मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के तौर पर राज्य-नीति को राजनीति से अलग नहीं किया

मनमोहन सिंह ने अपनी शांत मुद्रा में लेकिन दृढ़ता से यह बात कही थी कि राज्य के संसाधनों पर पहला अधिकार वंचित समुदायों का है- अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का. यह कहना भारत में राजनीतिक रूप से जोखिम भरा काम था. मनमोहन सिंह ने यह जोखिम उठाया था.

तथ्य बनाम भावना: इतिहासकार अपर्णा वैदिक पर हुए हमले क्या दर्शाते हैं?

इतिहासकार डॉ. अपर्णा वैदिक पर सोशल मीडिया के माध्यम से हमले हो रहे हैं. कानपुर के एक लिट फ़ेस्ट में उनकी नई किताब पर चर्चा के दौरान कुछ विवाद उठे. आरोप लगा कि अपर्णा ने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के लिए अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग किया. लेकिन सच्चाई कुछ और है.

शाहीन बाग से लेकर राहुल गांधी पर हमला: अराजक हिंसा को भड़काती भाजपा

19 दिसंबर को भाजपा ने जो कुछ भी किया उसकी गंभीरता को समझने की ज़रूरत है. हिंसा के बाद हमेशा संदेह पैदा होता है. दो पक्ष बन जाते हैं. दूसरे पक्ष को सफ़ाई देनी पड़ती है. भाजपा हर जन आंदोलन या विपक्ष के विरोध के दौरान हिंसा पैदा करके यही करती है.

हिंदू अपने बारे में क्या सोचते हैं?

हम पीढ़ी दर पीढ़ी हम मानते आए हैं कि हिंदू का विपरीतार्थक शब्द मुसलमान है. मैंने अपने बचपन में सुना था कि मुसलमान हर चीज़ हिंदुओं के उलट करते हैं. यही बात मेरी बेटी को उसकी अध्यापिका ने बतलाई. हिंदू समझते हैं कि मुसलमान कट्टर और संकीर्ण होते हैं, क्रूर होते हैं और उन्हें हिंसा की शिक्षा बचपन से दी जाती है. उनकी मस्जिदों में हथियार रखे जाते हैं.

इतिहास का वॉट्सऐप संस्करण: अकादमिक इतिहासकार नहीं, राजनीति को दोष दीजिए

विलियम डेलरिंपल ने हाल ही कहा कि भारत में भ्रामक इतिहास की लोकप्रियता के लिए पेशेवर इतिहासकार भी ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने आसान ज़बान में इतिहास नहीं लिखा, इसलिए इतिहास का वॉट्सऐप संस्करण लोकप्रिय हो गया. लेकिन उनकी यह प्रस्तावना सही नहीं है, क्योंकि जनता सजग होकर भ्रामक और ग़लत व्याख्याओं को चुनती आई है.

मुक्तिबोध स्मरण: ख़ुद को लगातार बदलने की कोशिश स्वतंत्रता का उद्गम है

मार्क्सवादी मुक्तिबोध के लिए आत्म-संशोधन हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है. ज़ाहिर है, यह संशोधन सबके बस की बात नहीं और जो इंसान इससे गुजरता है, वह मामूली नहीं.

राष्ट्रवाद के सरकारी नारे नहीं, संस्कृत को स्वतंत्र शोध चाहिए

संस्कृत को एक विशेष धर्म या संस्कृति के ‘मूल्यों’ की वाहक बना दिया गया है. उसका मूल उद्देश्य ज्ञान का प्रसार नहीं, लोगों को राष्ट्रवादी और संस्कारी बनाने का है. एक विशेष प्रकार की नैतिकता के बोझ से दबी बेचारी संस्कृत किस तरह विद्यार्थियों को आकर्षित करे?

क्या नया हिंदू पूरी तरह धर्म-विहीन हो चुका है?

इस नए हिंदू अधिकार के सहारे कोई हिंदू किसी मुसलमान से किसी भी विषय में पूछताछ कर सकता है. उसे ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने को बाध्य कर सकता है, किसी मुसलमान का टिफ़िन खोलकर देख सकता है, उसके फ्रिज की जांच कर सकता है, उसकी नमाज़ को बाधित कर सकता है.

मुसलमानों का अपने लिए आवाज़ उठाना नागरिक भाव को सक्रिय कर रहा है

भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हो रहे अन्याय के प्रति ग़ैर-मुसलमान भी बोल रहे हैं, लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि मुसलमानों को अपने अधिकार के लिए या अपने ऊपर हुए अन्याय के ख़िलाफ़ अकेले आवाज़ नहीं उठानी चाहिए.

इतिहास जस्टिस चंद्रचूड़ को कैसे याद करेगा, यह उन्होंने ख़ुद तय कर दिया है

भारत के इतिहास में यह दर्ज किया जाएगा कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की इमारत जब गिराई जा रही थी, हमारे कई न्यायाधीशों ने उसकी नींव खोदने का काम किया. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का नाम सुर्ख़ियों में होगा.

स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहने वाला आरएसएस आज विउपनिवेशीकरण का दावा कैसे कर सकता है?

पिछले वर्षों में अदालतें अपने निर्णयों के संदर्भ बिंदु संविधान की जगह धार्मिक ग्रंथों, धर्मशास्त्रों को बना रही हैं. इस तरह हिंदुओं की सार्वजनिक कल्पना को बदला जा रहा है.

धीरेंद्र झा ने गोलवलकर की जीवनी के ज़रिये भारतीय फ़ासिज़्म की जीवनी लिखी है

धीरेंद्र के. झा की 'गोलवलकर: द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' साफ़ करती है कि सावरकर के साथ एमएस गोलवलकर को भारतीय फ़ासिज़्म का जनक कहा जा सकता है. इसे पढ़कर हम यह सोचने को बाध्य होते हैं कि क्यों फ़ासिज़्म के इस रूप के प्रति भारत के हिंदुओं में सहिष्णुता है.

बिना अनुभवों की साझेदारी के जनतांत्रिकता मुमकिन नहीं

अंतरराष्ट्रीयता का मेल हुए बिना राष्ट्रवाद एक संकरी ज़हनीयत का दूसरा नाम होगा जिसमें हम अपने दड़बों में बंद दूसरों को ईर्ष्या और प्रतियोगिता की भावना के साथ ही देखेंगे. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 34वीं और अंतिम क़िस्त.

हिंदी को हिंदीवाद और राष्ट्रवाद से मुक्त किए बगैर भाषा का पुनर्वास असंभव

दुनिया में शायद हिंदी अकेली भाषा है जहां सेवक पाए जाते हैं. हिंदी में शिक्षक हो, पत्रकार हो या लेखक, हिंदी की सेवा करता है, उसमें काम नहीं करता.

मुक्तिबोध के आईने से: जनतंत्र का पहला और आख़िरी सवाल

अपूर्णता का एहसास मनुष्य के होने का सबूत है. समस्त प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य है जिसे अपने अधूरेपन का एहसास है. यह उसे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की प्रेरणा देता है.

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