो इस तथ्य का स्रोत जानने के लिए बेचैन हो उठे. उन्हें तब तक किसी स्रोत से टीपू के बारे में इस तरह के तथ्य नहीं मिले थे. इस अध्याय के लेखक कोई इतिहासकार नहीं थे बल्कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष महामहोपाध्याय डॉ० परप्रसाद शास्त्री थे.

उनको कई पत्र लिखने के बाद उन्होंने बताया कि उन्हें यह तथ्य ‘मैसूर गजेटियर’ से मिला है. मैसूर विश्वविद्यालय के अपने मित्रों की मदद से प्रो पांडे ने प्रो मंतैय्या से संपर्क साधा जोकि उन दिनों ‘मैसूर गजेटियर’ का नया संस्करण तैयार कर रहे थे. उन्होंने काफी छानबीन करके बताया कि ‘मैसूर गजेटियर’ में इस बात का कहीं उल्लेख नहीं है.

वो स्वयं भी मैसूर के इतिहास के प्रकांड अध्येता थे. इस लिहाज से उन्होंने इस घटना के कभी होने पर भी संदेह जताया. साथ ही उन्होंने कहा कि जरूर इस तरह की मनगढ़ंत घटना का जिक्र कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ मैसूर’ में किया गया होगा.

माइल्स का दावा था कि उन्होंने इस किताब को एक प्राचीन फारसी पांडुलिपि से अनुवादित किया है जो महारानी विक्टोरिया की व्यक्तिगत लाइब्रेरी में उपलब्ध है. जब इस बाबत जानकारी की गयी तो पता चला कि ऐसी कोई पांडुलिपि वहां भी उपलब्ध नहीं है.

यानी यह किताब टीपू के बारे में मनगढ़ंत किस्सों का एक झूठा पुलिंदा थी. जाहिर है इसके पीछे किसका हाथ था- यह उन अंगरेजी रणनीतिकारों की साजिश थी जो टीपू को हिंदुओं के बीच बदनाम करके अलोकप्रिय बनाना चाहते थे.

खास बात थी कि कर्नल माइल्स को आधार बनाकर लिखी गयी यह किताब न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी पढ़ाई जा रही थी.

टीपू के संबंध में इतिहास की यह विकृत चेतना इस और इस तरह की अन्य किताबों के मार्फत पैदा की गई है. यही नहीं, एक समकालीन द्वारा लिखी गयी यह किताब टीपू के बारे में एक विश्वसनीय स्रोत मान ली गई.

इस तरह की चालबाजियों के पीछे एक सोची- समझी साम्राज्यी रणनीति थी जो आगे चलकर बेहद प्रभावी हो गयी. यह रणनीति थी ‘डिवाइड एट एम्पेरा’ या ‘बांटो और राज्य करो’ की नीति. और इस नीति का मूलमंत्र था- भारतीय इतिहास के मार्फ़त समाज को बांट दो.

इसीलिए जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को जिन तीन कालखंडों में विभाजित किया था, वे थे-हिंदू युग, मुस्लिम युग और ब्रिटिश युग. जाहिर है उनकी समझ थी कि अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ किसी भी संगठित प्रतिरोध को तोड़ने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में बांटना जरूरी है. इसीलिए उस युग को हिंदू कहा गया जब कि हिंदू शब्द प्रचलित भी नहीं था. क्योंकि हिंदू शब्द की उत्पत्ति सिंधु नदी के अपभ्रंश से हुयी है और यह शब्द सबसे पहले अरबों ने उन लोगों के लिए प्रयोग किया है जो सिंधु नदी के इस पार बसते थे.

दूसरे, मुस्लिम युग के दौरान मुस्लिम शासकों के धर्म के आधार पर काल का निर्धारण कर दिया गया. परन्तु अंग्रेजों ने अपने शासन काल को ईसाई युग कहने के बजाय उसे ब्रिटिश काल कहा. यह भारतीय इतिहास के सांप्रदायिक काल निर्धारण की शुरुआत थी. कर्नल माइल्स की यह किताब भी बेशक उसी प्रोजेक्ट का पूर्ववर्ती हिस्सा बन गयी.

टीपू सुल्तान पर आधिकारिक ज्ञान रखने वाली केट ब्रिटिलबैंक इसके पीछे की एक कहानी बताती हैं. जब 1798 में कलकत्ता एक नए गवर्नर जनरल अर्ल ऑफ़ मॉर्निंगटन की नियुक्ति के बाद टीपू सेरिन्गापट्टनम में शहीद कर दिया गया, ब्रिटेन में इस पर सवाल खड़े किए जाने लगे.

कंपनी द्वारा भारत के विजय अभियान में किसी शासक को इस तरह मौत के घाट उतारना एक आम नीति नहीं थी. इस हालत में गवर्नर जनरल और उनके साथियों ने टीपू की मौत को सही करार देने के लिए टीपू को एक बर्बर, अत्याचारी और क्रूर शासक की तरह चित्रित करना शुरू कर दिया.

वो बताती हैं कि कई बार इसे सिद्ध करने के लिए लिखित प्रमाणों का दावा भी किया गया. कर्नल फुल्लार्टन, जो मंगलोर में ब्रिटिश फौजों के इंचार्ज थे, ने टीपू के 1783 में पालघाट के किले पर अभियान को बेहद सांप्रदायिक ढंग से चित्रित किया. कहा गया कि इस अभियान के दौरान उसने क्रूरताओं की सारी हदें पार कर दीं और उसके सैनिकों ने ब्राह्मणों के सिरों की नुमाइश करके लोगों में खौफ भर दिया.

इसी तरह की बातें उसके मालाबार अभियान को भी लेकर लिखी गयीं. टीपू के कुर्ग अभियान के वक़्त तकरीबन एक हजार हिंदुओं को जबरन इस्लाम में धर्मान्तरित करने का किस्सा भी विलियम लोगान की किताब ‘वॉयजेज़ ऑफ़ द ईस्ट’ में मिलता है.

कहते हैं सेरिन्गापट्टनम में कैद ये हिंदू टीपू के मरने के बाद अंग्रेजों द्वारा आज़ाद किये गए. इस तरह देखें तो अंग्रेज मैसूर के राज्य में हिंदुओं के प्राणदाता और मुक्तिदाता के तौर पर पहुंचे थे, न कि एक विदेशी कंपनी के औपनिवेशिक शोषणकारी के रूप में.

इसी तरह लेविस बी बाउरी ने टीपू के राज्य में हिंदुओं पर ढाए गए जुल्मों की तुलना महमूद गज़नी और नादिरशाह की क्रूरताओं के साथ की.

गौरतलब है कि आरएसएस की पत्रिका पाञ्चजन्य ने हाल ही में टीपू को ‘दक्षिण भारत का औरंगजेब’ कहा है, जिसने ‘लाखों’ हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया था.

(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

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