आंबेडकर पर फूल-माला चढ़ाओ पर उन्हें पढ़ने मत दो!

बाबा साहब के नाम पर बहुत सारे आयोजन और कर्मकांड हो रहे हैं. लेकिन उनके विचार, उनके लेखन और उनकी रचनाओं को लोगों के बीच पहुंचाने की कोशिश सिरे से गायब है.

(यह लेख मूल रूप से 13 अप्रैल 2017 को प्रकाशित हुआ था.)

14 अप्रैल को डॉ. भीमराव आंबेडकर की जयंती पूरे देश में मनाई जा रही है. केंद्र और कई राज्य सरकारों की तरफ से इसे ‘समरसता दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा. इसकी तैयारी सप्ताह भर से चल रही है.

संसद भवन से शहर-नगर और कस्बों की सड़कों पर भी रंगारंग आयोजन होंगे. बाबा साहब को फूल-माला चढ़ाए जाएंगे. केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की इस बार ख़ास तैयारी है. सरकार के शीर्ष पदाधिकारियों के भाषण होंगे. पर विडंबना देखिए कि केंद्र सरकार के इसी मंत्रालय के तहत संचालित डॉ. बीआर आंबेडकर प्रतिष्ठान (आंबेडकर फाउंडेशन) के पास बहुत अरसे से आंबेडकर साहब की किताबें और संकलित रचनाओं की प्रतियां नहीं बची हैं, पूरा का पूरा आंबेडकर साहित्य आउट-ऑफ प्रिंट है. हालांकि इसमें आंबेडकर फाउंडेशन का उतना दोष नहीं.

दरअसल, आंबेडकर फाउंडेशन ने बाबा साहब की संकलित रचनाओं का विभिन्न भाषाओं में प्रकाशन महाराष्ट्र सरकार से मिले अनापत्ति-प्रमाणपत्र (एनओसी) के बाद किया था.

डॉ. आंबेडकर की रचनाओं का पहली बार समग्र प्रकाशन मराठी और अंग्रेज़ी में महाराष्ट्र शासन ने सन् 1987 में किया था. उन दिनों महाराष्ट्र में कांग्रेस का शासन था. दलित संगठनों और लेखकों-विचारकों के दबाव में आकर सरकार ने आंबेडकर के समग्र साहित्य को छापने का फैसला किया.

महाराष्ट्र शासन से अनापत्ति प्रमाण पत्र पाने के बाद केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय के तहत संचालित दिल्ली स्थित आंबेडकर फाउंडेशन ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में समग्र आंबेडकर साहित्य का प्रकाशन किया लेकिन अब उनकी संकलित रचनाएं कई महीने से ‘आउट ऑफ प्रिंट’ हैं.

प्रतिष्ठान चाहते हुए भी लगभग दो दर्ज़न किताबें नहीं प्रकाशित कर पा रहा है क्योंकि महाराष्ट्र शासन ने फाउंडेशन को दिए अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) को रद्द कर प्रकाशन का अधिकार वापस ले लिया.

फाउंडेशन के विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक नियमानुसार ‘अब आंबेडकर साहित्य पर महाराष्ट्र शासन या अन्य किसी का भी का कॉपीराइट नहीं बनता. बाबा साहब का निधन आज से 60 साल पहले सन् 1956 में हुआ था. लेकिन केंद्र और राज्य के बीच उलझे इस मसले को समय रहते सुलझाया नहीं जा सका. इससे प्रकाशन में समस्या आई और बाबा साहब के जन्मदिवस के मौके पर भी उनकी संकलित रचनाएं पाठकों के समक्ष नहीं लाई जा सकीं.’

‘आंबेडकर पर फूल-माला चढ़ाओ पर उन्हें पढ़ने मत दो’ का सिलसिला सिर्फ सरकारों या शासकीय दफ्तरों तक सीमित नहीं है. देश के सबसे प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय जेएनयू ने हाल में ही अपनी केंद्रीय लाइब्रेरी का नाम डॉ. बीआर आंबेडकर सेंट्रल लाइब्रेरी रखा है.

दिलचस्प बात है कि आंबेडकर नामकरण वाले इस पुस्तकालय में आंबेडकर की संकलित रचनाएं (कलेक्टेड वर्क्स) मौजूद ही नहीं हैं. यही नहीं, उनकी प्रमुख किताबें भी इस पुस्तकालय में नहीं हैं.

जेएनयू में वाम-वर्चस्व के दिनों से लेकर मौजूदा दौर तक विश्वविद्यालय का पुस्तकालय आमतौर पर आंबेडकर साहित्य से वंचित ही रहा. अलबत्ता जेएनयू की ‘आंबेडकर पीठ’, जिसके प्रभारी प्रोफेसर और समाजशास्त्री विवेक कुमार हैं, के पास आंबेडकर साहित्य का विपुल भंडार है.

सूत्रों के मुताबिक अब जेएनयू के पदाधिकारी आंबेडकर पीठ में रखी किताबों को सेंट्रल लाइब्रेरी ले जाने पर विचार कर रहे हैं.

आंबेडकर जयंती की सरकारी तैयारी के कार्यक्रमों को देखते हुए यही लगता है कि हमारे नेता और शासन के कर्ताधर्ता आंबेडकर को ‘देवता’ बनाकर भवनों या प्रतिष्ठानों में ‘बंद’ कर देना चाहते हैं.

उनकी जन्मस्थली महू (मध्य प्रदेश) से दिल्ली और नागपुर से मुंबई तक बाबा साहब के नाम पर बहुत सारे आयोजन और कर्मकांड हो रहे हैं. लेकिन उनके विचार, उनके लेखन और उनकी रचनाओं को लोगों के बीच पहुंचाने की कोशिश सिरे से गायब है.

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