बहादुरशाह ज़फ़र: आज़ादी के सत्तर साल बाद भी दो गज़ ज़मीन न मिली कू-ए-यार में

विशेष: बहादुरशाह ज़फ़र हमारे उस स्वतंत्रता संग्राम के नायक हैं जिसमें हम हार भले ही गए थे पर हिंदुओं व मुसलमानों ने उसे एकजुट होकर लड़ा था और अपनी एकता की शक्ति प्रमाणित कर दी थी.

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विशेष: बहादुरशाह ज़फ़र हमारे उस स्वतंत्रता संग्राम के नायक हैं जिसमें हम हार भले ही गए थे पर हिंदुओं व मुसलमानों ने उसे एकजुट होकर लड़ा था और अपनी एकता की शक्ति प्रमाणित कर दी थी.

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बहादुरशाह जफर (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

1857 में दस मई को आजादी के जुनून से भरे हुए देसी सैनिक मेरठ से बगावत का बिगुल बजाते हुए ग्यारह मई को दिल्ली पहुंचे तो भारत के 17वें और अंतिम मुगल बादशाह मिर्जा अबू जफर सिराजुद्दीन मोहम्मद बहादुर शाह जफर में (जिन्हें आमतौर पर बहादुरशाह जफर के नाम से जाना जाता है)विश्वास जताकर न सिर्फ उन्हें अपना नेता चुना बल्कि उनकी फिर से ताजपोशी की.

तब तक अंग्रेजों के हाथों अपनी हुकूमत गवांकर लाचार जफर ने, चूंकि तब तक शातिर अंग्रेजों ने उनकी सत्ता को लाल किले तक ही सीमित कर डाला था, इन सैनिकों से पूछा कि उनके पास खजाना कहां है जो वे उन्हें तनख्वाहें देंगे, तो सैनिकों ने जैसे वे पहले से ही इस सवाल का जवाब सोचकर आये हों, वचन दिया था कि वे अंग्रेजों द्वारा लूटा गया उनका सारा खजाना फिर से लाकर उनके कदमों में डाल देंगे.

24 अक्टूबर, 1775 को जन्में 82 साल के जफर की भुजायें भी, कहते हैं कि तब फड़कने लगी थीं. तब उन्होंने खुशी-खुशी बागी सैनिकों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था और कर लिया तो कैसे भी दिन आये, पीछे मुड़कर नहीं देखा. उस दुर्दिन में भी नहीं, जब बागियों का सारा कस-बल खत्म हो गया, अंग्रेजों ने छल-छद्म से जंग जीत ली, दिल्ली का पतन हो गया और जफर को हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी.

कहा जाता है कि जफर कम से कम दो मामलों में अपने पूर्ववर्ती मुगल सोलहों बादशाहों से अलग थे- एक तो वे शायरदिल थे और दूसरे उनकी दो-दो ताजपोशियां हुईं- पहली 29 सितंबर, 1837 को पिता अकबर द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में और दूसरी 11 मई, 1857 को बागी सैनिकों द्वारा.

हां, इस दूसरी ताजपोशी की उन्होंने जैसी कीमत चुकाई, बहुत कम बादशाहों ने चुकाई होगी. पहले तो हुआ यह कि ‘दिल्ली ‘जफर’ के हाथ से पल में निकल गई’, फिर ऐसी बदनसीबी से सामना हुआ कि न दिल-ए-दागदार में हसरतों के बसने भर को जगह बची और न कू-ए-यार में दफ्न होना नसीब हुआ. तिस पर कोढ़ में खाज यह कि देश आजाद हुआ तो उसके कर्णधारों ने खुद को इस आखिरी बादशाह की ख्वाहिशों और यादों से भी ‘आजाद’ कर लिया.

अब तो उन्हें यह याद करना भी गवारा नहीं होता कि अंग्रेज सेनानायक विलियम हडसन ने हुमायूं के ऐतिहासिक मकबरे में षडयंत्रपूर्वक जफर को गिरफ्तार किया तो अगले ही दिन दिल्ली गेट व खूनी दरवाजे के पास उनके दो बेटों मिर्जा मुगल व मिर्जा खिज्र सुल्तान और पोते मिर्जा अबूबक्र की हत्या कर दी थी.

