पत्थलगड़ी आंदोलन से भाजपा सरकारें क्यों डरी हुई हैं?

पत्थलगड़ी आंदोलन के रूप में जनता द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रभावी इस्तेमाल ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं, जिनका जवाब देना सरकारों के लिए मुश्किल हो गया है.

पत्थलगड़ी आंदोलन के रूप में जनता द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रभावी इस्तेमाल ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं, जिनका जवाब देना सरकारों के लिए मुश्किल हो गया है.

jharkhand 2
झारखंड के विभिन्न आदिवासी इलाकों में जगह-जगह पत्थलगड़ी दिखाई देते हैं. (फोटो: नीरज सिन्हा/ द वायर)

रांची से बिरसा मुंडा के गांव उलिहातु जो कि अब प्रमुख सीआरपीएफ कैंप बन चुका है, तक के रास्ते में कई गांव ऐसे पड़ते हैं जिन गांवों के प्रवेश द्वार पर हरे रंग के पत्थर लगाए गए हैं. इन पत्थरों पर सफेद रंग से संवैधानिक प्रावधान लिखे हुए हैं. इन्हें बांस की लकड़ी से घेरकर रखा गया है.

8 से 15 फीट तक के ये पत्थर पत्थलगड़ी आंदोलन के प्रतीक हैं. पिछले एक-डेढ़ सालों में ये आंदोलन बड़ी तेज़ी से झारखंड और इससे छत्तीसगढ़ और ओडिशा के सटे हुए क्षेत्रों में फैला है. इससे इन राज्यों की सरकारें काफी नाखुश हैं.

भारतीय संविधान की प्रस्तावना इस बात पर जोर देती है, ‘हम भारत के लोग…इस संविधान को अंगीकृत,अधिनियमित, और आत्मार्पित करते हैं.’

अगर लोगों ने संविधान को अंगीकार किया है तो इसका मतलब है कि वे शांतिपूर्ण तरीके से इसकी व्याख्या करने और इसमें निहित अधिकारों को किसी भी रूप में इस्तेमाल करने का अधिकार रखते हैं.

नागरिकों को भाषण देने, पर्चे निकालने या फिर अपने घर के बाहर पत्थरों पर संदेश लिखकर लगाने के उनके मौलिक अधिकार के इस्तेमाल से रोका नहीं जा सकता है. देश भर में संविधान की प्रति लिए आंबेडकर की हजारों मूर्तियां हैं. यह न सिर्फ संविधान निर्माण में उनकी भूमिका को प्रदर्शित करने के लिए है बल्कि ये लोगों के जीवन में संविधान के मायने को प्रतीकात्मक तौर पर रेखांकित भी करता है.

फिर भी पत्थलगड़ी आंदोलन के रूप में संवैधानिक अधिकारों के प्रभावी इस्तेमाल ने राज्य सरकारों को हिलाकर रख दिया है. ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि उनके सवालों का जवाब देना मुश्किल है.

झारखंड में प्रशासन ने गांव के लोगों के बीच पर्चे और संविधान की प्रतियां बांटी हैं और उसमें कहा है कि वे आंदोलन के बहकावे में न आए. छत्तीसगढ़ में भाजपा के मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने एक वीडियो जारी कर उसमें पत्थलगड़ी आंदोलन के ख़िलाफ़ लोगों को चेतावनी दी है.

इस आंदोलन को राष्ट्र-विरोध और देशद्रोह के तौर पर पेश किया जा रहा है. सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने इसे माओवादियों, ईसाई मिशनरियों और अफ़ीम की खेती करने वालों से प्रेरित आंदोलन बताया है. सरकार ने अपनी चिर-परिचित रणनीति का सहारा लेते हुए कई नेताओं को जेल में डाल दिया है. इसमें से कई पढ़े-लिखे आदिवासी मध्यमवर्गीय लोग हैं तो कुछ सरकारी कर्मचारी.

इसी साल मार्च में पुलिस ने शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के मैनेजर विजय कुजुर को गिरफ्तार किया था. वो झारखंड में आदिवासी महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष हैं. मई में पुलिस ने छत्तीसगढ़ के जैशपुर ज़िले से हरमन किंडो और जोसेफ टिगा को गिरफ्तार किया था. हरमन एक भूतपूर्व आईएएस अधिकारी है तो वहीं जोसेफ टिगा ओएनजीसी एक पूर्व कर्मचारी.

