नागरिकों की ‘शुद्धता की कवायदें और अंधराष्ट्रवाद’ वह खाद-पानी है, जिस पर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी विचार मज़बूती पाता है.
‘मरने के बाद कफ़न भी नहीं हुआ नसीब
कौन एतबार करे तेरे इस शहर का’
अब कहीं से आ रही मौतों की ख़बर किसी को भी बेचैन नहीं करती. फिर लोग मुठभेड़ों में मारे जाएं या पुलिस कस्टडी में दम तोड़ देें या सड़क दुर्घटनाओं में अंतिम सांस ले लें. जाहिर है कि असम के हिरासत केंद्रों (डिटेंशन सेंटर) में विगत कुछ समय में आधिकारिक तौर पर हुई 28 लोगों की मौत पर कहीं चर्चा भी नहीं हुई.
और इस ख़बर को भी पिछले ही सप्ताह संसद के पटल पर गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि इन बंदीगृहों में अब तक 28 लोगों की मौत हुई है, अलबत्ता उन्होंने स्पष्ट किया कि वहां बंदियों के लिए पर्याप्त चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध रही हैं, ‘कोई दबाव या डर से नहीं मरा है, वह बीमारी से मरे हैं.’
वैसे अगर हम इलाके में सक्रिय ‘सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस’ की रिपोर्ट को देखें तो उनके मुताबिक यह आंकड़ा ज्यादा है. विभिन्न कारणों से लगभग 100 लोग मरे हैं. कुछ लोग हिरासत केंद्र में मरे हैं, कुछ ने खुदकुशी की है. ऐसी मौतों का वर्ष 2011 से वह दस्तावेजीकरण कर रहे हैं.
वहीं, अगर इनमें से चंद मौतों को देखें, तो पता चलता है कि जब इन बंदियों के प्राण गए, तब सब कुछ ‘सामान्य’ कतई नहीं था.
मिसाल के तौर पर, दुलालचंद पॉल (उम्र 65 साल, मृत्यु अक्तूबर 2019), अमृत दास (उम्र 72 साल, मृत्यु अप्रैल 2019), सुब्रत डे (उम्र 38, मृत्यु मई 2018) और जोब्बार अली (उम्र 61 साल, मृत्यु अक्तूबर 2018) असम के इन निवासियों की जान इन्हीं बंदी शिविरों में गई.
दुलालचंद पॉल का अंतिम समय गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज में बीता, तो अमृत दास और सुब्रत जहां असम के गोआलपाड़ा में गुजरे, जोब्बार का इन्तक़ाल तेजपुर में हुआ.
दरअसल अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जिन दस्तावेजों को जमा करना पड़ता है- और अगर इनमें से किसी में कुछ खामी मिले तो फिर विदेशी घोषित किया जा सकता है- इनमें से किसी एक में कुछ विसंगति पायी गई थी, जिसके चलते किसी अलसुबह इन्हें बिना पहले सूचित किए पुलिस उठाकर ले गई थी और इन्हें हिरासत केंद्र्स में रखा गया था.
दुलाल चंद पॉल (उम्र 65 साल, तेजपुर) के पास एक गांव में लंबे समय से खेती कर रहे थे. उनके पिताजी राजेंद्र पॉल कभी पूर्वी पाकिस्तान से इस इलाके में आकर बसे थे. अब उनकी संतानों पर भी अवैध नागरिक घोषित किए जाने का खतरा मंडरा रहा है.
मई 20, 2017 को फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ने अमृत दास को विदेशी घोषित किया था, जब वह जीवन के सत्तरवें साल में थे. हिरासत केंद्र की ठंडी फर्श पर सोते-सोते अमृत दास को अस्थमा ने जकड़ लिया और पर्याप्त मेडिकल सहायता न मिलने के चलते हिरासत में दो साल समाप्त होने के पहले ही उन्होंने जान गंवा दी.
ऐसा ही हाल सुब्रत डे का हुआ था, अनागरिक घोषित किए जाने के दो माह के अंदर दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हुई थी.
अब यह फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल कितने मनमाने ढंग से काम करते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है. सबसे ताज़ा मसला गुवाहाटी उच्च अदालत का वह फैसला है, जिसमें उसने मोरीगांव के फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा दिए 57 आदेशों, जिसमें इतने सारे लोगों को विदेशी घोषित किया गया था, तत्काल खारिज करने का आदेश दिया है.
