‘जब तक यहां से वेदांता रिफाइनरी नहीं हटती, नियमगिरी की लड़ाई जारी रहेगी’

ओडिशा के नियमगिरी क्षेत्र के लोग त्रिलोचनपुर गांव में बनी सीआरपीएफ छावनी और नियमगिरी सुरक्षा समिति के नेता लिंगराज आज़ाद की हालिया गिरफ़्तारी को वेदांता की वापसी से जोड़कर देख रहे हैं.

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डोंगरिया कोंद आदिवासी समुदाय की महिलाएं. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

ग्राउंड रिपोर्ट: ओडिशा के नियमगिरी क्षेत्र के लोग त्रिलोचनपुर गांव में बनी सीआरपीएफ छावनी और नियमगिरी सुरक्षा समिति के नेता लिंगराज आज़ाद की हालिया गिरफ़्तारी को वेदांता की वापसी से जोड़कर देख रहे हैं.

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डोंगरिया कोंद आदिवासी समुदाय की महिलाएं (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

‘नियमगिरी से वेदांता अभी गई नहीं है. कोर्ट का फैसला बदल भी सकता है. जब तक अपनी जीवनशैली और जंगल को बचाने के लिए आंदोलन जारी नहीं रहेगा, तब तक नियमगिरी की सुरक्षा नहीं हो सकती.’ कुछ ही दिन पहले जमानत पर रिहा किए गए नियमगिरी सुरक्षा समिति के नेता लिंगराज आजाद यह बताते हैं.

ब्रिटिश माइनिंग कंपनी वेदांता भले ही कुछ साल पहले नियमगिरी में बॉक्साइट माइनिंग करने को लेकर डोंगरिया कोंद आदिवासियों से लड़ाई हार गई हो, लेकिन अब तक न तो आदिवासियों का डर गया है और न ही उनका संघर्ष खत्म हुआ है.

ओडिशा के कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों के बीच में नियमगिरी की पहाड़ियां हैं. लखपरदार गांव इन्हीं पहाड़ियों के बीच में बसा हुआ है. सुबह पांच बजे गांव से थोड़ी-सी दूरी पर ऊपर चढ़ते ही एक जगह बनी हुई है जहां पर कुछ पत्थर बिछे हुए हैं.

गांव के कई पुरुष वहीं पर बैठे हुए हैं. सब लोग टकटकी लगाकर ऊपर एक पहाड़ की तरफ देख रहे हैं. वहां पर खजूर के एक ऊंचे पेड़ से एक व्यक्ति हाथ में दो बोतलें लिए उतर रहा है. वह नीचे आकर उसे छानता है. यह शलप है.

बाहर के लोग इसे ताड़ी (एक तरह की शराब) भी कहते हैं, पर नियमगिरी के लोग इसे (मां के) दूध के बराबर मानते हैं. सब लोग थोड़ा-थोड़ा शलप पीते हैं और फिर बात करने लगते हैं.

नियमगिरी के जंगलों में रहने वाले डोंगरिया कोंद आदिवासी कुई भाषा में बात करते हैं. जिन लोगों का बाहर से थोड़ा संपर्क है, उन्हें उड़िया भाषा भी आती है. सिर्फ हिंदी जानने वालों के लिए इनकी भाषा को समझना आसान नहीं, लेकिन फिर भी इनके चेहरे पर दिख रहा गुस्सा और डर बहुत कुछ बता देता है.

लखपरदार नियमगिरी के जंगलों में बसे 112 गांवों में से एक है. इन गांवों में डोंगरिया कोंद और कोटिया कोंद जैसे आदिवासी समुदायों के लोग रहते हैं. ये आदिवासी समुदाय सैकड़ों सालों से इन्हीं जंगलों में रह रहे हैं और जंगल से बाहर की दुनिया से इनका संपर्क न के बराबर है.

21 घरों वाले गांव लखपरदार में कुछ भी नहीं है. यहां तक न तो सड़क आती है और न ही बिजली के तार. न किसी के पास मोबाइल फोन है और न ही टीवी. न कोई स्कूल और न ही किसी तरह की स्वास्थ्य सेवा.