कुजुर और दूसरों को धारा 153ए (लोगों के बीच नफरत फैलाने), 186 (सरकारी कर्मचारी के काम में बाधा डालने) और 120बी (आपराधिक षड्यंत्र रचने) के तहत आरोपित किया गया है.  हालांकि इन दमनकारी नीतियों से आंदोलन को रोका नहीं जा सका है. इसे अब दूसरी पंक्ति के नेता अपने कंधों पर संभाल लिए हैं. इसके अलावा उनके साथ गांववाले तो हैं ही.

छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटीए) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटीए) में फेरबदल करने के सरकार के प्रयासों ने झारखंड के आदिवासियों में सरकार के ख़िलाफ़ गुस्सा भर दिया है.

इन प्रस्तावित बदलावों के तहत ग़ैर-आदिवासियों और कंपनियों को आदिवासियों की ज़मीन हड़पने में आसानी होगी. इन क़ानूनों में ये बदलाव ज़मीन अधिग्रहण का विरोध करने वालों पर गोली चलाने का अधिकार भी पुलिस को देती है. हालांकि राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने यह बिल वापस भेज दिया है लेकिन ख़तरा अभी भी बना हुआ है.

पत्थलगड़ी का अनुभव

10 मई को मैं और मेरा एक दोस्त झारखंड के खूंटी ज़िले में बैठकर पत्थलगड़ी आंदोलन को समझने का प्रयास कर रहे थे. ये हमारी किस्मत थी कि हमें एक गांव में होने वाली बैठक में भाग लेने का मौका मिला.

इस बैठक में बहुत दूर-दूर सरायकेला, लोहरदगा, पश्चिम सिंहभूम, रांची, गुमला और खूंटी ज़िले के आसपास के लोग भाग लेने आए थे. इनमें से कइयों ने अपने गांव में पहले से ही पत्थर लगा रखे थे और बाकी दूसरे लोग जल्दी ही इसे लगाने को लेकर काफी उत्साहित थे.

एक दल ने हमें बताया कि उन लोगों ने पत्थर का ऑर्डर दे दिया है. कुछ ही हफ़्तों में वो आ जाएंगे. उन्हें आठ हज़ार रुपये लगे है पत्थर तैयार करवाने में. बैठक के दौरान एक घोषणा की गई कि 11 गांवों में 27 तारीख को पत्थर गाड़े जाएंगे.

पांच सौ से ज्यादा लोगों की भीड़ गांव-गांव जाकर पत्थर गाड़ने का काम करते हैं. इस दौरान उत्सव का माहौल बना रहता है. दो नौजवान महिलाओं ने हमें बताया कि पिछली बार वो भी गई थीं. वे आम तौर पर साधारण सलवार सूट पहनती हैं लेकिन जब उन्होंने देखा कि दूसरी महिलाएं लाल पट्टी वाली परंपरागत सफेद साड़ी पहनी हुई हैं तो उन्होंने भी साड़ी पहन कर जाने का फैसला लिया.

बैठक में ज्यादातर मर्द ही शामिल होते हैं लेकिन थोड़ी ही संख्या में सही महिलाएं भी मौजूद थीं. कई बैठक की बातें नोट कर रहे थे तो कई के हाथों में संविधान की प्रति थी. भले ही बैठक तीन घंटे तक चली हो और इस दौरान संविधान के मुश्किल प्रस्तावनाओं पर चर्चा हुई हो लेकिन कोई भी बैठक में बोर नहीं हो रहा था. उनके चेहरे से लग रहा था कि वे बड़ी गहराई से सारी चीजें को समझने की कोशिश कर रहे हैं.

यह बैठक जोसेफ पुरती के अध्यक्षता में हो रही थी जो टोरपा के सेंट जोसेफ कॉलेज में हिंदी के पूर्व लेक्चरर हैं. सफेद पगड़ी, कुर्ता और जींस पहने जोसेफ सफेद बोर्ड पर लोगों की टिप्पणियां और सलाह लिख रहे थे, बिल्कुल किसी एनजीओ या फिर कॉरपोरेट मीटिंग की तरह.

Pathalgadi Meeting NS
पत्थलगड़ी की बैठक (फोटो: नंदिनी सुंदर)

वो अपने साथ संविधान की प्रति ले आए थे और साथ में गुजरात में सती पति समुदाय की ओर से निकाले जाने वाले हेवन्स लाईट, आवर गाइड की कई प्रतियां थी. इसके अलावा कई दस्तावेज थे. इनमें से कुछ 10 या 100 रुपये के स्टांप पेपर पर प्रिंटेंड दस्तावेज थे जिनमें गुजरात सरकार के राजस्व नियम थे.

