क्यों डराते हो ज़िंदां की दीवार से…

किसी भी आम नागरिक के लिए जेल एक ख़ौफ़नाक जगह है, पर देवांगना, नताशा और आसिफ़ ने बहुत मज़बूती और हौसले से जेल के अंदर एक साल काटा. उनके अनुभव आज़ादी के संघर्ष के सिपाहियों- नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के जेल वृतांतों की याद दिलाते हैं.

इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी: सब धुआं हो जाएंगे इक वाक़या रह जाएगा…

स्मृति शेष: पिछले दिनों उर्दू साहित्यकार और 90 वर्षों से ज़्यादा से छपने वाली पत्रिका ‘शायर’ के संपादक इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी इस दुनिया से चले गए. 'शायर' उन्हें पुरखों से विरसे में मिली थी, जिसे बनाए रखने का सफ़र आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने ज़िंदगीभर अपना सब कुछ लगाकर इसे मुमकिन किया.

आपातकाल के स्याह दिन बनाम अच्छे दिन

जनतंत्र को अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे लठैतों के इस दौर में 46 साल पहले के आपातकाल के 633 दिनों पर खूब हायतौबा मचाइए, मगर पिछले 2,555 दिनों से भारतमाता की छाती पर चलाई जा रही अघोषित आपातकाल की चक्की के पाटों को नज़रअंदाज़ मत करिए.

के. शारदामणि: महिला अध्ययन की पुरोधा समाजशास्त्री

स्मृति शेष: देश में महिला और जेंडर संबंधी अध्ययन को बढ़ावा देने वालों में से एक चर्चित समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री के. शारदामणि नहीं रहीं. शारदामणि ने न केवल महिला अध्ययन केंद्रों की शुरुआत करने में अहम भूमिका निभाई थी, बल्कि इंडियन एसोसिएशन फॉर विमेंस स्टडीज़ की स्थापना में भी योगदान दिया.

‘हिंद के जवाहर’ का जाना…

हीरेन मुखर्जी ने कहा था कि जवाहरलाल नेहरू सफल राजनेता नहीं हो सके क्योंकि राजनीति में सफलता के लिए जो असभ्यता चाहिए, नेहरू उसके सर्वथा अयोग्य थे.

गुजरात ‘मॉडल’ को चुनौती देने वाले केवड़िया कॉलोनी संघर्ष का पुनरावलोकन

जहां देश एक ओर 'गुजरात मॉडल' के भेष में पेश किए गए छलावे को लेकर आज सच जान रहा है, वहीं गुजरात के केवड़िया गांव के आदिवासियों ने काफ़ी पहले ही इसके खोखलेपन को समझकर इसके ख़िलाफ़ सफलतापूर्वक एक प्रतिरोध आंदोलन खड़ा किया था.

इस बार तो बंगाल को टैगोर का जन्मोत्सव मनाने का हक़ है…

2021 में बंगाल गर्वपूर्वक अपने कवि से कह सकता है, ये जो फूल आपको अर्पित करने मैं आया हूं वे सच्चे हैं, नकली नहीं. इस बार प्रेम, सद्भाव, शालीनता के लिए स्थान बचा सका हूं. यह कितने काल तक रहेगा इसकी गारंटी नहीं पर यह क्या कम है कि इस बार घृणा और हिंसा के झंझावात में भी ये कोमल पुष्प बचाए जा सके.

आनंद, वो फिल्म जिसका हास्यबोध अपने वैविध्य के प्रति आश्वस्त भारत को दिखाता है

1971 रिवाइंड: पचास साल बाद भी हृषिकेश मुखर्जी का 'आनंद' भाषा, जाति, मज़हब की हदों के परे जाकर उसी तरह ख़ुशियां लुटा रहा है.

यूपी: कथित तौर पर ऑक्सीजन की कमी से गोरखपुर के बड़हलगंज में तीन मरीज़ों की मौत

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले के बड़हलगंज क़स्बे का मामला. अस्पताल प्रबंधन ने ऑक्सीजन की कमी से मरीज़ों की मौत की बात से इनकार करते हुए कहा है कि मरीज़ पहले से ही गंभीर हालत में थे.

1971: जब इंदिरा गांधी ने एक संयुक्त विपक्ष को हराया और सामंती ताक़तों को ख़त्म किया…

'ग़रीबी हटाओ' के नारे के साथ उस साल इंदिरा की जीत ने कांग्रेस को नई ऊर्जा से भर दिया था. 1971 एक ऐतिहासिक बिंदु था क्योंकि इंदिरा गांधी ने लक्ष्य और दिशा का एक बोध जगाकर सरकार की संस्था में नागरिकों के विश्वास की बहाली का काम किया.

बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता हासिल करना असंभव है

जाति एक ऐसी बाधा है जो एक समाज का निर्माण नहीं होने देती. राष्ट्र बनकर भी नहीं बन पाता क्योंकि हम एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी नहीं होते. एकजुटता या बंधुत्व के अभाव में सामाजिक संपदा का निर्माण भी नहीं हो पाता.

महादेव देसाई की डायरी के ज़रिये साबरमती आश्रम में टीकाकरण पर हुई चर्चा का पुनर्पाठ

गांधी कहते थे कि वे किसी को चेचक का टीका लेने से नहीं रोकेंगे, लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि वे अपनी मान्यता नहीं बदल सकते और टीकाकरण को बढ़ावा नहीं दे सकते हैं.

1971, वह साल जब भारतीय क्रिकेट ने एक नए युग में प्रवेश किया

1971 में भारतीय क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड और वेस्टइंडीज़ को उनकी ज़मीन पर हराया था और देश में क्रिकेट को लेकर नई उम्मीदों और उत्साह का प्रसार हुआ था. उस समय में जवान हो रहे लोगों के लिए यह केवल खेल के मैदान में मिली जीत पर खुश होने का नहीं, बल्कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सामूहिक क्षमताओं से रूबरू होने का पल था.

राष्ट्रवाद और डंडावाद

प्रेमचंद महात्मा गांधी की आंदोलन पद्धति के मुरीद थे. सशस्त्र आतंक के ज़रिये क्रांति या मुक्ति के नारे प्रेमचंद का खून गर्म नहीं कर पाते क्योंकि वे हिंसा के इस गुण या अवगुण को पहचानते थे कि वह कभी भी शुभ परिणाम नहीं दे सकती.

मोदी के आर्थिक पैकेज का 10 फीसदी से भी कम हिस्सा गरीबों और बेरोजगारों को राहत के लिए है

सरकार ने राहत पैकेज का 90 फीसदी से ज्यादा हिस्सा कर्ज, ब्याज पर छूट देने इत्यादि के लिए घोषित किया है, जिसका फायदा बड़े बिजनेस वाले ही अभी उठा रहे हैं. यदि ज्यादा लोगों के हाथ में पैसा दिया जाता तो वे इसे खर्च करते और इससे खपत में बढ़ोतरी होती, जिससे अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में काफी मदद मिलती.

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