डोंगरिया कोंद आदिवासी पहाड़ों पर रहते हैं और अपने-अपने डोंगर में खेती करते हैं. केला, संतरा, अनानास, अदरक और हल्दी जैसी चीजें उगाते हैं. जंगल से फल-फूल, जड़ी-बूटी, इमली और पत्ते तोड़ते हैं, लकड़ी लेते हैं और सबसे जरूरी शलप लेते हैं.

इसी गांव में लोदो सिकोका रहते हैं. नियमगिरी संघर्ष समिति के नायकों में से एक लोदो पहली बार अगस्त 2010 में तब चर्चा में आए थे, जब पुलिस उन्हें ले गई थी और अधमरा होने तक पीटा था. ऐसा आरोप है कि ये वेदांत के इशारे पर हुआ था.

लोदो 2003 से ही नियमगिरी आंदोलन से जुड़े हुए हैं. टूटी-फूटी हिंदी में बात करते हुए लोदो त्रिलोचनपुर में बनी सीआरपीएफ छावनी के बारे में बताने लगते हैं.

पंचायत भवन में बनी सीआरपीएफ छावनी

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इसी पंचायत भवन में सीआरपीएफ की छावनी बनाई गई है (फोटो: गर्वित गर्ग/द वायर)

लोदो के गांव तक पहुंचने के लिए सबसे पास सड़क त्रिलोचनपुर तक आती है. उसके बाद वहां से कई पहाड़ और झरने पार करते हुए लगभग 10 किलोमीटर चलकर जाना पड़ता है.

त्रिलोचनपुर में घुसते ही एक इमारत दिखाई देती है जिस पर उड़िया में ग्राम पंचायत त्रिलोचनपुर लिखा हुआ है, पर पास जाने पर पता चलता है कि चारों तरफ हथियार थामे सीआरपीएफ के जवान तैनात हैं. यह सीआरपीएफ की अस्थायी छावनी है, जो लगभग 3 महीने पहले बनी है.

त्रिलोचनपुर के युवा सरपंच चंद्रा माझी अपनी बाइक पर बैठे हुए यह बताते हैं, ‘वो आए और जबरदस्ती घुस गए, किसी ने पूछा तक नहीं. पंचायत के सारे कागजात भीतर हैं, किसी का कोई काम नहीं हो पाता. किसी को किसी योजना का फायदा नहीं मिल पाता.’

मंगलवार को साप्ताहिक बाजार लगा है और पहाड़ों पर से आदिवासी लोग नमक, तेल जैसी चीजें खरीदने और इमली और पत्ता बेचने आए हुए हैं. इसी बाजार के एक कोने में चंद्रा माझी ने अपनी बाइक खड़ी की हुई है जो  इस समय अस्थायी पंचायत भवन है और आसपास के गांवों के आदिवासी अपने आधार कार्ड से जुड़ी समस्याओं को उन्हें बता रहे हैं.

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पंचायत भवन न होने पर साप्ताहिक बाजार में अपनी बाइक पर बैठकर ग्रामीणों की समस्याएं सुनते त्रिलोचनपुर के सरपंच चंद्रा माझी (फोटो: गर्वित गर्ग/द वायर)

पर पंचायत भवन में छावनी होने ने एक नई समस्या को जन्म दे दिया है. राशन की दुकान भी पंचायत के भीतर है और अब सिर्फ महीने में 1 बार राशन मिलता है. कई घंटे चलकर नीचे आने वाले आदिवासियों के लिए सस्ता चावल न मिल पाना जीने मरने का सवाल हो जाता है.

इसी गांव में रहने वाले देतारी गौड के मुताबिक, ‘अब राशन लेने जाने के लिए भी डर लगता है. एक दिन राशन मिलता है और एक दिन भत्ता. निर्धारित दिन के अलावा या बिना परमिशन जाने पर गोली मारने की धमकी मिलती है.’

इसी सीआरपीएफ कैंप के विरोध में जुलूस निकालने पर सामजिक कार्यकर्ता लिंगराज आजाद को गिरफ्तार किया गया था. ओडिशा के प्रमुख समाजवादी नेता किशन पटनायक के सहयोगियों में से एक रहे लिंगराज को पहले पुलिस ने एक प्रेस रिलीज जारी कर माओवादी समर्थक बताया.