एक अखबार की कटिंग भी थी जिसमें नवजीवन ट्रस्ट की ओर से महात्मा गांधी की इच्छा मानने वाली अपील को खारिज की गई अहमदाबाद कोर्ट के फैसले की रिपोर्टिंग थी. इनमें सबसे ध्यान खींचने वाली जो दस्तावेज थी उस पर लिखा था, ‘आदेशानुसार सहमति: नहीं करना है बेईमानी, नफरत, अवज्ञा, लूट, विश्वासघात, दुरुपयोग, चोरी, मानहानि, 17/18 / 30-4-68  क्राउन की संपत्ति की बिक्री का कोई कार्य.’

इस इलाके के पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े लोग सती पति संप्रदाय के मानने वाले हैं. यह संप्रदाय कुंवर केश्री सिंह ने गुजरात के तापी ज़िले के वयारा तालुक के कातासवान गांव में शुरू किया था. केश्री सिंह के बेटे रविंद्र सिंह अब इस सती पति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं.

केएस सिंह के द्वारा संपादित ‘ट्राइबल मूवमेंट्स इन इंडिया’ से हमें पता चलता है कि आदिवासी क्षेत्रों में खासतौर पर दक्षिणी गुजरात में आदिवासियों के बीच कई इस तरह के संप्रदाय मिलते हैं. सती पति संप्रदाय के लोग यह मानते हैं कि इस ज़मीन के मालिक आदिवासी हैं और महारानी विक्टोरिया ने भी इस बात को माना है.

वे ज़मीन का कर नहीं देते हैं और न ही वोट देते हैं और सरकार की किसी योजना का लाभ लेते हैं. गुजरात में सत्ताधारी दल की ओर से उन्हें संरक्षण मिलता है.

सती पति संप्रदाय के साथ पुरती के संबंध लगता है एक महिला को लेकर है जो उलिहातु गांव की हैं और गुजरात भी जा चुकी हैं. बिरसा मुंडा और केश्री सिंह के मतों में भी कई समानताएं हैं. इनके मानने वालों का मानना है कि इनके नेता रविंद्र सिंह का भारत के राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के जज और विदेशों के भी गणमान्य लोगों से संबंध है.

दरअसल वे लोग सीएनटीए में बदलाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट के लिखे पत्रों पर सुप्रीम कोर्ट के चार जजों के प्रेस कॉन्फ्रेंस का हवाला देते हैं. यह सुखद और दुखद दोनों है कि दिल्ली से सैकड़ों मील दूर खूंटी गांव के आदिवासियों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट उनकी सुध लेता है.

सती पति आंदोलन की तरह ही पत्थलगड़ी आंदोलन कहता है कि सरकार जनता की सेवक है और भारत सरकार की सेवाओं को लेकर कई तरह के नियम-कानून तय करता है. एक स्थानीय नेता ने हमें बताया कि कैसे सरकारी अधिकारी जब पत्थलगड़ी आंदोलन के लोगों से मिलने आते हैं तो उन्हें सब के साथ ज़मीन पर बैठने पर मजबूर किया जाता है. एक थानेदार ने तो उनसे कहा था कि उसे बार-बार यह याद दिलाना रास नहीं आया कि वो एक सरकारी नौकर हैं.

पत्थलगड़ी आंदोलन उस वक्त लोगों की नज़र में आया जब अगस्त 2017 में भंडारा पंचायत के गांव वालों ने पुलिस अधीक्षक अश्विनी कुमार सिन्हा को 12 घंटों तक बंधक बना लिया था. इस साल के फरवरी में अरकी थाना के पुलिसकर्मियों को गांव वालों ने गांव के अंदर नहीं घुसने दिया था.

गांव वालों का कहना है कि उन्होंने पुलिस वालों को अगली सुबह आने को कहा था जो कि कोई गलत मांग नहीं थी क्योंकि अक्सर पुलिस-नक्सल तकरार में गांव वाले पिसते हैं. गांव वालों को आए दिन पुलिस वाले उनके परिवार को बताए बिना कि कहां और क्यों ले जा रहे हैं, उठाकर ले जाते हैं..

