अफ़राज़ुल की हत्या हमारे सामाजिक पतन की दास्तान है

सिर्फ ये कहना कि ये किसी पार्टी विशेष की सरकार के कारण हुआ, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से बचना है. सरकार की ज़िम्मेदारी है पर यह समझना भी ज़रूरी है कि हम ख़ुद अपने घरों में क्या बात कर रहे हैं.

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इलस्ट्रेशन: एलिजा बख़्त

सिर्फ ये कहना कि ये किसी पार्टी विशेष की सरकार के कारण हुआ, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से बचना है. सरकार की ज़िम्मेदारी है पर यह समझना भी ज़रूरी है कि हम ख़ुद अपने घरों में क्या बात कर रहे हैं.

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इलस्ट्रेशन: अलिज़ा बख्त/द वायर

सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें

आज इंसा को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत

– बशीर बद्र

ये हम कैसे समाज में आ पहुंचे हैं? यहां तो कोई किसी की जान लेना अपराध भी नहीं मानता. एक इंसान को बेरहमी से मार कर आग के हवाले करने के अपने जुर्म को हत्यारा छुपाना भी नहीं चाहता. उल्टा वो तो अपने इस जुर्म की तुलना महाराणा प्रताप के युद्ध से करता है और वीडियो बनाकर सारी दुनिया को दिखाता है.

जैसे ही ये वीडियो दुनिया के सामने आया चारों ओर इस कुकृत्य की निंदा की गयी, मृतक के परिवार से लोगों ने संवेदना ज़ाहिर की और हत्यारे को दरिंदा क़रार दिया. पर क्या बस इतना काफ़ी है?

गांधीजी ने कहा था ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ और हम एक बार फिर राष्ट्रपिता के आदर्शों से भटक रहे हैं. हम अपना पूरा ध्यान इस एक जुर्म पर लगा रहे हैं और क़ातिल को हैवान की संज्ञा दे रहें हैं. पर क्या इस से कुछ हल होगा? क्या ये सिर्फ एक मनुष्य विशेष के द्वारा किया गया अपराध है?

यही नहीं ऐसा हर अपराध इस समाज की देन है न कि सिर्फ विकृत मानसिकता वाले कुछ अपराधियों की. और अगर ऐसा न होता तो निर्भया के हत्यारों को फांसी देने के बाद बलात्कार रुक न जाते. पर अपराधियों के पकड़े जाने से भी ये जुर्म नहीं रुकते क्योंकि ये समाज उनके इन अपराधों को कहीं न कहीं सही ठहराने की एक सतह दे रहा होता है.

मुझे आज भी याद है, वो साल 2000 था और मैं आठवीं कक्षा में था. मेरे एक बहुत अच्छे मित्र ने मुझसे किसी बात पर कहा ‘तुम सारे मुल्ला तो होते ही आतंकवादी हो’. ये बताने की ज़रूरत नहीं कि मुझे बुरा लगा और मेरा उससे एक बड़ा झगड़ा भी हुआ.

उससे कुछ समय पहले इस ही मित्र ने मुझे ख़ुश होते हुए ये ख़बर दी थी कि इजराइल ने एक ऐसा बम बनाया है जो केवल फ़िलीस्तीनी मुसलमानों को मारेगा और उस ही इलाके में बसे यहूदियों को नहीं. उसकी ख़ुशी ये थी कि अगर ऐसा बम भारत भी ईजाद कर ले तो देश से सारे मुसलमानों को ख़त्म किया जा सकता है. इस बात पर भी मेरा उससे झगड़ा हुआ.

आज जब ज़िंदगी में पीछे देखता हूं तो सोचता हूं कि इसमें मेरे उस मित्र की क्या ग़लती थी? वो तो मात्र 13-14 बरस का मासूम था. उसके मन में ये अत्यंत घृणाभरे हिंसक विचार कहां से आये? अगर आज वो किसी मुसलमान को देखता है तो उसके मन में क्या विचार आते होंगे?

परेशानी ये है कि हमने बस इस बात पर ध्यान दिया है कि मोहसिन शेख़ को किसने मारा या अखलाक़ को किसने मारा जबकि ध्यान देना ये था कि ऐसा हुआ तो आख़िर क्यों हुआ.

ये मान लेना कि ये नफ़रत केवल धर्म विशेष को ले कर है, बहुत बड़ी ग़लती है. असल में हम नफ़रतों में जी रहे हैं. हम अपने बच्चों को नफ़रत करना ही सिखा रहे हैं.

हिंदू मुसलमान से और मुसलमान हिंदू से नफ़रत कर रहे हैं. आपस में नफ़रत इतनी है की अगर दोनों धर्म के दो बालिग़ विवाह करना चाहें तो पूरे समाज को उसे रोकना अपना कर्तव्य महसूस देता है.

हिंदू-सिख, सिख-ईसाई, ईसाई-हिंदू, आदि आप किसी को देखिए और पायेंगे कि ये नफरतें कितने गहरे तक घर कर गयी हैं. अगर हमें कोई धर्म नहीं मिलता तो हम जाति विशेष से इस नफ़रत का पेट पालते हैं. सहारनपुर इसका सबसे अच्छा उदहारण है.

पढ़े लिखे अनपढ़ों से नफ़रत कर रहे हैं और अनपढ़ पढ़े लिखों से. अमीर ग़रीब से और ग़रीब अमीर से. शहरी गांव वाले से और गांव वाले शहरी से. ऐसे में जब कोई अपराध होता है तो हम अपराधी को सज़ा देने चलते हैं पर कभी हमने सोचा कि हम अपने घर, कॉलेज या दफ़्तर में क्या बातें करते हैं? कितनी धार्मिक, जातिवाद या  सामाजिक द्वेष की बातें करते हैं.

कोई तो वजह रही होगी न कि शंभू लाल रैगर को ये हिम्मत मिली के वो हत्या करे और उस पर गौरवान्वित होकर वीडियो बनाकर पूरी दुनिया को दिखाये. ये वही हिम्मत है जो आईएसआईएस को सीरिया में हत्या की वीडियो बनाते हुए मिलती है. इन लोगों को लगता है की ये अपने धर्म और समाज की सेवा कर रहे हैं और इनको ये महसूस कराने वाले हम लोग हैं.

सिर्फ ये कह देना कि ये सब तो किसी पार्टी विशेष की सरकार के कारण हुआ है ,समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से बचना है. सरकार की ज़िम्मेदारी है पर हम ख़ुद अपने घरों में क्या बात कर रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि हम ख़ुद ऐसे अपराधों को सही ठहराते हैं?

अफराज़ुल की हत्या हमारे सामाजिक पतन की जीती-जागती मिसाल है. आज ज़रूरत है कि हम पहचाने कि नफ़रत कहां से फैल रहीं हैं, पापी को ख़त्म करने से ज़्यादा ज़रूरी पाप को ख़त्म करना होगा.

(लेखक इतिहास के शोधकर्ता और टिप्पणीकार हैं.)

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