बाद में कहा कि उन्हें 2017 में लांझीगढ़ में स्थित वेदांता की रिफाइनरी के गेट पर प्रदर्शन करने से जुड़े एक मामले में गिरफ्तार किया गया था. अब उन पर सीआरपीएफ छावनी का विरोध करने के लिए मामला दर्ज कर लिया गया है.

लिंगराज कहते हैं, ‘हम छावनी का विरोध क्यों नहीं करेंगे? यहां आंगनबाड़ी केंद्र चलता नहीं, स्कूल में शिक्षक रहते नहीं, हेल्थ सेंटर बंद है. अब ग्राम पंचायत का दफ्तर बंद हो गया तो ये जनता के हित में है क्या? सरकार यहां के लोगों को विकास विरोधी कहती है, पर क्या इस सरकार से बड़ा कोई विकास विरोधी है.’

वे आगे कहते हैं, ‘यह सब कंपनी के निर्देश पर ही हो रहा है. सरकार भी कंपनी के निर्देश पर ही चल रही है और पुलिस भी. पहले भी मुझे 4 महीने तक जेल में रखा गया. हमारे एक नेता को भी खरीद लिया गया. पर जब तक वेदांता कंपनी की लांझीगढ़ रिफाइनरी यहां तक है, तब तक ये लड़ाई जारी रहेगी.’

लांझीगढ़ का भूत और दो लोगों की लाशें

त्रिलोचनपुर से लगभग 12 किलोमीटर दूर लांझीगढ़ में वेदांता का एल्युमिनियम रिफाइनरी प्लांट है. 1997 में अनिल अग्रवाल की स्टरलाइट इंडस्ट्रीज ने ओडिशा सरकार के साथ एक एमओयू साइन किया था. इसके तहत नियमगिरी में खदानें शुरू कर बॉक्साइट निकाला जाना था और फिर लांझीगढ़ में एक रिफाइनरी और एल्यूमिनियम प्लांट लगाया जाना था.

2004 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इस प्रोजेक्ट को पर्यावरण मंजूरी इस शर्त पर दी कि रिफाइनरी शुरू करने से पहले खनन की मंजूरी मिलनी चाहिए. 2005 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त की गई सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी ने कहा कि नियमगिरी में माइनिंग नहीं होनी चाहिए.

2007 में दोबारा पूछे जाने पर इस कमेटी ने कहा कि मंत्रालय ने वेदांता को मंजूरी गैर-जिम्मेदार तरीके से और जल्दबाजी में दी है. कमेटी की आपत्ति और खनन की मंजूरी न होने के बाद भी वेदांता एल्युमिनियम ने अगस्त 2007 में एक मिलियन टन प्रतिवर्ष की क्षमता वाली रिफाइनरी बनाने का काम शुरू कर दिया.

इस रिफाइनरी को बनाने के लिए वेदांता ने लांझीगढ़ के आसपास जमीन अधिग्रहण किया और जिनकी जमीनें ली उनके रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा की जिम्मेदारी लेने का वादा किया.

18 मार्च 2019 को लांझीगढ़ में स्थित वेदांता रिफाइनरी के गेट पर कुछ लोगों ने एक प्रदर्शन किया. इनमें से अधिकतर की जमीनें वेदांता ने रिफाइनरी बनाने के लिए ली थी, पर इनको किए गए वादे पूरे नहीं किए थे.

जमीनें जाने के बाद लोगों को रोजगार नहीं दिया गया था. जो स्कूल खोला गया था उसकी फीस बहुत ज्यादा थी. अस्पताल में न अच्छे डॉक्टर थे और न ही दवाइयां. प्रदर्शन कर रहे लोगों की मांग थी कि इनके बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाए और उनके आने-जाने के लिए एक स्कूल बस का इंतजाम किया जाए.

यह प्रदर्शन सुबह 6:30 बजे शुरू हुआ था और 9:30 बजे वेदांता के अधिकारियों के मौखिक आश्वासन पर खत्म होने जा रहा था. इतने में ओडिशा सरकार के द्वारा वेदांता की सुरक्षा के लिए तैनात किए गए ओडिशा इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स (ओआईएसएफ) के जवानों ने प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हमला कर दिया.

एक प्रदर्शनकारी दानी बत्रा को बेरहमी से पीटकर तालाब में फेंक दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गई. साथ ही लगभग 50 लोग घायल हो गए. इस हिंसा के बाद गुस्साए लोगों ने कंपनी के एक हिस्से को आग लगाने की कोशिश की वेदांता के एक सुरक्षाकर्मी सुजीत कुमार मिंज की मौत हो गई.