‘शुरू में हम कभी भी पटवारी या पुलिस से नहीं पूछते थे कि वे गांव क्यों आए हैं. लेकिन अब जब हम पूछ रहे हैं तो वे हमसे नाराज़ हैं.’

कानूनी और ग़ैर-कानूनी की बहस

हेवन्स लाईट में एक और दूसरी बात जिस पर जोर दिया गया है वो है इंसानों के द्वारा बनाई गई न्यायिक व्यवस्था के मुकाबले ग़ैर-न्यायिक व्यवस्था या फिर प्राकृतिक व्यवस्था का पालन करना. हालांकि इसमें से कई बातें बहुत विचित्र लगती है लेकिन इसमें सच्चाई भी नज़र आती है जो कि कुपढ़ और भेदभाव वाली नौकरशाही की वजह से लोगों की रोजमर्रा की ज़िंदगी को नरक बना दिया है.

जैसा कि पुरती बताते हैं कि सरकार और अदालतों के बनाए क़ानूनों का सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है. दो उदाहरण देकर वो अपनी बात समझाते हैं. पहला उदाहरण वो ये देते हैं कि लड़की और लड़के की शादी करने की क़ानूनन उम्र 18 और 21 साल तय की गई है जो कि उनके जवान होने की प्राकृतिक उम्र नहीं है और दूसरा उदाहरण वो नक्सल के नाम पर गांव वालों की गिरफ़्तारी का देते हैं.

वो कहते हैं, ‘कई सारे नक्सली वारदात होते रहते हैं लेकिन पुलिस वास्तविक नक्सलियों को पकड़ने के बजाए बेगुनाह गांव वालों को पकड़ कर ले जाती है और उन्हें गलत मामले में फंसा देती है.’

Pathalgadi
फोटो: नंदिनी सुंदर

झारखंड में जिन मामलों की सुनवाई चल रही है, उन पर काम कर रही बागाइचा रिसर्च टीम ने पाया है कि नक्सल मामलों में गिरफ्तार 97 फ़ीसदी लोगों का नक्सली आंदोलन से कोई संबंध नहीं है.

पुरती ने बताया, ‘कोर्ट में कई सारे लंबित मामले हैं लेकिन हमारे ग्रामसभा में एक भी ऐसा मामला नहीं है जो बिना फैसले के पड़ा हो. न्यायिक व्यवस्था सिर्फ लोगों को पीस कर रख देती है. वो कोई इंसाफ नहीं देती. इस व्यवस्था में लोग हमारे पास वोट लेने लेने के लिए आते हैं और फिर गायब हो जाते हैं.’

इस दलील के सामने कौन बहस कर सकता है?

इसके विपरीत जो प्राकृतिक व्यवस्था है वाकई में वही देश को चला रही है- ये खेत, ये जंगल, ये नदियां और जीवन अपने आप में खुद. लोग उन खेतों में फसल उगाते हैं जो उन्होंने खुद जंगलों को साफ करके बनाया है. इस पर सरकार उनसे टैक्स मांगती है. वे जंगलों की सुरक्षा करते हैं और तो भी उसके इस्तेमाल पर उनपर जुर्माना लगाया जाता है.

पुरती को सुनते हुए मुझे एचडीसी पेपलर की एक कविता याद आ गई जिसमें कहा गया है कि क़ानून और वकील तो ज़मीन और संपत्ति के बारे में जानते हैं, उन्हें क्या पता कि पेड़ों पर पत्ते क्यों आते हैं, समुद्र में लहरें क्यों मचलती है, मधुमक्खियां शहद क्यों बनाती है, घोड़ों के घुटने इतने मुलायम क्यों है, सर्दी क्यों आती है और नदियां क्यों जम जाते हैं, आस्था दुनियावी चीजों से परे क्यों है, और उम्मीद की बीमारी जाती क्यों नहीं और परोपकार से बड़ा कुछ नहीं, वो ये नहीं समझते.

आदिवासी बैंक और आदिवासी शैक्षणिक बोर्ड

उस दिन की बैठक इस फैसले के साथ खत्म हुई कि एक आदिवासी बैंक और एक आदिवासी शैक्षणिक बोर्ड का की स्थापना की जाएगी. पुरती का काम था कि वो सब को समझाए कि कैसे ये दोनों चीजें जरूरी हैं और इससे उन्हें क्या हासिल होगा.