अदालत का यह कहना था कि आम हालात होते तो इस अनियमितता के लिए अनुशासनिक कार्रवाई की जाती. इन ट्रिब्यूनल पर सांप्रदायिक सोच के भी आरोप लगते रहे हैं. सरकारी योजना के मुताबिक पहले से चले आ रहे 100 फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल की सहायता के लिए लगभग चार सौ ट्रिब्यूनल दिसंबर तक बनने हैं.
सभी जानते हैं कि असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) की फाइनल सूची जारी की गई है, जिसमें असम के 19 लाख से अधिक निवासियों के नाम नहीं है. इन 19 लाख को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा, जिसमें फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल की अहम भूमिका होगी.
गनीमत समझी जाएगी कि बमुश्किल छह माह के अंदर हुई इन मौतों ने वैसे- चाहे अनचाहे- अवैध प्रवास के नाम पर अनिश्चितकाल के लिए हिरासत रखने की राज्य द्वारा संचालित प्रणाली की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, लेकिन अभी जैसे हालात हैं, इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिखती.
केंद्र में सत्ताधारी पार्टी की तरफ से जैसा माहौल बनाया जा रहा है तो अनागरिक को ढूंढने का यह सिलसिला पूरे देश में रफ्ता-रफ्ता फैलाया जा सकता है ताकि देश के हर हिस्से में ऐसे ही हिरासत केंद्र बनाए जाए, जहां दस्तावेजों की छोटी-मोटी कमी के चलते लाखों लोग अपने तमाम मानवीय अधिकारों से वंचित कर कारावासों में ठूंस दिए जा सकें.
दरअसल, जुलाई माह में ही केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों को यह निर्देश भेजा था कि वह सभी प्रमुख शहरों में ऐसे हिरासत केंद्र बनाए. सभी राज्यों को वितरित ‘2019 मॉडल डिटेंशन मैनुअल’ में ही ऐसे इलाके और सूबे जो अप्रवासियों के पहुंचने के ठिकाने हैं, उन पर फोकस किया जाना है.
उत्तर प्रदेश में पुलिस महकमे में आदेश जारी किया गया है कि वह जगह-जगह ऐसे लोगों को तलाशें जिनके पास वैध कागज़ात नहीं हैं. महाराष्ट्र और कर्नाटक की आयी कुछ खबरों ने इस बात को रेखांकित किया है कि यह कोई कपोलकल्पना नहीं है.
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक नवी मुंबई में ‘अवैध प्रवासियों’ के लिए महाराष्ट्र का ऐसा पहला हिरासत केंद्र बनेगा. राज्य के गृह विभाग ने सिडको (सिटी इंडस्ट्रियल एंड कॉर्पोरेशन) को लिखा भी है कि नवी मुंबई के पास नेरूल में 1.2 हेक्टेयर का प्लॉट उपलब्ध कराए जहां उन्हें अस्थायी तौर पर रखा जा सके.
एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि बेंगलुरु से लगभग चालीस किलोमीटर दूर नीलमंगल के सोन्डेकोप्पा में भी ऐसा एक हिरासत केंद्र बन रहा है. दस फीट उंची दीवारें, कंटीली तारें और इर्दगिर्द बने वॉचटावर्स के चलते यह जगह जेल से कम नहीं दिखती.
यह अलग बात है कि ब्यूरो ऑफ इमिग्रेशन के अधिकारी इस बात को खारिज करते हैं और इसके लिए एक नया नाम गढ़ते दिखते हैं कि वह हिरासत केंद्र नहीं है बल्कि मूवमेंट रिस्ट्रिक्शन सेंटर अर्थात गतिविधि सीमित रखने का केंद्र है.
याद रहे देश के तमाम पत्रकार, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हिरासत केंद्र को लेकर दो किस्म के सवाल खड़े करते रहे हैं. पहला सवाल इसी के बहाने किस तरह मानवाधिकारों के सरासर उल्लंघन को सुगम किया जा रहा है.
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने नवंबर 2018 में जारी अपनी रिपोर्ट ‘बिटवीन फियर एंड हेट्रेड: सर्वाइविंग माइग्रेशन डिटेंशन इन असम’, जिसे उन्होंने वकीलों, पत्रकारों, अकादमिकों, जेलों में सक्रिय डॉक्टर तथा पीड़ित या उनके परिवारवालों से बात करके तैयार किया था, में तमाम ऐसे विचलित करनेवाले तथ्यों को पेश किया था.