लिंगराज कहते हैं, ‘इसमें न जनता का दोष है और न ही सुरक्षाकर्मियों का. दोष उनका है जिन्होंने विकास के नाम पर विनाश का सिलसिला चला रखा है. उस घटना के लिए वेदांता के अनिल अग्रवाल और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक इन लोगों से कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं.’

लिंगराज इस समय कालाहांडी जिले के नरला ब्लॉक के तालपुड़ा गांव में हैं. इस गांव में आज बाबा साहेब आंबेडकर की एक प्रतिमा का अनावरण है.

ओडिशा की राजनीति में आंबेडकर का उतना प्रभाव नहीं रहा जितना देश के बाकि हिस्सों में रहा है. लिंगराज और उनके साथियों ने इन गांवों में आंबेडकर का प्रचार-प्रसार शुरू किया, तो कई पढ़े-लिखे उत्साही युवकों ने आंबेडकर की एक प्रतिमा बनवा डाली जिसका अनावरण होना था.

इसके लिए भुवनेश्वर से एक आईपीएस अधिकारी आ रहे थे और जंगलों से लोदो सिकोका. वेदांता से माइनिंग की लड़ाई जीतने के बाद आसपास के इलाकों में सदियों से दबाए गए लोगों के लिए नियमगिरी के आदिवासी प्रतिरोध का चेहरा बन गए हैं.

समाजवादी जन परिषद और नियमगिरी सुरक्षा समिति दलितों और आदिवासियों का एक गठजोड़ बनाने का भी प्रयत्न कर कर रही है, जिससे आगे की लड़ाई मजबूती से लड़ी जा सके.

लोदो यहां पर एक सफेद टी-शर्ट पहने हुए थे, जिस पर नेशन विद फार्मर्स लिखा हुआ था. लोदो ने आंबेडकर का नाम लेते हुए अपनी लड़ाई का जिक्र किया और साथ में यह भी दोहराया कि वे माओवादियों का विरोध करते हैं.

Lingraj Azad and Lodo Sikoka with Ambedkar
बीआर आंबेडकर की प्रतिमा के साथ लिंगराज आज़ाद (बाएं) और लोदो सिकोका (फोटो: गर्वित गर्ग/द वायर)

हम माओवादी नहीं हैं

लिंगराज कहते हैं, ‘माओवादी लोग चुनाव को नहीं मानते, लोकतंत्र को नहीं मानते, पर नियमगिरी सुरक्षा समिति लोकतंत्र को भी मानती है और चुनाव भी लड़ती है. हमारे कई सरपंच भी चुनाव जीते हैं और पंचायत समिति सदस्य भी. दूसरी बात यह कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद माओवादियों ने प्रेस को कहा कि हम ग्रामसभा नहीं होने देंगे. हमने कहा कि माओवादी की बात माओवादी करेगा, हम उनकी बात से थोड़े चलेंगे. हमने ग्रामसभा कराई और जीत भी हासिल की. हम माओवादी कैसे हो सकते हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘हमारे आंदोलन को खत्म करने का दूसरा विकल्प इनके पास नहीं है. हम पर माओवादी का मुखड़ा लगाकर ही ये हमारे आंदोलन को खत्म कर सकते हैं और जमीन कंपनी को दे सकते हैं, और यही केंद्र सरकार, राज्य सरकार और वेदांता का मकसद है. हम सिर दे सकते हैं, जान दे सकते हैं लेकिन जमीन नहीं देंगे और माओवादी कहे जाने से रुकेंगे नहीं.’

विज्ञान और तकनीक के खिलाफ नहीं हैं आदिवासी

लखपरदार गांव तक बिजली नहीं पहुंचती, पर कुछ महीने सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से पंचायत पर दबाव बनाकर गांव में सोलर पैनल लगाए गए हैं. हर घर में दो बल्ब और एक टेबल फैन लगा हुआ है. इसके अलावा आदिवासी रेडियो सुन लेते हैं.

आसपास 10-12 किलोमीटर तक मोबाइल नेटवर्क नहीं है तो यहां पर किसी के पास मोबाइल भी नहीं है. पर लिंगराज कहते हैं कि डोंगरिया कोंद आदिवासियों को तकनीक से कोई समस्या नहीं है.