प्रोफेसर मान सिंह मुंडा ने भी इस बैठक को संबोधित किया. मान सिंह मुंडा, मुंडा लिपि तैयार करने में लगे हुए हैं. उनका कहना है कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है. वो कहते हैं, ‘हमें स्कूलों में धोखाधड़ी की संस्कृति सिखाई गई है. हमें स्कूलों में बताया गया है कि ये जितने धर्म हैं उनमें इंसान को भगवान और भगवान को इंसान बनाया जाता है. वे तीन दिनों तक भगवान की पूजा करते हैं और उसके बाद उसकी प्रतिमा को नदी में फेंक देते हैं. कौन भगवान को अपने से दूर करता है? हमारे लिए भगवान हर जगह है.’

पुरती का कहना है, ‘हमें एक बाहरी भाषा में प्रतिस्पर्धा करने पर मजबूर किया गया. इसलिए फेल होना तो पहले से तय था. एक इंसान जो अपनी भाषा खो देता है उसकी पहचान खत्म होनी निश्चित है.’

वो आगे कहते हैं, ‘कई लोग हमसे पूछते हैं कि मुंडारी सीखने से क्या फायदा जब हमें नौकरी ही नहीं मिलेगी तब. लेकिन अगर हमारे पास अपनी शिक्षा बोर्ड होगी और अपने स्कूल-कॉलेज होंगे तो फिर हमारे लोगों को उसमें नौकरी मिलेगी.’

आदिवासी बैक इसलिए जरूरी है क्योंकि मौजूदा बैंकिंग व्यवस्था में उनके लिए कोई जगह नहीं है. अगर वो अपने सारे पैसे इन बैंकों से निकालकर आदिवासी बैंक में रख दें तो वो अपनी बैंकिंग व्यवस्था बखूबी चला पाएंगे. एक छोटी-सी पहाड़ी पर हर कोई के चढ़ने के साथ ही यह बैठक समाप्त हो गई. यहां से जंगल से भरी घाटी बहुत सुंदर दिखती थी. यहीं पर स्कूल बोर्ड और बैंक बनाए जाएंगे.

संवैधानिक प्रस्तावनाओं के स्रोत

पत्थलगड़ी आंदोलन अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग विषय-वस्तु के साथ मौजूद है. कुछ जगहों पर वे पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम 1996 (पेसा) के प्रस्तावनाओं का उल्लेख पत्थरों पर करते हैं.

पेसा इस बात पर जोर देती है कि, ‘हर ग्राम सभा को अधिकार है कि वे अपने लोगों की परंपरा, रीति रिवाज, सांस्कृति पहचान, संसाधन और समस्या के समाधान के पारंपरिक तरीकों को संरक्षण दें.’

दरअसल पत्थरों पर दर्ज किए गए पेसा के प्रस्तावनाएं जो कि ग्राम सभा को आत्मशासन की बुनियाद मानता है, पूर्व नौकरशाह डॉक्टर बीडी शर्मा के आंदोलन की देन है. बीडी शर्मा ने पेसा बनाने और भारत जन आंदोलन खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई थी.

हालांकि दूसरी जगहों पर जैसे मुंडारी खूंटकट्टी क्षेत्रों में संविधान की उन विशेषताओं पर जोर दिया जाता है जो विशेष मुंडारी खूंटकट्टी काश्तकारी अधिनियम के अस्तित्व को मानता है.

Pathalgadi Stamp Paper
सती पति समुदाय द्वारा दिया जाने वाला एक कानूनी दस्तावेज (फोटो: नंदिनी सुंदर)

सीएनटीए 1908 मुंडारी खूंटकट्टीदारों के ज़मीन पर सामूहिक स्वामित्व को मानता है. खूंटकट्टीदारों का मानना है कि वे राज्य के अधीन ज़मीन के स्वामित्व को नहीं मानते बल्कि ये उनका ये उनका हक़ है और वो जो चंदा इसके एवज में इकट्ठा करते हैं वो एक तरह का भेंट है न कि टैक्स.

आर्टिकल 13 (3), 19 (5) (6) और  आर्टिकल 244 (1) का उल्लेख पत्थलगड़ी आंदोलन के तहत लगाए गए शिलालेखों में किया गया है. ये दोनों ही एक साथ संविधान में निहित उस क़ानूनी अपवाद की बात करते हैं जो पेसा और सीएनटीए को बल प्रदान करते हैं.