उनके कटे हुए सिर उसने जफर को पेश किए तो उन्होंने कहा था, ‘इतिहास गवाह है, हमारी संतानें अपने बड़ों के सामने ऐसे ही सुर्खुरू होकर सामने आती रही हैं.’ उनके सौभाग्य से हडसन को उसके किए की सजा मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगा था और लखनऊ के बागी 11 मार्च, 1858 को बेगम कोठी में हुए एक मुकाबले में उसको मार गिराने में कामयाब रहे थे.

लेकिन यह सौभाग्य बस वहीं ठहर गया था. बाद में विजयी अंग्रेजों ने जफर के खिलाफ राजद्रोह व हत्याओं के आरोप लगाये और 27 जनवरी से 09 मार्च, 1858 तक मुकदमे के 40 दिन लंबे नाटक के बाद कहा कि गिरफ्तारी के समय दिए गए वचन के मुताबिक बर्मा निर्वासित करके उनकी जान बख्श दी जा रही है.

अंग्रेजों की इस रहमदिली का दूसरा पहलू यह था कि जफर की बूढ़ी आंखों को उनके दिल के टुकड़ों के कटे हुए सिर देखने को मजबूर करके दी गई यह जानबख्शी जान लेने से बड़ी सजा थी. सिर्फ इसलिए नहीं कि उनका तख्त व ताज लुट गया था. इसलिए भी कि उनकी हालत वाकई ‘जो किसी के काम न आ सके’, उस ‘एकमुश्त-ए-गुबार’ जैसी कर दी गई थी.

प्रसंगवश, उनका ताज अभी भी लंदन के रॉयल कलेक्शन में रखा है और देशाभिमानी भारतीयों की गैरत को ललकारता रहता है. इसके दो कारण हैं: पहला यह कि जफर हमारे उस स्वतंत्रता संग्राम के नायक हैं जिसमें हम हार भले ही गये थे पर हिंदुओं व मुसलमानों ने उसे एकजुट होकर लड़ा था और अपनी एकता की शक्ति प्रमाणित कर दी थी. दूसरे, उनकी माता ललनबाई हिंदू थीं और पिता मुस्लिम. उनकी संतान के रूप में भी वे हमारे साझा सांस्कृतिक मूल्यों को पुष्ट करते हैं.

अक्टूबर, 1858 में निर्वासन के बाद के पस्ती और टूटन भरे दिनों में अपनी तकलीफें बयान करने का उनके पास एक ही माध्यम थी-शायरी. इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों ने अपनी कैद में उन्हें उससे भी महरूम करने के लिए कलम, रौशनाई और कागज तक के लिए तरसाया.

तब जफर ने ईंटों के रोड़ों को कलम और दीवारों को कागज बनाकर अपनी गजलें लिखीं. ‘दिन जिंदगी के खत्म हुए, शाम हो गयी’ तो थे ‘इतने बदनसीब जफर दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में!’

अफसोस कि सवा अरब से ज्यादा लोगों का यह देश अपनी आजादी के इतने सालों बाद भी अपने आखिरी बादशाह की यह बदनसीबी नहीं दूर कर सका है!

1903 में भारतीयों का एक दल जफर को श्रद्धांजलि देने बर्मा गया तो किसी को पता ही नहीं था कि संबंधित कब्रिस्तान में उनकी कब्र कौन-सी है. अंग्रेजों ने उन्हें अपमानित करने के लिए बर्मा में एक जूनियर अधिकारी के गैरेज में कैद कर रखा था और सात नवंबर, 1862 को निधन और यंगून के एक कब्रिस्तान में दफन के वक्त भी उनकी गरिमा का खयाल नहीं रखा था.