लिंगराज कहते हैं, ‘हम तकनीक का विरोध नहीं करते, पर तकनीक लोगों की आवश्यकता अनुसार तकनीक इस्तेमाल होनी चाहिए. लालच से भरी तकनीक सिर्फ कुछ लोगों के लिए लाभकारी हो सकती है, पर हमें हजारों लोगों को को रोजगार दिलाने वाली तकनीक चाहिए. एक समस्या हल करने वाला विज्ञान दस नई समस्या पैदा कर सकता है, इसलिए हमें जनवादी तकनीक चाहिए, जन-विरोधी तकनीक नहीं.’

पर्यावरण के अनुसार ढली आदिवासियों की जिंदगी

डोंगरिया कोंद आदिवासी जंगल से जितना लेते हैं, उससे कहीं ज्यादा जंगल के लिए करते हैं. इनका प्रकृति से इतना जुड़ाव है कि बाहर की चीजों की इनको जरूरत ही नहीं होती. इनका जीवन बाजार पर निर्भर ही नहीं है.

बाहर से आमतौर पर आदिवासियों को नमक, तेल, चप्पल और बरतन जैसी चीजों की जरूरत कभी-कभी पड़ती है जिसे ये फल या इमली जैसी चीजों के बदले ले आते हैं. बल्कि बाहर के लोग जंगल से सस्ती चीजों के लिए नियमगिरी के लोगों पर निर्भर है.

लिंगराज का कहना है, ‘अगर इनको जंगल से उजाड़ा गया तो ये लोग क्या करेंगे. जंगल ही इनकी प्रकृति है, संस्कृति है, भाषा है, देश है, धर्म है. ये सिर्फ नियमगिरी के लिए आंदोलन नहीं है, ये पूरी दुनिया के लिए आंदोलन है.’

नियमगिरी जाए बिना लिंगराज की बातों का मतलब समझना मुश्किल है. भारत के सबसे पिछड़े जिलों में से एक रहे कालाहांडी में कर्जा उतारने के लिए बच्चे बेचने और भुखमरी से मौत जैसी घटनाएं भी हुई हैं.

इन सबके बीच में बसे होने के बावजूद नियमगिरी इससे बचा रहा है. नियमगिरी के पास पहाड़ हैं. यही पहाड़ इनके भगवान हैं जिसे ये लोग नियामराजा भी कहते हैं और कहते हैं कि इसने इन्हें सब कुछ दिया है.

हर वक्त पैसे, मुनाफे और व्यापार के बारे में सोचने वाले लोगों के लिए यह समझना बहुत मुश्किल है कि जंगल और पहाड़ इन आदिवासियों के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं. लखपरदार गांव में ही रहने वाले द्रिंजू कृषक नियमगिरी आंदोलन में भाग लेने के कारण थोड़ी-थोड़ी हिंदी समझने लगे हैं.

वे बताते हैं कि लांझीगढ़ में वेदांता की रिफाइनरी की क्षमता अब 1 मिलियन टन से बढ़ाकर 6 मिलियन टन प्रतिवर्ष कर दी है. वे बताते हैं, ‘सरकार यहां पर सीआरपीएफ छावनी बना सकती है, पर स्कूल और अस्पताल नहीं. यह छावनी हमसे हमारी जमीन छीनने के लिए है. जब तक ये छावनी है और लांझीगढ़ में फैक्ट्री है, तब तक नियमगिरी का लड़ाई जारी रहेगी.’

द्रिंजू के नाम को लेकर थोड़ा उलझन में पड़ता हूं, तो वे मेरी परेशानी हल करने के लिए एक कागज लकर आते हैं. यह उनकी मतदाता पर्ची है. वे बताते हैं कि कल कोई बाजार की तरफ गया था तो उसे पंचायत वालों ने पूरे गांव की पर्चियां दे दी थी.

नाम देखने के बाद जब पर्ची वापस देने पर द्रिंजू कहते हैं, ‘आप ले जाइए. इस चुनाव में नियमगिरी में वोट नहीं पड़ेगा. दिल्ली और भुवनेश्वर की सरकारें वेदांता की सरकारें हैं, हमारे पास अपना नियामराजा है.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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