आर्टिकल 13 मौलिक अधिकारों की अवमानना या फिर इससे असंगत किसी भी क़ानून को खारिज करता है.  आर्टिकल 13 (3) (क) में कहा गया है, ‘भारत के किसी क्षेत्र में मौजूद नियम, अधिनियम, रीति रिवाज, रूढ़ि या प्रथा ही वहां का क़ानून है.’

इसका मतलब यह निकला कि आदिवासी रीति रिवाज और क़ानून जो ग्राम सभा ने निर्धारित किए हैं, वो पूरी तरह से संवैधानिक हैं. आर्टिकल 13 (3) (क) के तहत ग्रामीण रीति-रिवाज ही उनका संविधान है, ये बात भी पत्थरों पर लिखी गई है.

आर्टिकल 244 (1) कहता है कि पांचवी अनुसूची, अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजाति (मध्य भारत में) पर लागू होती है. पांचवी अनुसूची के तहत गर्वनर ये आदेश दे सकता है कि अनुसूचित क्षेत्रों में कोई क़ानून लागू नहीं होगा. उसी तरह से वो किसी क़ानून के इन क्षेत्रों में लागू होने की बात ही कर सकता है.

ज्यादातर राज्यों में लागू होने वाले सभी क़ानून पूरे राज्य में एक समान तरीके से लागू होते हैं. अनुसूचित क्षेत्रों में इनके लागू होने को लेकर कोई खास दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं. इसलिए पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े लोग यह दलील देते हैं कि जब तक विशेष तौर पर कोई क़ानून नहीं लागू किया गया हो तब किसी क़ानून के तहत गिरफ़्तार करना ग़ैर-क़ानूनी है.

किसी और मामले में भी गर्वनर को जनजाति सलाह परिषद से सलाह-मशवरा जरूर करना चाहिए. जनजाति सलाह परिषद शायद ही कभी गर्वनर से मिलते हैं और गर्वनर कभी भी भारत के राष्ट्रपति को सालाना रिपोर्ट नहीं भेजते हैं जो कि पांचवी अनुसूची के तहत जरूरी है. इस मामले में सरकार सीधे तौर पर संविधान के निर्देश का उल्लंघन करती हुई नज़र आती है लेकिन इसके लिए कभी उसे कोई सज़ा नहीं मिलती है.

संविधान की प्रस्तावनाओं पर बहस

बैठक के दौरान आयोजकों ने प्रशासन के इन दावों को सीधे तौर पर खारिज कर दिया, जो वो अपने पर्चों और संबोधनों में करते रहे हैं. इस दौरान थोड़े ठहाके भी लगे. संविधान की प्रति बांटने से लगता है.

पत्थरों पर लिखा हुआ है कि आर्टिकल 19 (5) के तहत बाहरी लोगों को आदिवासी गांवों में रहने और काम करने की बिना इजाज़त लिए मनाही है. प्रशासन के पर्चों पर इसे ग़ैर-संवैधानिक और मौलिक अधिकारों का हनन बताया गया है.

जबकि आर्टिकल 19 (5) को पढ़े तो गांव वाले सही और प्रशासन का स्टैंड गलत लगता है. इसमें साफ तौर पर यह कहा गया है कि अनुसूचित जनजाति के हितों को देखते हुए कहीं भी आने-जाने, रहने और बसने पर मौजूदा क़ानून के तहत प्रतिबंध लगाया जा सकता है.

बैठक के दौरान उठाई गई शिकायतों में से एक शिकायत यह थी कि सरकार आरक्षण ख़त्म करने और दूसरे समान पहचान वाले मापदंडों जैसे आधार और वोटर कार्ड को हमारे ऊपर थोपकर हमारी खास पहचान को मिटाने की कोशिश में लगी हुई है. आधार और वोटर कार्ड से उन्हें समस्या है क्योंकि ये आदिवासियों को ‘आम आदमी’ बनाता है जबकि वास्तव में आदिवासी ‘खास आदमी’ हैं और जिनके लिए खास क़ानून है.

ये लोग जहां एक ओर खुद के पक्ष को लेकर पूरी तरह से साफ है तो वही सरकार लंबे समय से कंफ्यूज है. झारखंड हाईकोर्ट में पंचायती राज अधिनियम को लेकर सरकार के रुख में यह दिखता है.