वे डरे हुए थे कि जफर के इंतकाल की खबर फैलने से भारत में एक बार फिर बगावत भड़क सकती है. इसलिए उन्होंने सारी रस्में गुपचुप ढंग से जैसे-तैसे निपटा डाली थीं. भारतवासियों को इस बाबत कोई पखवारे भर बाद पता चला था.

1907 में बढ़ते जनदबाव के बीच जफर की कब्र को चिह्नित करके वहां एक शिलालेख लगाया गया, लेकिन 1991 में एक खुदाई के वक्त पता चला कि वास्तविक कब्र उस शिलालेख से 25 फिट दूर है. कई लोग अब उसे जफर की दरगाह कहते हैं. 1994 में भारत ने उसके बाहर एक प्रार्थना सभागार बनवाया और अब म्यांमार में जफर से जुड़े स्थलों की देखरेख बहादुर शाह म्यूजियम कमेटी करती है. पहले यह काम उनके वारिसों का ट्रस्ट किया करता था.

मनमोहन सिंह के राज में 1857 की डेढ़ सौंवीं वर्षगांठ आयी और उसे देश भर में उत्साहपूर्वक मनाया गया तो बार-बार आवाज उठी कि जफर के अवशेषों को बर्मा से भारत लाना और मेहरौली में सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी के आस्ताने के करीब दफनाना चाहिए. ताकि कू-ए-यार में दो गज जमीन की उनकी हसरत पूरी हो जाये.

दरअसल, जफर ने दिल्ली में रहते अपने सुपुर्द-ए-खाक होने के लिए वही जगह चुन रखी थी. 2006 के अंत में मनमोहन के सरकारी निवास पर देश के नामचीन कलाकारों, समाजसेवियों, राजनेताओं व पत्रकारों आदि की बैठक में सर्वोदय नेता और सांसद निर्मला देशपांडे के इस आशय के सुझाव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था.

बैठक में सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, एबी वर्धन, प्रकाश करात, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार जैसी पक्ष विपक्ष की अनेक हस्तियों की उपस्थिति से लगा था कि अब इस काम में कतई देर नहीं होगी. इसलिए भी कि म्यांमार सरकार भी इसमें बाधक नहीं थी.

दरअसल, अंग्रेजों ने जफर को भारत से बर्मा निर्वासित किया तो बर्मा के मांडले के शासक को निर्वासित करके महाराष्ट्र के रत्नागिरी में ले आये थे. बर्मा की, जिसका नाम अब बदलकर म्यांमार हो चुका है, सरकार चाहती थी कि भारत के साथ उक्त शासक व जफर के अवशेषों की अदला-बदली कर ली जाये. लेकिन जैसी कि हमारी सत्ताओं की आदत है, डेढ़ सौंवीं वर्षगांठ गयी और बात खत्म हो गई.

नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने 1942 में अपना ऐतिहासिक ‘दिल्ली चलो’ अभियान जफर की कब्र पर प्रार्थना करके शुरू किया था. उनके चालक रहे कर्नल निजामुद्दीन का दावा था कि चालीस के दशक में नेता जी ने, जहां जफर को दफन किया गया था, उस कब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी कब्र को पक्की कराया था. कब्र के सामने चहारदीवारी भी बनवायी थी.

साफ है कि अंग्रेजों ने जफर के साथ जो सलूक किया, दुश्मन के तौर पर उन्हें वही करना ही चाहिए था, लेकिन अब हम वह नहीं कर रहे जो जफर के देश और वारिस के तौर पर करना चाहिए. लाहौर में उनके नाम पर सड़क है और बांग्लादेश में पुराने ढाका के विक्टोरिया पार्क का नामकरण उनके नाम पर कर दिया गया है. लेकिन हमारा भारत अभी भी उन्हें कू-ए-यार में दो गज जमीन का मोहताज बनाये हुए है.

आखिर उनकी बदनसीबी अभी और कितनी लंबी होगी? कब तक उन्हें इतने भर से संतुष्ट रहना होगा कि भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के शासक या नेता म्यांमार जाते हैं तो उनकी कब्र पर अकीदत के फूल चढ़ाते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)

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