एमनेस्टी ने पाया था कि
– जिन व्यक्तियों को विदेशी घोषित किया गया है, उन्हें कितनी कालावधि तक हिरासत में रखा जाएगा इसके बारे में कोई वैधानिक समयसीमा तय नहीं की गई है
– दूसरे जिन व्यक्तियों को विदेशी घोषित किया जाता है उन्हें आपराधिक जेलों में दोषसिद्ध लोगों और विचाराधीन कैदियों के बीच रखा जाता है
– हिरासत के हालात और उसकी परिस्थितियों से व्यक्तियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है,
– विदेशी ट्रिब्यूनल, जो नागरिकत्व के मामलों पर फैसला सुनाते हैं वह अनियमित विदेशियों को चिह्नित करने के लिए दोषपूर्ण प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करते हैं.
और इन्हीं के चलते सरकार से यह मांग की थी कि वह इन ट्रिब्यूनलों द्वारा विदेशी घोषित किए गए लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को समाप्त करे और जहां तक संभव हो डिटेंशन के गैर-हिरासती विकल्पों पर सोचे.
दूसरी श्रेणी के सवाल हिरासत केंद्र निर्माण के कानूनी आधारों को समझने से संबंधित हैं.
सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस की तीस्ता सीतलवाड़, जिनके सहयोगी असम के कई हिस्सों में एनआरसी से बाहर कर दिए गए लोगों को कानूनी सहायता देने की मुहिम में मुब्तिला हैं, यह पूछती हैं कि क्या इनके निर्माण के लिए कोई विधायी प्रक्रिया चलायी गई है.
वे बताती हैं, ‘अगर वह इसके लिए फॉरेनर्स एक्ट 1946 को इस्तेमाल कर रहे हैं तो आप पाएंगे कि इस अधिनियम का सेक्शन 3 बताता है कि विदेशियों को गिरफ्तार किया जा सकता है, हिरासत में रखा जा सकता है या सीमित रखा जा सकता है, मगर कहीं भी यह कानून इसके लिए हिरासत केंद्र की बात नहीं करता.’
वह आगे बताती हैं कि उन्होंने असम के छह जिलों में बने ऐसे हिरासत केंद्रों का अध्ययन किया है, यहां में ठूंस दिए गए लोगों के परिजनों से बात की और यही पाया है कि यहां की स्थितियां अमानवीय हैं.
दरअसल, सरकार की तरफ से इस मामले में इतनी बदहवासी दिखाई जा रही है कि उसने इस पहलू पर भी अभी गौर करना मुनासिब नहीं समझा है कि नागरिकता संबंधी दस्तावेजों में कमी के चलते हिरासत केंद्र में रखे गए लोग- जिनमें से असम के सभी हिरासत केंद्र वहां की जेलों का ही हिस्सा हैं- दोषसिद्ध नागरिकों से भी दोयम दर्जे पर हैं.
वजह यही है कि दोषसिद्ध लोगों को कम से कम कभी परोल पर रिहा किया जा सकता है, अगर परिवार में किसी की शादी हुई या किसी मौत हुई तो चंद दिनों के लिए अपने आत्मीयों के बीच भेजा जा सकता है, मगर अनागरिक घोषित किए गए लोग इस सुविधा से भी महरूम हैं.
यह अकारण नहीं कि ऐसे लोगों ने कई बार भूख हड़तालें भी की हैं. एक तरफ जहां अनागरिक होने के चलते उन्हें परोल पर रिहा नहीं किया जाता लेकिन चूंकि वह जेलों में ही बंद हैं, इसलिए उन्हें हथकड़ी लगाने से गुरेज नहीं होता.
नवंबर 2018 का किस्सा है, ‘अनागरिक’ घोषित किए रतनचंद्र विश्वास – जो गोआलपाड़ा में डिटेंशन में थे और बीमार चल रहे थे- की एक तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई, जिसमें उन्हें गोआलपाड़ा के सिविल अस्पताल में भर्ती किया गया था, मगर उनके हाथों में तब भी हथकड़ी पड़ी थी. इस मामले को लेकर जब शोर मचा, तब उनकी हथकड़ी को हटाया गया.
इन संदिग्ध और घोषित विदेशियों को ऐसे हिरासत केंद्रों में अनिश्चितकाल के लिए रखने के सरकार के निर्णय की मुखालिफत करते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने सितंबर 2018 में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दाखिल की थी.
मालूम हो कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के विशेष पर्यवेक्षक होने के नाते मंदर ने जनवरी 2018 में असम के इन केंद्रों का दौरा किया था और अपनी रिपोर्ट में इस विचलित करने वाले निष्कर्ष को साझा किया था कि उन्हें लगता है कि हिरासत में रखे गए यह सभी ‘अनागरिक अपनी शेष जिंदगी यहीं बिताएंगे.’
संविधान की धारा 21 का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा था कि ‘मानवीय गरिमा के अधिकार को हिरासत में भी कुचला नहीं जा सकता. और इसलिए यह कहना मुनासिब होगा कि आम अपराधियों के साथ इन लोगों की हिरासत, जेल परिसरों में, जहां उन्हें कानूनी नुमाइंदगी या परिवार के साथ संवाद का भी अधिकार न हो, ही इस अधिकार का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है.’
ध्यान रहे कि भारत में ऐसी संदिग्ध नागरिकता को लेकर अक्सर बांग्लादेश का नाम लिया जाता है. अब जब भारत और बांग्लादेश में ऐसा कोई औपचारिक करार नहीं है कि जिन्हें भारत विदेशी समझे उन्हें बांग्लादेश भेजा जाए तो ऐसे तमाम लोगों का अधर में लटके रहना लाजिमी है.
इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि जब जब एनआरसी की बात होती है या जब भाजपा के अध्यक्ष और उनके सहयोगी ‘घुसपैठियों’ को भगाने की बात करते हैं तो यही सवाल पूछा जाता रहा है कि जब आप बांग्लादेश को खुद आश्वस्त कर चुके हैं कि यह सब भारत का आंतरिक मामला है- जबकि जनमानस में इसी विमर्श को तवज्जो दी जाती रही है- जो अवैध प्रवासी हैं वह दरअसल ‘बांग्लादेशी’ हैं.
अंत में इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि असम में एनआरसी बनाने के सिलसिले का एक चरण पूरा हो गया है और ‘घुसपैठियों’ और ‘अवैध प्रवासियों’ को भगाने के नाम पर इसी किस्म का सिलसिला देश के बाकी हिस्सों में भी चलाने की बात हो रही है, तथा जिस बात के ‘फायदे’ भी सत्ताधारी पार्टी को दिख रहे हैं, यह सोचना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि यह किस्सा यहीं समाप्त होगा, भले ही कितनी भी मानवीय त्रासदियां हमारे सामने आती रहें.
दरअसल हमें नहीं भूलना चाहिए कि नागरिकों की ‘शुद्धता की कवायदें और अंधराष्ट्रवाद’ वह खाद-पानी होते हैं जिन पर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी विचार मजबूती पाता है.
आखिर में किस्सा मेमिसा निशां का. मेमिसा को असम के फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ने दस साल पहले ‘विदेशी’ घोषित किया, तभी से वह कोकराझार के हिरासत केंद्र में बंदी हैं. पिछले दिनों उनके पति का इंतकाल हो गया. अपनी पत्नी को हिरासत केंद्र से न निकाल पाने से वह इतने हताश हो चले थे कि अवसाद का शिकार हुए थे.
मेमिसा नेत्रहीन हो चुकी हैं. ऐसा नहीं है कि हिरासत केंद्र में पहुंचने के पहले वह ऐसी थीं. डॉक्टरों का कहना है कि ‘अत्यधिक रोने से’ उनकी आंखों की ऐसी दुर्दशा हुई है. उनका सोलह साल का बेटा कहीं मजदूरी करने गया है, तो अब बीस साल की हो चुकी बेटी दूसरों के घरों में का काम करती है.
परिवार की इतनी हैसियत नहीं है कि लोग मेमिसा को मिलने जा सकें. अब 12 साल के उनके सबसे छोटे बेटे को अपनी मां का चेहरा तक याद नहीं है. कानून कहता है कि किसी को तीन साल से अधिक ऐसे रखा नहीं जा सकता, मगर अब नेत्रहीन हो चुकी मेमिसा निशां के लिए ‘नागरिक शुद्धता’ की यह कवायद उम्रकैद में तब्दील हो गई है. बहन मेमिसा, हमें माफ करना!
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)