आदिवासियों के लिए विल्किन्सन क़ानून जैसे विशेष क़ानून की जरूरत से भी वो इनकार करती रही है जो कि ग्राम पंचायतों को कुछ हद तक आपराधिक शक्तियां और परंपरागत प्रमुख नियुक्त करने की मुंडा-मानकी व्यवस्था को वैधानिकता प्रदान करता है. जबकि ये पेसा के अधिकारों को मानती है जो कि आदिवासी रीति-रिवाजों को लेकर एक संवैधानिक व्यवस्था है.

सच तो यह है कि मौजूदा राजनीतिक सत्ता आदिवासियों को दिए गए सुरक्षा क़ानूनों को उनसे छीन लेना चाहती है लेकिन इसकी महंगी राजनीतिक क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी. कुछ मसलों पर पत्थलगड़ी आंदोलन के लोग और सरकार दोनों ही कंफ्यूज नजर आते हैं.

संविधान को मानने को लेकर अपना मुहिम खड़ा करने वाले पत्थलगड़ी के समर्थक यह भी मानते हैं कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में शामिल बहिष्कृत और आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्रों के प्रस्तावनाओं को (सीएनटीए के माध्यम से) अब भी माना जा सकता है.

जब सरकार कहती है कि संविधान में इसे ख़त्म कर दिया गया है तब वो आईपीसी, सीआरपीसी, फॉरेस्ट एक्ट और अन्य दूसरे ही ऐसे क़ानूनों का हवाला देने लगते हैं जिनका लंबे समय से लोकतांत्रिक क्रांति को दबाने में इस्तेमाल किया जा रहा है.

क्या हैं कमियां

जब हम ज़िले से बाहर निकल रहे थे तब हमें कुछ ऐसे गांव दिखे जहां पत्थलगड़ी आंदोलन का असर नहीं था और न ही इन गांव वालों का अपने यहां पत्थर लगाने का कोई इरादा था. एक औरत ने हमें बताया कि उन्हें अपने गांव के लोगों को पत्थलगड़ी के लिए मनाने में एक साल लग गए. जब सभी भुईंहारी लोग (मूल बाशिंदे) तैयार हो गए तब कुछ दूसरे ऐसे लोग भी थे जो इसके लिए तैयार नहीं हुए.

कुछ गांव, जो आंदोलन में शामिल हुए उन्होंने सरकारी योजनाओं का लाभ लेना बंद कर दिया लेकिन वहीं कुछ दूसरे गांवों ने सरकारी योजनाओं का लाभ लेना जारी रखा. सरकार ने इसे एक बगावत के तौर पर लिया.

उसने उन लोगों को यकीन दिलाया कि सीआरपीएफ़, पुलिस और प्रशासन ये सब जनता की सेवा के लिए है. उन्होंने ये भी यकीन दिलाया कि सरकारी योजनाएं ग्राम सभा के मार्फत ही लोगों तक पहुंचाई जाएगी. उनके पास भी वहीं माध्यम था जो कि पत्थलगड़ी आंदोलन के पास था. लेकिन ज़िले भर में बिना पानी के कनेक्शन वाले बेढंगे और बेतुके तरीके से लगाए गए टॉयलेट शायद ही स्थानीय लोगों की प्राथमिकता रही हो.

Pathalgadi Toilet
ज़िले भर में बिना पानी के कनेक्शन वाले बेढंगे और बेतुके तरीके से टॉयलेट लगाए गए हैं, जिन्हें प्रयोग नहीं किया जाता. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

शाम में बारिश शुरू हो गई. मुझे अपने दोस्त के साथ तमाम दूसरे जटिल संवैधानिक सवालों को कभी और के लिए दरकिनार कर रांची लौटना पड़ा. लेकिन जो बात बहुत साफ हो गई थी, वो यह थी कि एक बार लोग जब संविधान पढ़ने का फैसला कर लें और उसकी व्याख्या खुद से करना शुरू कर दें तो फिर उन्हें रोकना मुश्किल हो जाएगा.

अगर कोई न्यायिक या फिर प्रशासनिक मामलों की विशेषज्ञता का दावा करें तो उसे ग़ैर-न्यायिक वास्तविकताओं (प्राकृतिक) को जरूर ध्यान में रखना चाहिए. और बेहतर होगा कि लोगों को संविधान की सिर्फ प्रशासनिक व्याख्या के आधार पर गिरफ्तार करने या फिर उनका दमन करने के बजाए संविधान पर बहस की जाए.

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाती हैं.)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa pkv games pkv games bandarqq bandarqq dominoqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq